Prem Gali ati Sankari - 122 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 122

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प्रेम गली अति साँकरी - 122

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कुछ होश ही नहीं था मुझे, न जाने रेशमी झालरदार सुंदर पलंग पर सहमी-सिकुड़ी पड़ी मैं किन ऊबड़-खाबड़ रास्तों में कभी गिरती-पड़ती, अजीब सी मन:स्थिति में पड़ी रही होऊँगी? सुंदर कक्ष में एक अजीब प्रकार का अरोमा, हाँ, अजीब प्रकार की गंध तो थी जो कुछ स्पष्ट न थी लेकिन कुछ अलग थी| एक भिन्न वातावरण, उस पर एक प्रेम में निचुड़ी हुई अजीब स्त्री ! हाँ, स्त्री ही तो, लड़की तो रही नहीं थी जिसको न अपना कुछ पता था, न ही कुछ पाने, खोने का| भविष्य का क्या, वर्तमान की स्थिति से भी तो अवगत नहीं थी| सपने मुझे पहले से ही नहीं आते थे, रोमांस को महसूस करते उम्र के इस दौर की ड्योढ़ी पर सपने बुने जाने लगे थे जिसमें से मैंने कुछ को तो पहले ही कई कारणों से अँधेरे कूप में धकेल दिया था, अब वही मैं  इस प्रहर में यहाँ अपने घुटने पेट की ओर मोड़े पड़ी थी, अनभिज्ञ---किसी भी परिस्थिति से अनजान!

न जाने रात्रि का कौनसा प्रहर रहा होगा, महसूस हुआ किसी रबर के होंठों का स्पर्श हुआ मेरे होंठों पर!बिना किसी लगाव, उत्साह, सूखा सा!आँखें खुलीं, पाया रबर के उस आदमी को जिसने मेरे चेहरे की ओर आकर यह बेचारा सा अहसास अचानक ही करवाया था| कितना अजीब !बेहूदा !अचंभित कर देने वाला!

अनजाने में ही मेरी शारीरिक स्थिति बदल गई और मैंने ऊबकर करवट ले ली| आँखें फिर से बंद हो गई और बंद आँखों से मैंने महसूस किया कि प्रमेश मेरी बगल में आकर लेट गया, मुझसे बिना बात किए, बिना कुछ पूछे-कहे? भीतर जाने क्या चल रहा होगा, मेरे? न इच्छा थी जानने की, न ही कोई उत्सुकता ! आँखें बंद थीं मेरी--और मैं---न जाने कहाँ?

मालूम नहीं चला, कब तक पड़ी रही उस पलंग पर अकेली, किसी ने आकर नॉक किया था शायद| 

“आ जाइए, महाराज----”

अपनी आदतों के अनुसार एक अजीब सी अंगड़ाई लेकर ही मेरे मुँह से निकला होगा| 

“जी, हम—मंगला----”कल वाली महिला थी, वास्तव में केवल वही मुझे अपनी सी लगी थी| प्रमेश और उसकी दीदी तो न जाने किस बेकार के मंगलकार्य में अपना सिर धुन रहे होंगे| 

“आपके लिए कॉफ़ी बाऊदी---”उसने एक सुंदर ट्रे में कॉफ़ी-जग, कप व कुछ कुकीज़ सजा रखी थीं जिन्हें लेकर वह मेरी ओर बढ़ रही थी| 

“प्यारी लग रही हो, तुम्हारा नाम मंगला है?”मैंने उससे अपनापन दिखाने की पहल की थी| शायद उसे अपने कारीब लाना चाहती थी, शायद वह मेरे इस रहस्यमय ससुराल नामक जेल के बारे में मुझे कुछ बता सके| शायद—शायद—शायद !!

“जी, मंगला---“स्नान-ध्यान से निवृत्त, ऊपर तक लाल सुर्ख माँग भरे वह प्यारी लग रही थी, सचमुच आकर्षक !

“बाऊदी ! आपकी कॉफ़ी ठंडी हो जाएगी---”उसने आगे बढ़कर पलंग के पास रखी खूबसूरत काँच की टिपोई पर ट्रे रख दी| 

मैंने देखा था, कॉफ़ी एक ऐसे फ्लास्क में थी जिसमें से आसानी से ठंडी नहीं होती थी और देरी से रखने का आभास भी नहीं होता था| फ़्रेश ही रहती थी| भाई  न जाने कितने वर्षों से ऐसे कई फ्लास्क संस्थान के लिए लेकर आ गए थे जो हमारे यहाँ खूब पसंद किए गए थे| मेरे लिए एक विशेष था जिस पर उसने मेरी नृत्य-मुद्रा की पेंटिंग कारवाई हुई थी| मेरी आँख में एक मोती भर आया| 

