Kavyanjali - 3 in Hindi Poems by Bhupendra Kuldeep books and stories PDF | काव्यांजलि, कविता संग्रह - 3

Featured Books
Categories
Share

काव्यांजलि, कविता संग्रह - 3

यह कृति मन से उपजी हुई भावनाएँ है जिसे काव्य के रूप में अर्थ दिया गया है। इस संग्रह में विभिन्न् विषयों वाले काव्यों का संकलन है। यह आवश्यक नहीं है कि मेरी सभी भावनाओं से आप सब सहमत हों परंतु प्रोत्साहन स्वरूप सकारात्मक रूप से इसका आनंद लेंगे तो मुझे ज्यादा खुशी होगी। बहुत सारी पंक्तियों में हिन्दी की बोलचाल वाली भाषा का उपयोग है अतः साहित्य प्रेमी उसका वैसा ही आनंद ले यही मेरा आग्रह है। आपकी शुभकामनाओं की अपेक्षा में अनवरत प्रार्थी।।

भूपेन्द्र कुलदीप

निकिता

जीवन रेखा कैसी चलती
टेढ़ी सीधी रूक रूक कर
उचक उचक मन हिरण तरसता
प्रेम की शाखा झुक झुक कर

छू ले मन गर पल भर उसको
स्वर्ग जमीं पर है आता
वसुंधरा पर हर जीवन में
वो एक पल निश्चित आता

तिनका तिनका सुख बिखरा कर
सबको वो पल है देता
प्रणय की शाखा छू भर पाने
आदम दुख को है सेता



मेरे भी इस बालक मन ने
मासूमियत की रानी देखी
जीवन के संघर्ष शिला पे
छपती अमिट कहानी देखी

दीपशिखा सी निर्मल काया
फूलों सी रवानी देखी
दर्दों पर वो मुस्कानों की
विजय पताका तानी देखी

फूल देखकर खिल उठते थे
भँवरा गुन गुन कहता था
बूँद छिटक मोती बन जाता
आखों से जो बहता था

कलियाँ भी शरमा जाती थी
आँखे जब वो ढकती थी
चाँद उतर कर बातें करता
रात को जो वो जगती थी



कमलों में संघर्ष था खिलने
उसके छूने पानी से
सोच ताल भी प्रगटा करता
कृतज्ञता उस दानी से

लचक लचक डाली, छूने को
हवा से आग्रह करती थी
उसके हाथों के स्पर्श से
फूल फिजा से झरती थी

बाग सुधा सा पावन होता
बेल ताजगी पाने से
पत्ते भी थे महका करते
उसके गुजरे जाने से

पर थी एक संपूर्ण निशा
काली रात का साया था
धुंधला काला धब्बा सा
कौन सा बादल छाया था


नाम दिया एहसान किया
न अपनाया फेरे लेकर
बस प्रेम किया उल्हास किया
और छोड़ दिया निकिता देकर

पिता शब्द तो आधा था
माँ ही सिर्फ सहेली थी
नन्हीं सी उस जान की खातिर
जीवन एक पहेली थी

आड़ी तिरछी रेखाओं की
आपस में ही होली थी
सच ही मानो जीवन रेखा
कंटक पथ की बोली थी

कैसी है ये परंपरायें
कैसा इसका नाता है
पिता का सर पर हाथ न हो तो
उँगली रोज उठाता है


उसके भी जब बालक मन ने
दुनिया देखी जग जाना
आँसू आ गये अमिट कहानी
लिखना है उसने ठाना

लब पे आँसू, माँ से पूछा
कैसी गंदी रोली है
मूक खड़ी, निस्तब्ध, मौन
शायद विधवा की बोली है

सीने से लिपटा के उसको
तू ही बस हमजोली है
मन को अरसे जला रही
ये सीता वाली होली है

उठा गगन को अपना चेहरा
कैसी तेरी दीक्षा है
मेरी तो अंतिम काया है
इसकी कितनी परीक्षा है



कितनी बाती दीप जलाए
गहरी निशा के दोने में
इंतजार में सूर्योदय के
पल न बिताया सोने में

जनम लिया है निकिता तू भी
इसी गर्भ की दानी से
छीन लेना सुख के तिनके
दर्दों की कहानी से

कितनी साहस नजरें उठती
गलत निगाहों वाली है
पग में लेती विकसित होना
ऊपर वाला माली है

