Andhayug aur Naari - 52 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | अन्धायुग और नारी - भाग(५२)

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अन्धायुग और नारी - भाग(५२)

और ऐसा कहकर वो कोठरी के भीतर मेरे लिए कपड़े लेने चली गई,फिर वो एक जोड़ी कुर्ता पायजामा और साफ तौलिया लेकर वापस आई और उन कपड़ो को वो मेरे हाथों में कपड़े थमाते हुए बोली....
"ये पहन लो,मेरे ख्याल से ये तुम्हें बिलकुल सही आऐगें",
"वैसे ये कपड़े हैं किसके",मैंने पूछा....
"तुम्हें इस बात से क्या लेना देना है कि ये कपड़े किसके है,बस तुम इन्हें नहाकर पहन लेना",वो बोली....
"जी! ठीक है,जैसा तुम कहो",
और ऐसा कहकर मैं वो कपड़े और दातून लेकर आँगन की ओर स्नान करने के लिए जाने लगा तो वो मुझसे बोली....
"मैं तुमसे एक बात पूछना तो भूल ही गई",
"हाँ! बोलो,क्या पूछना है",मैंने कहा....
"अरे! तुम्हारा नाम क्या है,सुबह दादी ने मुझसे तुम्हारा नाम पूछा तो मुझे तुम्हारा नाम ही नहीं पता था तो दादी ने इस बात पर मुझे बहुत डाँटा",वो बोली....
"मेरा नाम....हाँ! वो तो मैंने तुम्हें बताया ही नहीं,मेरा नाम सत्यव्रत सिंह है"
"अच्छा नाम है और दादी ये भी पूछ रही थी कि तुम शादीशुदा हो या नहीं",विम्मो ने पूछा....
"नहीं ...अभी शादी नहीं हुई मेरी",मैंने कहा....
"और तुम्हारे घरवाले, वो सब कहाँ हैं"?,उसने पूछा....
"सब स्वर्ग सिधार चुके हैं,दो बहने थी तो वो दोनों भी परिवार सहित दंगो की भेंट चढ़ गईं",मैंने कहा...
"ओह...दुख हुआ ये सब जानकर",वो बोली....
"किसको किसको रोऐगीं विम्मो जी! आजकल दुनिया में सभी दुखी है,सबके अपने अपने दुखड़े हैं और सबके अपने अपने ग़म हैं",मैंने कहा...
"शायद तुम ठीक कहते हो",
और ऐसा कहकर उसने एक गहरी साँस ली और वहाँ से चली गई,फिर मैं नहाने चला गया,थोड़ी देर बाद मैं गुसलखाने से नहाकर लौटा तो वो मुझे देखकर बोली....
"मैं ना कहती थी कि ये कुरता पायजामा तुम्हें एकदम सही आऐगा",
"हाँ! तुम्हारा अन्दाजा बिलकुल सही था",मैंने कहा....
"हाँ! तुम्हारी कद काठी भी बिलकुल उनके जैसी ही है",वो बोली....
"वैसे ये कुर्ता पायजामा है किसका",मैंने पूछा....
तो वो मेरे सवाल को दरकिनार करके आगें बढ़ गई और जाते हुए बोली....
"मैं दादी को नाश्ता देने जा रही हूँ,वो घर के बगल वाले खेत में गाय को चराने गई हैं,कहतीं थीं कि घर में घुसे घुसे जी ऊब गया है सो वहाँ चलीं गईं"
और ऐसा कहकर उसने एक पोटली उठाई और चली गई ,फिर थोड़ी देर बाद लौटकर मुझसे बोली....
"चलो! मैं तुम्हें नाश्ता दे देती हूँ,आलू के पराठे खाते हो ना!",
"हाँ! मैं माँसाहार छोड़कर सब खा लेता हूँ",मैंने कहा...
तब वो बोली...
"अब मैं करूँ भी तो क्या करुँ,दंगों के कारण हाट नहीं लग रही है,हमारे घर के बगल वाले खेत में आलू ही हैं,कुछ हरीमिर्च और साग सब्जी भी लगी है तो उसी से काम चल रहा है,अनाज तो खूब था घर में तो उसी को चकरी से पीसकर आटा बना लेती हूँ,कुछ दालें बचीं हैं तो बुरे वक्त के लिए बचाकर रखीं हैं कि ना जाने आगे कौन सा बुरा वक्त आ जाएँ कि घर से ही निकलना ही मुहाल हो जाए,इसलिए सब सोच समझकर काम हो रहा है,जो है सो खा लो"
"हाँ! तो इसमें गलत क्या है,खाना मिल रहा है क्या यही बहुत बड़ी बात नहीं है,जो कुछ भी है ले आओ मैं सब खा लेता हूँ"
फिर उसने मेरे सामने नाश्ता परोस दिया और मैं खाने लगा और जैसे ही मेरा नाश्ता खतम हुआ तो बाहर से दादी हाँफते हुए जल्दी जल्दी लाठी टेकते हुए घर के भीतर घुसी और उन्होंने फटाफट दरवाजे बंद कर लिए और हम दोनों से बोली...
"अब शोर मत करना दंगाई गाँव में घुस आएँ हैं",
