Prem Gali ati Sankari - 120 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 120

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प्रेम गली अति साँकरी - 120

120—

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लीजिए, हो गया सब ताम-झाम, क्या हुआ? कुछ खबर ही नहीं, हाँ जिस समाज से भयभीत हो मैंने यह उत्कृष्ट कृत्य किया था क्या वह समाज इस पर मुझे ठप्पा लगाकर भेज सकता था कि मैं सही थी, मैंने बहुत बड़ी कुर्बानी करके समाज में कोई आदर्श स्थापित कर दिया था? क्या मेरे दिल की धड़कनों को एक सच्चे प्रेम के अहसास से सींच सकता था? क्या मैं जानती, समझती भी थी कि आखिर यह ‘सच्चा’था किस चिड़िया का नाम ? यह तो सूखे हुए वृक्ष की एक लटकी हुई डाली पर इधर से उधर ही डोलता रहा था | मैं स्वयं को भीतर से शिथिल पाती रही, मुझे अब बार-बार महसूस हो रहा था कि मैं ही नहीं, सब शिथिल ही थे केवल दो/एक अति विशिष्ट लोगों के !

भारतीय परंपरा के अनुसार मुझे विदा तो होना ही था उस समय!बाद में क्या होगा? कुछ मालूम नहीं था, किसी को भी नहीं| पवन से न जाने कैसे फुनगे उड़कर इधर-उधर घूमते रहे थे, लगता था वे मेरे भीतर विष-वमन कर रहे हों| जो अनुपस्थित था, वह भीतर हर पल में, हर साँस में, हर आहट में, हर चौखट में दस्तक देता ही रहा था| उसकी अनुपस्थिति में भी एक शिद्दत भरी उपस्थिति का होना मेरे हर पल की साँस था, हाँ, आस नहीं| वह तो मैंने स्वयं ही----

“बेटा!”अम्मा के सूखे हुए मुख से, टूटे हुए अक्षरों से केवल यही निकला और बिना किसी विदाई के प्रदर्शन के उन्होंने मुझ ‘कोहिनूर’को प्रमेश की दीदी के हाथों सौंप दिया| मैं पत्थर थी? वो भी कोहिनूर? पापा तो मुझसे मिलने भी नहीं आए| न जाने चुपचाप किस कोने में गायब हो गए थे| अमोल, एमिली, रतनी, शीला दीदी, डॉली, दिव्य के सहमे, सूखे चेहरे दिखाई दे रहे थे जो गुमसुम थे| उन अपनों के किसी भी चेहरे पर वह लुनाई दिखाई नहीं दी थी मुझे जो वास्तव में मेरी इस संपूर्णता का बखान कर पाती| 

ये बच्चे भी अब छोटे तो थे नहीं लेकिन मेरे भीतर की उथल-पुथल से कैसे परिचित हो सकते थे? वे बेचारे तो यही सोचकर संभवत:परेशान थे कि उन्होंने कभी संस्थान में दीदी की अनुपस्थिति को महसूस ही नहीं किया था| अब उन्हें शायद मेरे संस्थान में ही निवास की व मेरी दूसरी प्रतिदिन की कार्य-शैली को न देखने की कल्पना ही अजीब लग रही थी| हम सबकी अनुपस्थिति में भी वहाँ किसी न किसी रूप में उपस्थिति तो रहती ही थी| वैसे भी हम सभी न जाने कितने मुखौटे छिपाए जीवन की गलियों में भटकते रहते ही हैं फिर भी अपनी उपस्थिति का अहसास तो छोड़ते ही हैं| 

प्रमेश का घर ! जब, जिस दिन वहाँ अचानक जाना हुआ था जब यह सब संभवत:प्रारंभ व समाप्ति का बिन्दु-प्रदर्शन हुआ था, उस दिन कुछ अजीब सा लगते हुए भी कला का एक ऐसा खूबसूरत अहसास लेकर मैं आई थी जिसमें मुझे ऐसी कोई खामी नज़र नहीं आई थी जो मुझे ऊब देती| क्या यह उस शर्बत का कमाल रहा होगा? मुझे स्वयं के व अपने सभी लोगों के शिक्षित होने पर भ्रम हो रहा था | अब भीतर के परिवर्तन का हाल भला कौन जान सकता है? हम? बिलकुल भी नहीं, कोई नहीं| एक अनसुलझे जाल में फँसे हम सब उस जाल से निकलने की असफ़ल चेष्टा में या तो अधिक फँसते जाते हैं अथवा सिकुड़कर बैठ जाते हैं| 

उस संस्थान के दादी के समय के विशाल मुख्य द्वार तक मेरे व प्रमेश के पीछे सुस्त कदमों का एक काफ़िला था, जो मैं देख नहीं, महसूस कर पा रही थी| प्रमेश की दीदी जी मेरे हाथ को पकड़े ऐसे चल रही थीं मानो मैं कोई ढाई वर्ष की बच्ची थी और साड़ी व आभूषणों से दबकर लुढ़क सकती थी| 