समय चक्र से आगे बढ़ना
रूप को ले विकराल नये
सुर दानव भी थर्राएँ
किसके हैं ये काल नये



रूक रूक कर वो नैन में थम गये
लब तक जो थी आती जाती
कितने मोती व्यर्थ गए
पर बुझी नहीं वो कल की बाती

वो आज जलेगी फिर कल तक
फिर कल से परसों फिर कब तक
तू बाहर जाकर सींच कली
वो खुश है उसपे ही जब तक

आँसू छोड़ के आँचल में
भर कर अंजल पानी लाई
देख कली मुस्कान खिली
जब बाहर वो रानी आई

सूना सा आंगन दिखता है
कली कैसी ये सौगात नई
तूने भी आँसू देख लिए
या है फिर कोई बात नई



कली ने फिर आंखे फैलाई
दर्द में डूबा देखा है
अंजल पर आँखे दौड़ी
शायद यही जीवन रेखा है

तुमको मैंने हँस हँस कर
मन ही मन रोते देखा है
ख्वाब निशा के द्वंद युद्ध में
सपनों को सोते देखा है

आशाओं की नवल चाँदनी
इच्छाओं के अविरल झरने
काल भंवर में डूब डूब कर
इन सबको खोते देखा है

गरूड़ राज सा पंख पसारे
पल भर में आसमाँ लांघने
आशा के नित किरण चूमने
सूर्यमुखी होते देखा है



ब्रहमकमल के अंक में जाकर
सपनों के संग रास रचा ले
गर्म रेत पर मैंने कुछ को
सपनों को बोते देखा है

ऐ कली तू क्यूँ रोती है
क्यों सुख को अपने धोती है
वो अंधियारों में फूटेगा
जो नए सुबह की ज्योति है

ढाँढस देकर तू साथ मेरे
क्यों दुःखों को पिरौती है
खुद हँस और मुझको खूब हँसा
जो दुखों में भी मोती है

तू बोले जो मैं गहराऊँ
फिर दुःख की प्याली भर लाऊँ
तू खिल जमकर नित किरणों से
मैं अंदर जा कुछ कर जाऊँ


वो शाम चली फिर रात आई
फिर दीप जले तारे आये
जो आसमान ले आँखों में
वो दुःख के बादल फिर छाए

जो अरमानों से निकल गया
उस प्रणय काल का मास हूँ मैं
जो मोती बनकर धन्य किया
उस एक बूँद का दास हूँ मैं

जो मेहबूबों के कदम बिछे
वो आलम तोहफा खास हूँ मैं
जो समय चक्र से अलग खड़ा
वो अंतहीन आकाश हूँ मैं

वे प्रणय काल कब आता है
जो मेहबूबों को लाता है
बिखरा दूंगी तारे पथ पर
गर मेरे प्रेम को भाता है


लटकी लटकी डाली डाली
जो हवा से कब झुक जाती है
वो प्रेम ही है जीवन पथ पर
कब कहाँ कही रूक जाती है

ख्वाबों में आई तेज किरण
चुप हो गई जो वो रोती थी
ये स्वयं पिता परमात्मा है
या उसकी ही ये ज्योति है

पल भर में कर आँखे डब डब
हे ईश्वर तू परमात्मा है
तू ज्ञानी है तू सब जाने
तू ही तो मेरी आत्मा है

तू थोड़ी सी झोली भर दे
मेरी माँ की आँखे सूनी है
सुख के मोती बस एक जुड़े
यहाँ दुःखो की तो दूनी है



उसके सावन में धूप जली
पत्ते पौधों से झरते है
कलकल आवाजें बहरी हैं
झरने झर झर नहीं करते हैं

उसकी आँचल है लाल अभी
शायद ये दुःखों वाली है
ये सीता वाली अग्नि है
या आँख से टपकी लाली है

मैंने मांगे निष्पाप नयन
शायद में भागों वाली हूँ
मल्हार नहीं थी मुझ पर भी
या दीपक रागों वाली हूँ

हो सकता है तू दे दाता
तू ममता का एक और नाता
पर माँ को जन्मों सुख देना
जो यहाँ दिया आता जाता


मोती मांगी न सोना ही
इक रिश्ता ही तो मांगा है
एक जोड़ जरा कुछ बढ़ने दे
ये जीवन छोटा धागा है

पूरी दुनिया में एक तो हो
अहसास भरा कुछ उस दिल में
जो साथ चले बस पल भर को
इस तूफानों की साहिल में