और फिर हम तीनों चुपचाप बिना शोर किए दोपहर तक घर में घुसे रहे,दोपहर के बाद एक शख्स ने दरवाजों के बाहर से कहा....
"सुखदा काकी! घबराने की बात नहीं है,दंगाई लूटपाट करके गाँव से भाग चुके हैं,वो तो अच्छा है कि मेरा और तुम्हारा घर गाँव से बाहर है इसलिए उन लोगों को यहाँ की भनक नहीं लग पाती"
"कौन है...रहमान है क्या?"दादी ने बाहर खड़े शख्स से पूछा....
"हाँ! काकी! मैं ही हूँ रहमान,वो सलीमा बोली कि जाओ सुखदा काकी की खैर खबर पूछ आओ,कहीं घबरा ना रहीं हों,इसलिए चला आया,सब ठीक है ना"!,रहमान ने पूछा....
"हाँ! बेटा रहमान! सब ठीक है,एक तेरा ही तो सहारा है",दादी बोली....
"ना! सुखदा काकी! ऐसा कहकर शर्मिन्दा ना करें,सालों से आपका और मेरा परिवार यहाँ मिलजुलकर रह रहा है और खुदा की कसम हमेशा ऐसे ही रहता रहेगा,मेरे रहते आप पर कोई मुसीबत नहीं आ सकती" रहमान बोला...
"बेटा! भीतर आजा",दादी बोली...
"नहीं! काकी! अब चलूँगा,घर पर सलीमा और हिना मेरी राह देख रहीं होगीं",रहमान बोला...
"चले जाना बेटा! दो घड़ी ठहरकर पानी तो पीता जा",दादी बोली....
"ठीक है,आप दरवाजा खोलें,मैं भीतर आता हूँ",रहमान बोला....
फिर विम्मो ने घर का दरवाजा खोला और ज्यों ही रहमान घर के भीतर घुसा तो मुझे देखकर बोला...
"काकी! ये कौन है,आपका कोई रिश्तेदार है क्या?"
"नहीं! कोई भटका हुआ मुसाफिर था,रात को हमने इसे आपने घर में पनाह दे दी",दादी बोली....
"ऐसे कैंसे आपने किसी अन्जान को घर में पनाह दे दी,ये दंगाई होता तो फिर आप दोनों क्या करतीं"?, रहमान बोला...
"दंगाई नहीं निकला ना! खतरा टल जाएगा तो लौट जाएगा अपने घर को",दादी बोली...
"आगें से ख्याल रहे कि जरा सोच समझकर ही अन्जानो के लिए दरवाजा खोला करें,आप दोनों को कुछ हो जाता तो",रहमान बोला....
"हम दोनों को कुछ नहीं हुआ ना तो फिर इतना परेशान क्यों होता है,आगें से इस बात का ख्याल रखेंगें" दादी बोली....
फिर रहमान ने घर में दो घड़ी रुककर एक गिलास पानी पिया और चला गया क्योंकि घर पर उसकी बीवी और बहू अकेले थे,बेटा अपनी बड़ी बहन के घर गया था और दंगो के बाद वहीं रह गया था,उसने किसी से खबर भिजवाई थी कि वो वहाँ सही सलामत है,दंगा रुकते ही घर लौट आएगा,रहमान के जाने के बाद दादी मुझसे बोली....
"तो तू भी हम दोनों की तरह अकेला ही है ना,विम्मो बता रही थी,जब वो खेत पर मुझे नाश्ता देने आई थी",
"हाँ! दादी! बहुत जमीन जायदाद है,एक बड़ी सी हवेली है लेकिन उस हवेली में रहने वाला कोई नहीं है",मैंने कहा...
"कोई बात नहीं बेटा! यहाँ सबको सबकुछ नहीं मिलता",दादी बोली....
और फिर मैं उनके काफी दिन रहा,जब तक कि खतरा ना टल गया,खतरा टलते ही एक दिन मैंने उनके घर से वापस अपने घर जाने का मन बना लिया,कब तक किसी के घर में रहकर मुफ्त का खाता रहता, लेकिन वहाँ से मेरा भी जाने का नहीं था क्योंकि मुझे विम्मो भा गई थी उसकी सादगी और भोलेपन ने मेरा दिल जीत लिया था,मैं काफी वक्त से सोच रहा था कि उससे कह दूँ कि तुम मुझे पसंद हो,क्या तुम मुझसे शादी करोगी,लेकिन ये सब उससे कहने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी और फिर एक दिन उदास मन से मैंने उससे कहा....
"विम्मो! अब माहौल ठीक हो गया है,मैं कल ही अपने गाँव लौट जाऊँगा"
"इतनी जल्दी,दो चार दिन और रुक जाते",वो बोली....
"बहुत दिन हो गए यहाँ रहते हुए,अब मुझे निकलना चाहिए,सोचता हूँ एक बार और अपनी बहनों के बारें पता करके आऊँ,शायद वो मनहूस खबर झूठी निकल जाएँ",मैंने उससे कहा...
"ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी",
और ऐसा कहकर वो उदास मन से वहाँ से चली गई,

क्रमशः...
सरोज वर्मा...