“नहीं, मैं ज़रा ब्रश करके आती हूँ----”मैंने उठकर अपने पैरों में स्लीपर डालने की चेष्टा की| 

“हम देते आपको----”वह नीचे झुकने लगी, मैंने उसको बीच में ही रोक लिया| 

“क्यों बाऊदी?”उसके मुख से निकल गया| 

“मंगला ! इतना तो मैं भी कर सकती हूँ | तुमको काम होगा, तुम जाओ, मैं ले लूँगी| ”मैंने उस पर एक प्यारी सी नज़र डाली| 

“जी, बाऊदी, दीदी अभी आएंगी---हम उनके साथ आती हूँ| ”कहकर मंगला आगे बढ़ गई| मैं वॉशरूम की ओर चली ही थी कि जाने वह क्यों रुक गई---

“बाऊदी!”

“बोलो मंगला !”मैंने प्यार से पूछा तो बोली—

“आपका कॉफ़ी महाराज लेकर आते हैं ?”कितने भोलेपन से पूछ रही थी वह!

“हाँ, मंगला---हमारे संस्थान के बहुत पुराने महाराज हैं वो और हम सबका ध्यान वह और  उनका परिवार बहुत अच्छी तरह से रखता है| हमारे ही परिवार के हैं सब---सबके लिए सुबह से शुरू हो जाते हैं और जो जिसको चाहिए उसके पास अपने असिस्टेंट के साथ पहुंचाते हैं | फिर खाने की तैयारी, शाम की चाय और फिर डिनर –मेरे लिए सुबह-सुबह कॉफ़ी और मेरा न्यूज़-पेपर लेकर आ जाते हैं| ”

“ओह! माफ़ करिएगा बाऊदी, हमको दीदी बोल दिया था पेपर का वास्ते, भूल हो गई, क्षमा---अबी लेकर आती| ”कहकर वह जल्दी से भागने लगी लेकिन मैंने उसे रोक दिया| 

“कोई बात नहीं, मंगला, कल—”

“कोई भोजन रसम की बात करता था दीदी---”मंगला ने फिर से कहा| 

हाँ, मुझे याद आया, प्रमेश की दीदी अम्मा से कुछ तो ‘बूढ़ा भात’जैसा कह रही थीं| शादी से पहले लड़की अपने मायके में एक दिन पहले जो खाना खाती है, उसे शायद वहाँ का आखिरी खाना माना जाता है| अम्मा कोयह बात बिलकुल रुचिकर नहीं लगी थी| उन्होंने स्पष्ट अस्वीकार कर दिया था, 

“नहीं, यह रिवाज़ ठीक नहीं, बेटी के माता-पिता का घर उसका ही तो होता है| फिर यह ‘लास्ट सपर’ क्या हुआ?”अम्मा को उस शब्द से भी आपत्ति थी| 

“मेरी बहन कीर्ति की शादी भी बंगला-मूल में हुई है, उन्होंने तो सब रीति-रिवाज़ बदल डाले थे| अब सब मिक्स्चर रिवाज़ होते हैं| वैसे भी रीति-रिवाज़ सब मन के होते हैं | आप जानती हैं हमारी अमी रसोईघर के बारे में कितना जानती है| ”

दीदी नामक बंदी को चुप्पी साधनी पड़ी थी लेकिन शायद आज वे मुझसे अपनी रसोई में कुछ मीठा बनवाना चाहती थीं, शगुन के तौर पर ! इसमें कोई बात नहीं थी, क्या हुआ ? जो कहेंगी कोशिश कर लूँगी| घर का कोई बंदा या बंदी मुझे इस जेल से निकाले तो सही| 

“बाऊदी!दीदी को ----”उसने सहमकर कहा | 

“अरे ! चिंता नहीं करनी, इसमें क्या हुआ?”मैंने मंगला के पास जाकर उसके कंधों को प्यार से हिला  दिया| मंगला मुझे अपने सबसे अधिक करीब महसूस हो रही थी | बाकी तो सब ---

“आप बहूत ही अच्छा हो बाऊदी !”उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दिया था कि वह मन से कह रही थी| अब हम अपने काम के लिए आगे बढ़ चुके थे| 

‘उत्पल !’ एक बार मेरी साँसों ने उस अनुपस्थित की उपस्थिति को अपनी आहों में भर लिया और न जाने एक सूखी साँस के सहारे मैं फिर से उखड़ सी गई| वैसे मैं सारा समय ही तो एक सी थी, बस—कुछ हिचकोलों में खोई सी कभी-कभी डग भरती रहती थी |