कितने ठोकर खाए मैंने
कितनी ही बार पुकारा था
कितने ही मोती नैनों से
हे ईश्वर तुझ पर वारा था

तू ही है तो फिर सुन दाता
ये जोत उठा ले नैनों से
इस घर में डाल दे एक किरण
या हमें उठा ले पैनों से



मैं इस हद तक गिर आई हूँ
न ऊपर देखूं अपनों को
तू एक तो दे बस देख जरा
मैं बोती हूँ फिर सपनों को

वो लम्हा लम्हा पल बीता
वो आ पहुँची उन्नीसवें तक
लिखू कितने और क्या झेले
अपमान, कलम से, बीसवें तक

चंदा की किरणें जलती थी
उपहास नुकीले बाणों सा
क्या मैं भी दाह में कूद जलूँ
जलती थी जैसे राणों का

ये लोग यहाँ जो बसते हैं
वो मानवता को डसते हैं
सभ्य जताकर देखें यूँ
ईमान भी कितने सस्ते हैं



न बाट बटोह में बात बनी
निष्कंट रहा न पथ उसका
कुछ मिले भी गर टूटे बिखरे
वो और बिगाड़े रथ उसका

इस दिन कंपन सी आग जली
तन मन भी जरा लहराया था
दो हाथ बढ़े और रोक लिए
ये किस अंजान का साया था

ये आमंत्रण है उस पल का
जो सपने में थी बात कही
ये निर्दयता की चोली है
या फली प्रार्थना रात कही

दो हाथ लिया था हाथों में
ये बंधन लगभग साफ ही था
वो अंजाना रिश्ता बाँधा
ये पता नहीं इंसाफ ही था



पल भर को ठहर ऐ समय जरा
मुझे गहरी साँसे लेने दे
उसके दामन है फूल भरे
मुझे थोड़ा सा कुछ देने दे

वहाँ दूर क्षितिज में दुःख रोए
ये तेरी कैसी माला है
मूझे रहना था गठबंधन तक
उसने चुन फेंक निकाला है

वो चहक उठी आकाश से
मदमस्त प्यार के गहने में
मैं आऊंगी पंक्षी बनकर
उस प्रणय काल के महीने में

झाँकी कलियाँ भी पत्तों से
हर्षित होकर उठी बहार
आंगन की सूखी टहनी पे
फूल खिल उठे है इस बार


ये अरमानों का मेला है
या हरा भरा होता संसार
आएँ है बादल देखो तो
करके सातो रंग श्रंगार

कूक उठी कोयल मतवाली
ताल बन गया है अब माली
अंबर ने भी खाली कर दी
तारों वाली अपनी प्याली

झूम निशा भी खंडित होकर
नाच रही है रात को रोके
घूम रही है वसुंधरा भी
प्रेम अगन में खुद को झोके

शीतलता को रोशन करने
चाँद उतर कर जमीं पे आया
मुड़कर देखा दूर क्षितिज पर
दुःखों को रोता सा पाया



अपनी बदली चाल देखकर
निकिता भी थी खुद शरमाई
निंदिया रानी सुख को लेकर
बिस्तर तक तो खुद ही आई

अंजाना सा सुख को लेकर
वीरानों में फूल खिले थे
सपनों को उजली गलियों में
दुःख अब सारे धूल मिले थे

लहराकर आँचल को ढीले
झूले अब वो डाली डाली
फूलों वाली बिन काँटो की
थाली भर गई आँचल वाली

सुखी देखकर बेटी पलभर
आँसू देकर प्यार किया
दुःखों के आते गश्ते पर
हल्का सा एक वार किया



पल पल बीते और समय संग
प्यार उनका परवान चढ़ा
छोटी छोटी बातों पर अब
एक दूजे का ध्यान बढ़ा

दोनो में फासले कम थे
फूल पलाश सा लाल हुआ
जो प्यार भरी इक बात हुई
लाली भरने सा गाल हुआ

वो दूर ही था पर पास नहीं
बस समय समय पे मिलते थे
ये कभी कभार ही होता था
जो फूल प्यार के खिलते थे

वो अन्जानी तन्हाई में थी
दिल दिल में ही चुभता था
ये चुभन कहीं खो जाती थी
मुसकान लिए जो मिलता था



समय संग संग चलता था
एक हल्की सी मुस्कान लिए
ये कड़वी थी या मीठी थी
वो समय की रेखा जान लिए

