मनपाल के मन मे अंगद के प्रति दया नहीं थी, बल्कि उसकी मूर्खता पर वह क्रोधित थे। उन्होंने अपना ध्यान अंगद पर से हटाकर युद्ध पर केंद्रित किया, और रणनीति के अनुसार शत्रु का सामना करने लगे। दोनों ओर से सिपाही अपनी पूरी ताकत से भिड़ रहे थे। मनपाल शत्रु की रणनीति समझने की कोशिश कर रहे थे, उन्होंने देखा कि वज्रपाल अपनी सेना के अग्रभाग को फैला रहा है, उसकी मंशा साफ ज़ाहिर थी कि वह मनपाल सिंह की सेना को चारों ओर से घेरना चाहता था। तभी मनपाल को हवा में एक शीश उडता हुआ दिखाई दिया, ध्यान उस ओर किया तो मनपाल सिंह, जिन्होंने सारी उम्र युद्ध करते बिताई थी सिहर उठे। उनके मन में रोमांच और भय का ज्वार भाटा सा आ गया। जो कभी किसी खूंखार योद्धा से लड़ने में संकुचित भी नहीं हुए थे, वह आज सिर्फ एक योद्धा को लड़ते देख भयभीत थे। अंगद किसी खूंखार जंगली शेर की भांति सैनिकों पर टूटता था। दोनों हाथों में तलवार थी, ढाल तो जैसे उसके बनी ही नही थी, और उसके वार में बिजली की फुर्ती,प्रहार र में बाल इतना, कि जिस अंग पर वह वार करता, वो अंग दुश्मन के शरीर से अलग होकर दूर गिरता। जिस ओर वह बढ़ता, उस तरफ शव ही शव बिखरे दिखाई देते थे। हाथ, पांव, शीश, उंगलियां, ऐसे बिखरती थी जैसे बरसों से वह इस कार्य में अभ्यास हो। देखते ही देखते अंगद अकेले ही वज्रपाल की सेना के अग्र-भाग को बीच में से भेद कर अंदर घुस गया और शत्रु पर प्रलय बनकर टूट पड़ा। अंगद का वह रूप देखकर इस संसार का कोई भी योद्धा काँप सकता था। सर से पाांव तक रक्त से नहाया हुआ, और इस रक्त में एक भी बूंद उसके शरीर से निकली हुई नहीं थी। यह सारा लहु शत्रु का था, जिसमें वह नहा रहा था। उसकी दहाड़ से योद्धा काँप रहे थे। एक क्षण को भी उसके पांव रुकते ही नहीं थे, शत्रुओं को मारता ही जा रहा था। शत्रु की सेना के केंद्र बल को अंगद ने वीभत्स रूप से तहस-नहस कर दिया। अब वज्ररपा की सेना दो हििस्सो में बट चुकी थी, कुछ सिपाही वापस भाग रहे थे, कुछ योद्धा पीछे हट गए थे, और मनपाल सिंह ने वज्रपाल की सेना पर लगभग विजय प्राप्त कर ली थी। अब बस देरी थी वज्र पाल के बंदी बनाए जाने की या आत्मसमर्पण करने की, परंतु उसका दुर्भाग्य कि वह अंगद से जा टकराया। वज्रपाल के शरीर के कई टुकड़े अंगद ने कुछ ही क्षणों में कर डाले। यह भयानक दृश्य देख सेेेना छिन्न - भिन्न हो गई। बचे कुछ सिपाही भी भागने लगे और देखते ही देखते शेरगढ़ की सेना ने वज्रपाल की सेना को सीमा से खदेेड दिया। शेरगढ़ विजई हुआ, विजय पताका फहराई गई। सैनिकों ने अंगद को कंधों पर उठाकर खूब हर्षोल्लास मनाया।
केवल मनपाल सिंह ही थे जो इस विजय का उल्लास नहीं मना रहे थे। उनका ध्यान बस अंगद पर था। कुछ बात थी, जो उनके दिमाग में खटक रही थी। कुछ था, जो वह समझ नहीं पा रहे थे। वह जानना चाहते थे कि आखिर कुछ देर पहले उन्होंने जो दृश्य देखा वह कैसे घटा? उसके पीछे क्या कारण है ? कैसे कोई योद्धा इतना कुशल, इतना तीव्र, इतना बलशाली और इतना वीभत्स हो सकता है? वह सोच रहे थे की जिस अंगद को कभी क्रूरता का पाठ नहीं पढ़ाया गया, वह इस ढंग से कैसे लोगों को मार काट सकता है ... ? इस विचार से बाहर निकल मनपाल सिंह ने घायलों के लिए शिविर बनाने का आदेश दिया और कुछ सैनिकों को वहां देखभाल करने के लिए रोक दिया। बाकी सेना वापस नगर लौट गई।
राजा को इस आक्रमण और विजय का समाचार लिखा गया।
युद्ध समाप्त होने की कुछ ही देर बाद मैनपाल की आंखों से अंगद ओझल हो गया था। उन्हें फिर वह दिखाई ना दिया। वह रात भर सोचते रहे कि अंगद इस तरह कैसे लड़ा...और यह सोचते सोचते ही सो गए।