रात में तारों से लिए गए अधूरे शब्द।।
संघर्ष ए विक्रांत
एपिसोड - 1
कहानी में प्रयुक्त सभी पात्र और स्थान काल्पनिक है और इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है।
धन्यवाद।।
शाम का वक्त है। कुछ कुछ सूरज अभी नज़र आ रहा है। शहर के बाहर एक टूटी फूटी चाय की रेडी नजर आ रही है या फिर यूं कह लो की चाय का कोई छोटा सा ठेला है जिस पर इस वक्त एक आदमी जिसका नाम सूरज बाबू है अपने सर पर लाल मुक्का बांधकर सीना कसकर और छाती चौड़ी करके मर्द बना खड़ा है क्योंकि वो इस ठेले का मालिक है।
सूरज बाबू उम्र लगभग पिचेतर साल है। बार बार खांसते रहते हैं। खूब बीमार रहते हैं लेकिन खूब मर्द बने घूमते रहते हैं। आज भी उनकी आंखों में कई मलाल नजर आते हैं। सूरज बाबू का एक ही तकिया कलाम है की - " अपना धंधा सबसे चंगा ना लो और किसी से पंगा।"
ठेला एक कच्चे मकान के आगे लगा हुआ है। मकान तो नहीं कह सकते लेकिन एक टूटा हुआ , टूटी छत वाला कच्चा कमरा जरूर कह सकते हैं।
सूरज बाबू तेजी से इधर उधर नजर दौड़ाता जाता है और चिलाता है - " गरमा गर्म चाय, सूरज बाबू है बनाय, सबको है भाय, जिसको भी पीनी है अब वो जल्दी से आए, और चाय पी जाय।"
लेकिन कोई भी नहीं आता है। सूरज बाबू एक लंबी सांस भरते हुए फिर से बोलता है - " गरमा गर्म चाय, सूरज बाबू है बनाय, सबको है भाय, जिसको भी पीनी है अब वो जल्दी से आए, और चाय पी जाय। हां साथ में पैसे भी लाय।"
इस बार भी कोई नहीं आता है। सूरज बाबू फिर से चिलाने लगता है लेकिन वो बीच में ही जोर जोर से खांसने लगता है।
इतने में दूसरी और से एक लड़का तेजी से चला आ रहा है। फटे पुराने कपड़े हैं देखने में कोई छोटा भिखारी नजर आ रहा है। पैरों में टूटी हुई हवाई चप्पल पहन रखी है। गौर से देखने पर दिखाई पड़ता है की एक चपल को कसकर रस्सी से बांधा गया है ताकि वो फिर से टूट न पाए। सर नंगा है। आंखें गहरी काली, रंग हल्का गोरा है गोल मटोल सा चेहरा है। अगर वक्त ने रंग न बदले होते तो वो जरूर कोई महाराजा या शहजादा होता। उसका सर ऊपर है मानो वो किसी के सामने झुकेगा नहीं। उम्र भी कुछ खास नज़र नहीं आ रही है। सिर्फ बारह तेरह साल का है। बिल्कुल मासूम सा भोला चेहरा है लेकिन दिल में जुनून और संघर्ष नज़र आ रहा है जिसे कोई देखते ही समझ जाए।
वो लड़का धीरे धीरे चलकर सूरज बाबू के पास आया और सूरज बाबू के पांव छुते हुए बोला - " नमस्ते बाबूजी। धन्य हो गया जो आज आपके दर्शन हो गए।"
इतनी कम उम्र में इतने अच्छे संस्कार देखकर सूरज बाबू कुछ देर के लिए अपलक सा रह गया।
सूरज बाबू खांसते हुए बोला - " क्या चाहिए बिटुबा तुमको, गरमा गर्म चाय एक कप में डालें क्या?"