जब जब ये दूरी बढ़ती थी
वो चिंता में खो जाती थी
तकती थी वो बस सुबह शाम
और आँख भरे सो जाती थी

वो पल भी कितना पावन है
जो प्रेम के लिए बरसता है
जो धीरे धीरे सुर्ख होता
उस मेंहदी सा ये रचता है

ये रंगत चार दिनों की थी
या अमिट चाँदनी वाली थी
ये दुखों वाला उसे ही था
या दीपक वाली दिवाली थी


वो फिर से मिले फिर कब न मिले
मुझे ठीक से याद नहीं
उस दिन तो साथ ही देखा था
फिर देखा उसके बाद नहीं

उसने देखे थे रंग नए
उल्लास नये सपने लेकर
वो छोड़ गया था कब तक को
बस यादों को अपने देकर

वो तन्हाई का आलम था
या आंगन फिर से बिखरा था
ये कौन से फाग का सूचक था
और कौन से धुन से बहरा था

इक दिन गुजरा मैं उधर कहीं
वो मौसम कैसा जलता था
कुछ लेकर पानी आँखों में
उसका दिल यूँ मचलता था



आज की बरखा में कैसी
आग सी लगी है
कौन जाने किसका गम ले
आँसू बहा रहा हो

आह ले मिलने धरा से
बस कसक सी रह गई
शायद तड़पता आसमां
शबनम गिरा हो

आज कोयल की धुनों में
वो तड़फ संगीत है
जैंसे सूखी बाती पे लौ
दूर मन का मीत है

मन पिया के प्यास में
मृग सी है प्यासी निगाहें
हरा भरा है चमन बहार
पर जीवन नीरस गीत है



रूठ कर तेरे जाने से
फूल भी मुरझा गये हैं
प्यार की शीतल हवाएँ
धुँध बनकर छा गए हैं

आईना जो टूटा हुआ
जिंदगी ने रख दी आकर
टूटती आशाओं की
हकीकत दिखला गए हैं।

डालियाँ जो तुमने सहलाई
छुई स्पर्श की थी
ताजगी उन शाखों की
अब तलक जाता नहीं है

आज बुझ गई शमाँ
परवाना मंडराता नहीं है
कि आ भी जाओ तुम प्रिये
चैन अब आता नहीं है



सुनकर मेरा तन काँपा
पीड़ा गिरकर आँखों में आए
अंदर तक बिजली सी कौंधी
सारे अंग भी थर्राए

ये कैसी बिरह वेदना है
जो शब्द गिरे तो लहु दिखे
ये वही कलम की स्याही है
संघर्ष शिला पे लेख लिखे

जिनमें जीवन मैंने देखा है
जो चला करे इतिहास बने
वो खून के आँसू रोता है
जो कल तक के थे साथ बने

उसकी आँखें में मैंने भी
पल भर को अंदर तक झांका
वहाँ दुर्घटना का घाव लगा
था वहा पड़ा आधा टाँका


ये कैसे है निष्पाप नयन
जो झुक झुक कर अब चलते हैं
ये धोखा है उस साये का
जो इसके नयन मचलते हैं

हो सकता है मजबूर वो हो
या सीधी रेखा पाने को
जीवन रेखा उलझी उलझी
से जूझ जूझ कर जाने को

ऐ आसमान तू नीर बहा
उल्फत के बदलते रिश्तों में
तेरी लीला कैसी भगवन
सुख दे भी तो कुछ किश्तों में

इस वफा की क्या परिभाषा है
जन्मों तक या जीवन भर तक
बस साथ चले और छोड़ दिए
या फिर संग पैदल बस घर तक



फिर माँ की आँखे भर आई
हे प्रभु ये कैसी माया है
ये समय ही है या काल के पल
जो सुख के पंख चबाया है

मेरे हाथो की स्याही में
सावन का जब तक डेरा है
विशाल गगन के कोने में
गर थोड़ा सा हक मेरा है।

मैं चीख चीख चिल्लाऊँगा
तुझे देने है सौगात नए
मैं लिखूंगा इतिहास नए
अधिकार नए और बात नए

मैं कवि हूँ तुझसे प्रार्थना है
तू सुख के मेरे पल लेना
जो समय चक्र में आना हो
वो पल भी उसको ही देना



आया हूँ तेरे दर भगवन
गर मुझ पर तेरा ध्यान न हो
तू भर दे उसकी झोली को
विश्वास तेरा बदनाम न हो।।
=====00000=====