“अमी का गाड़ी ? ”प्रमेश की दीदी ने मुख्य द्वार पर खड़ी कई गाड़ियों पर दृष्टि फेरते हुए आश्चर्य प्रगट किया| वहाँ कोई सजी-सजाई गाड़ी नहीं थी| क्षण भर में मेरा अपना शोफ़र मेरी अपनी गाड़ी लेकर नमूदार हुआ | उसने मेरी ओर का दरवाज़ा खोला और मैं दीदी के हाथ से बंधन-मुक्त होकर गाड़ी में समा गई | दूसरी ओर से प्रमेश के लिए भी दरवाज़ा खोल दिया गया था और वह भी गाड़ी के भीतर समा चुका था| अब दीदी के पास आगे की सीट पर बैठने के स्थान पर कोई और चारा नहीं था| यह फीकी सी बिदाई उनकी समझ से बिलकुल बाहर थी और मैं महसूस कर रही थी कि वे हतप्रभ थीं| उनकी कल्पना में एक बड़े मॉडल की ब्रैंड-न्यू सजी हुई कार ज़रूर रही होगी जिसके लिए बहुत पहले से ही मेरी ‘न’हो ही चुकी थी| मेरी दृष्टि में वह सब व्यर्थ था| 

ससुराल नामक इस कलात्मक जेल में मैं प्रवेश कर चुकी थी| प्रमेश के परिवार के कुछ दूर के लोग अथवा मित्र या कोई सगे-संबंधी रहे हों, घर के सेवकों के साथ मिलकर दीदी अपने बंगला रीति-रिवाज़ व परंपराओं के अनुसार ’नोबोबधू’के प्रवेश की तैयारियाँ करवा रही थीं| वे बंगले के गेट पर अपनी साड़ी व आभूषण संभालती उतर चुकी थीं| 

हम दोनों को पति-पत्नी के रूप में परिवर्तित बंगले के सजे हुए लॉन में, सजी हुई कुर्सियों बैठाया गया था| एक नज़र डालने पर मुझे महसूस हुआ कि वहाँ रात्रि-भोज की तैयारी की जा रही थी, संभवत;कुछ करीबी लोगों के लिए| वहाँ उपस्थित लोगों व काम में तत्पर सेवकनुमा लोगों की फुसफुसाहट से मैंने अनुमान लगाया था कि इस भोज में ‘संस्थान-परिवार’ को भी आमंत्रित किया गया था जिससे तैयारियों की गुणवत्ता का उच्च होना और भी अधिक आवश्यक बन जाता था| मुझसे कोई बात किसी ने नहीं की थी, यहाँ तक कि प्रमेश ने भी नहीं, मेरी बगल में एक प्रौढ़, गुममथून सितारिस्ट था| 

“कंफरटेबल? ”जैसे हल्की फुसफुसाहट को किसी टूटे दरवाज़े की फाँक से कोई आलसी अहसास सा मेरे कानों को छू गया| मन क्रोध व अपमान से और भी पीड़ित हो उठा। मैंने उस रेंगती हुई फुसफुसाहट का कोई उत्तर नहीं दिया| 

20/25 मिनट बाद दीदी जी काफ़िले के साथ वहाँ आईं जहाँ हम दो अजनबी बैठे ज़रूर ही मन मन जीवन की किसी बीमा-योजना के बारे में बारे में उलझे रहे होंगे| कई-कई बार ज़ोर से हँसने का मन बना लेकिन संभव नहीं था, न ही इजाज़त देती थी मेरे भीतर की तहज़ीब व अनुशासन !

यह एक रीति-रिवाज़ वाला बँगला परिवार अवश्य था किन्तु आज अन्य अनेकों परिवारों की भाँति भिन्न-भिन्न राज्यों के प्रतिबिम्बों से परिपूर्ण!स्वाभाविक भी था| आज के समय में एक प्रदेश से निकलकर आने वाले परिवारों में एक ‘मिक्स-कल्चर’का आभास व प्रतिध्वनि का उपस्थित न होना, एक आश्चर्य हो सकता था| हाँ, दीदी ने मुझे अपने रिवाजों के अनुसार बंगला-चूड़ा व, महंगी सुंदर श्वेत-लाल साड़ी का प्रबंध किया हुआ था जो मुझे पार्टी के समय में पहनाई गई, साथ ही बँगाल की गढ़ाई के भारी, सुंदर, आकर्षक आभूषणों से मेरा शृंगार करवाया गया था| 

खुद से कैसे झूठ बोलूँगी? एक बार को बँगला दुल्हन के रूप में सजी-हुई मैं विशाल-आईने में अपने प्रतिबिंब को देखकर क्षण भर के लिए अपने पर मुग्ध तो हुई थी|