लड़का अपने चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट लाते हुए बोला - " ना बाबूजी हमे चाय नहीं चाहिए हमें तो काम चाहिए। अगर आप हमें कोई काम दे देंगे तो हमारा काम हो जायेगा।"
सूरज बाबू इतनी कम उम्र के बच्चे के मुंह से ऐसी बातें सुनकर अचंभे में आ गया और उसे लगा की बच्चा है यूंही मजाक कर रहा है तो सूरज बाबू भी हंसते हुए बोला - " बिटबा ये उमर तो पढ़ने की है काम करने की नहीं है। जाकर पढाई करो। अगर चाय पीनी है तो बताने का मैं अभी चाय बनाने का।"
ये सुनकर वो लड़का अपना सर नीचे झुकाकर खड़ा हो गया और रात के अंधेरे में जमीन पर चल रहे जीवों को एकटक देखने लगा और फिर बोला - " लेकिन बाबूजी हमें काम चाहिए। मुझे अपने स्कूल की फीस जमा करानी है। पूरी दो सो रुपया फीस है। अगर भीख मांगते घूमेंगे तो चार महीने तक पैसा वसूल न होगा और लोग हमें भिखारी बोलकर खूब चिड़ाएंगे। जब इज्जत न रहेगी तब पढ़कर मैं कौनसा घास उखाड़ लूंगा।"
सूरज बाबू बच्चे की बातें सुनकर हक्का बक्का सा रह गया। उसे भी अब ये लगने लगा की बच्चा मजाक नहीं कर रहा है बल्कि सच बोल रहा है।
सूरज बाबू - " लेकिन बीटूबा तूं होता कौन? और कहां से आता? तेरा माता पिता पैसा नहीं कमाता जो तू कमाने की फिराक में घूमता फिरता।"
लड़के ने भावुक होते हुए सड़क किनारे खड़े खंभे की लाइट की और देखते हुए कहा - " मेरा नाम विक्रांत है।"
इतना कहकर बच्चे ने अपना सर ऊपर उठाया और मुस्कुराते हुए बोला - " विक्रांत यानी बहादुर, वीर ,तेजस्वी। लेकिन महादेवी वर्मा कहती हैं की हर व्यक्ति को अपने नाम का विरोधावास लेकर जीना पड़ता है। मगर मैं उनकी बात से सहमत नहीं हूं। "हर" की जगह उन्हें "कई" शब्द का प्रयोग करना चाहिए था।"
सूरज बाबू विक्रांत की इन बातों को समझने में खुद असमर्थ मान रहा था। विक्रांत की इन बातों को तो शायद कोई स्वावलंबी प्रतिभाशाली व्यक्ति ही समझ सकता था जो खिताब किसी समय में अंबेडकर जी के पास था।
सूरज बाबू ने कहा - " लेकिन बिटबा तेरे मां बाप कहां रहता?"
विक्रांत ने अपनी नजरें नीचे करते हुए कहा - " मैं अपने घर से भागकर आया हूं। वहां कोई नहीं था मेरा।"
सूरज बाबू फिर हिचकिचाते हुए बोला - " तेरा मां बाप कहां गया?"
विक्रांत अपनी आंखें मसलते हुए - " पता नहीं। लेकिन लोग कहते हैं की वो वहां चले गए जहां भगवान रहते हैं।"
सूरज बाबू बच्चे की बातें सुनकर भावुक हो गया और विक्रांत के सर पर हाथ रखते हुए बोला - " तो तूं घर से क्यों भागा?"
ये सुनकर विक्रांत की आंखों से आंसू छलक गए और वो सिसकी लेते हुए बोला - " चाचा चाची बहुत मारते थे। घर का सारा काम करवाते थे। कहते थे की तेरे मां बाप के साथ कंभखत तूं भी मर जाता तो हमें शांति मिल जाती। एक दिन उनके अत्याचारों से तंग होकर मैं घर से भाग निकला और आपके पड़ोसी सहर फिरोजपुर में आ गया। लोगों के घरों में खूब कपड़े धोए , पशु भी संभाले और भी सारे काम किए और आपके बगल वाले स्कूल में दाखला ले लिया। आठवीं कक्षा में पढ़ता हूं बाबू जी। लेकिन इस बार कोई खास काम हाथ न लगा। चार सो रुपया फीस है। मैने जैसे तैसे करके दो सो रुपया फीस जमा करा दी है अब दो सो और चाहिए। लोग ढाके डालकर भी पैसे कमाते हैं लेकिन मैं उनसा नहीं हूं। मैं मेहनत का खाता और मेहनत का कमाता तभी मैं विक्रांत कहलाता। आज बाबूजी मैं आपके शहर में चक्कर काटने आ गया था। सोचा की इसी बहाने कोई काम हाथ लग जाए। इतने में आपकी आवाज कानों में पड़ी तो इस और आ गया बाबूजी। अब बताइए आप मुझे काम देंगे क्या?"
बच्चे की बातों को सुनकर सूरज बाबू के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई और वो विक्रांत के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला - " तूं क्या काम करेगा बीटूबा।"
विक्रांत अपना सर ऊपर करके बोला - " आप जो कहेंगे वो करूंगा। मैं चुटकियों में चाय बना दूंगा। अदरक वाली, लॉन्ग वाली जो कोई भी बनानी हो। जब जरूरत पड़ी तब चुटकियों में कपड़ा उठा सफाई कर डालूंगा। चाय पीने के लिए लोगों को बुलाऊंगा। जितनी जोर से बोलना होगा उतनी जोर से चिलाऊंगा। वो भी बिल्कुल आपकी तरह - " गरमा गर्म चाय , विक्रांत बाबू है बनाय, पीने के लिए जल्दी से आय और पैसा साथ में लाय। "
बच्चे की बातें सुनकर सूरज बाबू की हंसी फूट पड़ी और वो विक्रांत के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला - " मैं तुम्हे अपने साथ काम कर रख लूंगा। महीने के पूरे तीन सो रुपया दूंगा। तुम्हारी फीस भी पूरी हो जायेगी और सो रुपया बच भी जाएगा।"
विक्रांत खुशी से बोला - " वो सो रुपया मैं बचत करूंगा और गुलक में डालूंगा। जब जरूरत पड़ी तब वो पैसे काम आयेंगे। बाबू जी आप यहीं रुकिए मैं मेरी किताबें और थैला लेकर आता हूं।"
सूरज बाबू - " लेकिन बिटबा तुम्हारी किताबें कहां होती?"
विक्रांत रुकते हुए - " बाबू जी मैं फिरोजपुर में एक सड़क के किनारे एक कोने में रहता हूं। मेरे पास एक कंबल है उसे मैं ऊपर ले लेता हूं। जब जरूरत पड़े तो नीचे बिछाकर सो जाता हूं। वही मेरा पथ्य है।"
इतना कहकर विक्रांत तेजी से भागता हुआ बोला - " बाबूजी मैं अभी अपना बोरिया बिस्तर लेकर आता हूं।"
सूरज बाबू बोला - " बिटबा अब रात बहुत हो गई कल सुबह जाकर ले आना।"
लेकिन विक्रांत के पैरों में तो जैसे पर लग गए थे उसने सूरज बाबू की बात पर कोई ध्यान न दिया और तेजी से सूरज बाबू की आंखों से ओझल हो गया।
बच्चे की बातें सुनकर सूरज बाबू अभी तक अचंभे में था और सूरज बाबू धड़ाम से कुर्सी पर बैठ गया और अपने आप से बोल पड़ा - "न जाने आज देश में कितने विक्रांत इसी तरह घूम रहे होंगे। कोई खबर नहीं।"
इतना कहकर सूरज बाबू की आंखों से आंसू जमीन पर लुढ़क गए।
सूरज बाबू ने अपने गले में लटका रखे लाल रंग के मुक्के से अपने आंसू पोंछे और फिर कुछ सोचते हुए खड़ा हुआ और आसमान की और नज़र दौड़ाई तो रात काफी हो चुकी थी। हर और घना काला अंधेरा नज़र आ रहा था। सूरज बाबू इधर उधर नज़र दौड़ाने लगा लेकिन दूर दूर तक कोई जिंदा प्राणी नजर नहीं आ रहा था और उसकी चाय बेचकर पैसे कमाने की उम्मीद भी अब धीरे धीरे समाप्त हो रही थी। इतने में एक और से धीरे धीरे कदम बढ़ाते हुए रंजन बाबू चाय के ठेले की और चल आ रहे थे। रंजन बाबू को देखकर सूरज बाबू के मुंह से अकस्मात ही निकल पड़ा - "लो आ गया पैसों का घमंडी। अब आते ही बड़ी बड़ी डींगे हांकने लगेगा और अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने में तो कोई कसर न छोड़ेगा। रंजन बाबू जो की इस शहर के बड़े नामी अमीर आदमी हैं। जेब में खूब पैसा है और घमंड भी। एक नंबर के गुस्सैल, मक्कार और आलसी आदमी है। पास में खूब पुस्तैनी जमीन है जिसके नाम पर ये खूब उछलते हैं और इस जमीन के पैसे से ही बस अपनी जेब गर्म करते रहते हैं। रंजन बाबू को दूर से चलते हुए आता देखकर सूरज बाबू ने टोपिया गैस पर चढ़ा दिया। हालांकि सूरज बाबू को मालूम था की रंजन बाबू रोज ही उनके ठेले पर शाम को चाय पीने के लिए आते हैं लेकिन आज वे काफी देरी से आए थे। रंजन बाबू वहां पर आकर एक और पड़े मेज पर टांगे फैलाकर बैठ गया और ठेले और फिर ठेले के पीछे बने घर की और नज़र दौड़ाते हुए बोला - "क्या सूरज बाबू आज भी वर्षों पुराना वही चाय का धंधा,वही टूटा फूटा मुर्दाघर बन चुका मकान और वही छोटा सा कबाड़ का ठेला। इससे कब तक गुजर बसर करोगे। अरे बाहर निकलो। कोई ढंग का काम करो। मुझे देखो कितनी इज्जत है मेरी हर जगह। रंजन बाबू को आज हर कोई जानता है। आज वक्त भी डरता है मुझसे और एक तुम हो कोई नहीं जानता तुम्हे। ठेले पर आकर सब चाय पूछते हैं। उस चाय को कौन बनाता है ये कोई नहीं पूछता।"
लेकिन सूरज बाबू ने इस बात का कोई ज़बाब नहीं दिया क्योंकि रंजन बाबू तो रोज ही यही एक बात कहता था जिसे सुनकर सूरज बाबू के कान पक चुके थे। लेकिन रंजन बाबू से बातों में लड़ना भैंस के आगे रोना अपना दिदा खोने वाली ही हाथ थी।
इतने में एक और से आवाज आई - "बाबू जी पूछता तो कोई ये भी नहीं है की आपने तरक्की अपने दम पर की है या फिर अपने पुरखों का धन खा मजे लूट रहे हो। इंसान कभी पैसे से महान नहीं बनता है। इंसान महान बनता है अपनी ईमानदारी,बफादरी और समझदारी से। ऐसा मेरी मां ने मुझे सिखाया था जब वो जिंदा थी। अब तो मां से मिलने की उम्मीद ही न रही।"
ये सुनते ही सूरज बाबू और रंजन बाबू ने एक साथ उस और नज़र दौड़ाई जहां से आवाज आ रही थी। वहां पर कंधे पर एक कटा फटा, एक साल से ने धोया हुआ, गंदा मैला स्कूल वाला थैला टांगकर विक्रांत खड़ा था और वो धीरे धीरे अपने कदम सूरज बाबू की और बढ़ा रहा था। विक्रांत के हाथ में एक फटा पुराना कंबल पकड़ा हुआ था जिसे देखकर सूरज बाबू धीरे से अपने आप से बोल पड़ा -"बाप रे ये लड़का इतनी ठंड में सिर्फ एक कंबल से रात कैसे निकालता होगा।"
इतने में एक और से आवाज आई - "बिलकुल सही कहा बेटा तुमने। तुम्हारी मां को मेरा प्रणाम।"
ये आवाज थी निलेश पांडे की जो की इस शहर के सबसे ईमानदार आदमी है और एक क्लर्क के पद पर विराजमान है। खूब नौजवान और वफादार है।
इतने में विक्रांत अपना बोरिया बिस्तर लेकर सूरज बाबू के पास चला गया और निलेश बाबू बाहर पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया।
तभी सूरज बाबू अपनी घड़ी में नज़र दौड़ाते हुए बोला - "बितबा तू इतनी जल्दी आ जाता। मुझे तो पता ही न चलता। तूं अभी तो गया था ना। तूं चलकर गया या फिर उड़के।"
विक्रांत अपना बोरिया बिस्तर वहीं दीवार के साथ रखते हुए - "बाबूजी मैं हवा की तरह उड़ कर गया और तूफान की तरह भागकर आ गया।"
इतने में रंजन बाबू बोला - "साला कौन है ये छोकरा? बड़ी जुबान चलती है इसकी।"
ये सुनकर विक्रांत डर गया और खामोश हो गया और चुपचाप अपना सर नीचे लटका लिया।
निलेश पांडे रंजन बाबू को घूरते हुए बोला - "क्यों बच्चे पर चिला रहे हो। बच्चा है सही बात कह रहा है।"
रंजन बाबू अपनी मुट्ठियां भींचते हुए - "निलेश तुझे बड़ा तरस आ रहा है इस दो टके के लौंडे पर।"
सूरज बाबू गुस्से में बोला - "रंजन बाबू आप उम्र के हिसाब से मुझसे बड़े है इसलिए मैं आपकी इज्जत कर रहा हूं। ये चाय का ठेला है कोई रंडियों की महफिल नहीं जो आप कुछ भी अनाब शनाब बकते रहेंगे।"
नीरज बाबू बीच में ही समझोता करने के उद्देश्य से बोल पड़ा - "छोड़िए सूरज बाबू ऐसे झगड़े तो चलते ही रहते हैं। वैसे भी आप दोनों तो बड़े हैं। आप इस तरह आपस में झगड़ते हुए अच्छे नहीं लगते।क्यों बेवजह ही छोटे से बच्चे के लिए आप दोनों दुश्मनियां पाल रहे हैं। सूरज भईया आप गरमा गर्म चाय बनाइए। ऐसी सुनसान सी रात में सड़क किनारे बैठकर चाय पीने के तो मजे ही कुछ और है। ऐसे लगता है जैसे..........।"
विक्रांत बीच में ही बोल पड़ा - "जैसे बाबूजी किसी रंगीन बगीचे में बैठकर अमृत पी रहे है।"
नीरज बाबू खुशी से उछलते हुए बोला - "बिलकुल सही कहा बेटा। तुमने तो मेरे मुंह की ही बात छीन ली। मैं अभी बिलकुल यही बोलने वाला था।"
इतने में रंजन बाबू खड़ा हुआ और अपने कदम सड़क की दूसरी और बढ़ा दिए तो पीछे से सूरज बाबू बोला - "अरे रंजन बाबू जी तनिक चाय तो पी जाता। तूं गुस्सा कर जाता और इसे भाग जाता ये बात मेरे मन को तनिक भी नहीं भाता।"
रंजन बाबू बिना पलटे बोला - "हमारे इतने भी बुरे दिन नहीं आए हैं की कबाड़ के ठेलों पर बैठकर चाय पिएंगे।"
इतना कहकर रंजन बाबू आग बबूला होते हुए वहां से नौ दो ग्यारह हो गया।
नीरज बाबू बोला - " रहने दीजिए सूरज बाबू रईस बिगडेल है। पैसे का नशा सर पर चढ़ा हुआ है। किसी दिन जब खुद पैसा कमाना पड़ेगा तो फिर अकल ठिकाने आ जायेगी। लेकिन ये बिटबा कौन है?"
ये सुनकर विक्रांत के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई जिसने निलेश बाबू को अपनी और खींच लिया था।।
विक्रांत ने अपने कदम निलेश बाबू की और बढ़ा दिए और निलेश बाबू के सामने अपना सीना चौड़ा करते हुए बोला - " बाबूजी मेरा नाम विक्रांत है। विक्रांत यानी की बहादुर इंसान।"
बच्चें की बातें सुनकर निलेश बाबू अपने मन में बोल पड़ा - " बच्चा कितना बड़ा संकल्प लेकर जी रहा है।"
इतने में सूरज बाबू बोला - " ये बीटबा अनाथ है। पास के ही स्कूल में पढ़ता है। बेचारा काम की तलाश में इधर उधर भटक रहा था। स्कूल की फीस जमा कराने के लिए इधर उधर भटकर कुछ पैसों का इंतजाम कर रहा था। मेरे पास काम के लिए आया तो मैने इसे काम पर रख लिया।"
बच्चे की जीवन गाथा सुनकर निलेश बाबू के मुंह से अकस्मात ही निकल पड़ा - " भगवान इतना बुरा किसी के साथ न करे।"
अगले ही पल निलेश बाबू खुद पर काबू करते हुए बोला - " बेटा तेरे माता पिता को क्या हो गया था?"
विक्रांत ने बताना शुरू किया की - " मेरी मां बीमार थी। हम गरीब लोग थे इसलिए हमारे पास मां के इलाज के लिए पैसे नहीं थे। इलाज न हो पाने के कारण मां हमें एक दिन छोड़कर चली गई। मेरे पिताजी एक किसान थे। जमींदार ने ऐसा खेल रचा की मेरे पिताजी उनका कर्ज नहीं चुका सके। एक दिन मेरे पिताजी फांसी लगा मर गए और मुझे छोटे से को ही अनाथ कर गए।"
ये सुनकर निलेश बाबू की आंखें आंसुओं से भर गई उधर सूरज बाबू ने भी बच्चे की व्यथा कथा सुनकर आंखों से आंसू जमीन पर गिरा दिए।
विक्रांत अपने फटे पुराने कपड़ों के सहारे अपने आंसू पोंछते हुए बोला - " बाबूजी मैं भी अपने माता पिता के चले जाने के बाद मर जाना चाहता था लेकिन मेरी मां ने मुझसे ये बचन लिया था की एक दिन मैं कुछ ऐसा करूं की मेरी तरह और किसी बच्चे पर न बीते।"
ये सुनकर निलेश बाबू एकटक विक्रांत के मासूम से चेहरे की और देखने लगा जो वक्त की मार खाकर अब पीला पड़ चुका था लेकिन उसकी आंखों में आज भी वो चमक थी जो किसी समय में भीमराव अम्बेडकर की आंखों में नज़र आती थी।
निलेश बाबू अपने आप से बोल पड़ा - " बच्चे का संकल्प कितना बढ़ा है। इतनी छोटी सी उम्र में इतनी समझदारी। इस बच्चे में कुछ तो अलग बात है।"
निलेश बाबू का गला भर आया और वो आगे कुछ बोल न सका।
सूरज बाबू बोला - " बिटबा देखना तूं एक दिन बहुत बड़ा इंसान बनेगा। सारा दुनिया तुझे विक्रांत सर बुलाता घूमेगा।"
निलेश बाबू विक्रांत के सर पर हाथ फेरते हुए बहुत ही भावुक आवाज़ में बोला - " भगवान करे की वो दिन जल्द ही आए जब दुनिया तुझे विक्रांत सर कहकर बुलाए।"
अपने भरे गले से निलेश बाबू इससे आगे कुछ न बोल सका।
विक्रांत अपनी आंखों में एक गहरी चमक और चेहरे पर मासूमियत सी लेकर बोला - " बाबूजी आप रो क्यों रहे हैं?"
ये सुनकर निलेश बाबू ने तेजी से अपना मुंह दूसरी और घुमा लिया और अपनी आंखों के आंसू पोंछते हुए बोला - " नहीं बेटा मैं कहां रो रहा हूं। मैं.... मैं नहीं रो रहा हूं?"
इतना कुछ कहकर भी निलेश बाबू अपनी आंखों के आंसुओं को छुपा न सका।
निलेश बाबू फिर चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कुराहट लाते हुए बोला - " बेटा मैं तो कहता हूं की तुम मेरे साथ मेरे घर पर रहो मैं तुम्हारी स्कूल की फीस भी भर दूंगा और तुम्हें रहने के लिए घर भी मिल जाएगा और भाई बहन भी। मेरे भी दो बच्चे हैं। मैं तो कहता हूं की चलो मेरे साथ मैं तुम्हें अपने बेटे की तरह रखूंगा।"
ये सुनकर विक्रांत किसी गहरी सोच में डूब गया। इतनी कम उम्र के बच्चे से अगर ये सवाल पूछा जाए तो वो भागकर हां बोल दे या फिर ना बोल दे लेकिन विक्रांत ने ना ही तो ना कहा और ना ही हां कहा। वो तो किसी गहरी सोच में डूब गया था। जिससे ये साफ पता चल रहा था की बच्चे में सोचने की वो छमता अभी से विकसित हो चुकी है जो की आम लोगों में पच्चीस वर्ष की उम्र में जाकर शुरू होती है।
विक्रांत फिर बोला - " बाबूजी मैं आपको निराश नहीं करना चाहता लेकिन मेरी मां ने मुझसे ये वचन लिया था की एक दिन मैं अपने पैरों पर खड़ा होकर कुछ करके दिखाऊं। इसलिए बाबूजी मैं अपने दम पर कुछ करना चाहता हूं। मैं अपनी मेहनत की कमाई से ही सबकुछ करूंगा। इसलिए बाबूजी मुझे माफ कीजिएगा मैं आपके साथ नहीं चल सकता। मुझे मेरी मां के वचनों को पूरा करना है।"
बच्चे की बातें सुनकर सूरज बाबू के मुख से अकस्मात ही निकल पड़ा - " बच्चे का निर्णय कितना दृढ़ है।"
निलेश बाबू ने मुस्कुराते हुए विक्रांत के सर पर हाथ रखा और फिर बोला - " तुम्हारी मर्जी है बेटा। जैसा तुम्हें सही लगे लेकिन ये तो बताओ की तुम पढ़ लिखकर बनोगे क्या?"
ये सुनकर विक्रांत के चेहरे पर एक गहरी मुस्कुराहट आ गई।
विक्रांत हल्की सी हंसी में बोला - " बाबूजी अभी मैं पढ़ लिखकर एक शिक्षित इंसान बनना चाहता हूं और फिर आप देखिएगा बाबूजी एक दिन मैं बढ़ा वकील बनूंगा और ऐसे कानून बनाऊंगा की किसी किसान को फांसी पर न चढ़ना पड़े, किसी के घर के चूल्हे की आग न बुझे, किसी के घर में कोई पैसे के अभाव से ना मरे, कोई भी गरीब होने के कारण पढ़ने से न रह जाए। और भी मैं बहुत कुछ करूंगा।"
विक्रांत की बातें सुनकर निलेश बाबू खुद को रोक न सका और उसके मुंह से अचानक ही ये शब्द निकल गए की - " बेटा तुम तो आज के अंबेडकर हो। वही सयंम, वही हुनर, वही अंदाज और वही मेहनत करने की झलक। तुम तो सच में ही आज के अंबेडकर नज़र आ रहे हो।"
ये सुनकर विक्रांत के चेहरे पर एक गहरी मुस्कुराहट आ गई।
इतने में निलेश बाबू अपनी कलाई घड़ी में नज़र दौड़ाते हुए बोला - "लो बेटा अब मुझे कोई चाय बाय भी पिला दो। आखिर मैं भी तो देखूं की तुम कितनी के अच्छी चाय बनाते हो।"
विक्रांत भागकर सूरज बाबू के पास जाते हुए बोला - " क्यों नहीं बाबूजी मैं अभी चाय बनाता हूं।"
इतना कहकर विक्रांत ने टोपिया गैस पर चढ़ाकर उसमे चाय , चीनी डालने लगा और सूरज बाबू को ना ही तो कुछ करने का मौका दिया और ना ही कुछ बोलने का मौका दिया।
सूरज बाबू बस एकटक खड़ा होकर विक्रांत को ही देखे जा रहा था। इतनी तेजी से तो आज तक कभी सूरज बाबू ने भी चाय नहीं बनाई थी। विक्रांत को देखकर लग रहा था की जैसे वो बचपन से ही ये काम करता आया था और कितनी चाय डालनी है, कितनी पति डालनी है की हर एक एक कड़ी से वो परिचित था। विक्रांत ने चुटकियों में ही चाय बनाई और कप में डालकर भागकर निलेश बाबू की और बढ़ रहा था और सूरज बाबू बस खड़ा होकर चुपचाप विक्रांत की और देख रहा था मानो की आज काले आसमान में रोशनी देने के लिए एक नया सितारा चमक उठा हो जो कहीं न कहीं जिंदगी के बोझ के नीचे दबकर रह गया था।।
सतनाम वाहेगुरु।।