today and tomorrow in Hindi Fiction Stories by रेखा श्रीवास्तव books and stories PDF | आज और कल

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आज और कल

आज और कल

फ़ोन की घंटी बजी, दिनेश ने ही उठाया तो उसके छोटे भाई सर्वेश का फ़ोन था और उसने बगैर किसी दुआ सलाम के सीधे से कह गया - "भैया निधि की शादी तय हो गयी है और अगले सोमवार को शादी के कार्यक्रम शुरू होने जा रहे हैं तो आप लोग आते रहिएगा। शादी के लिए हैरिटेज होटल लिया है, जो दो दिन पहले से मिलेगा वहीं से सारे काम होंगे। जरा भाभी को फ़ोन दीजियेगा प्रीति बात करेगी।"

"लो देवरानी से बात कर लो।" कहते हुए दिनेश ने फोन उसको पकड़ा दिया।

"नमस्ते भाभी , देखिये अचानक बड़ी जल्दी में निधि की शादी पक्की हो गयी है और वह लोग जल्दी मचा रहे हैं, इसलिए अगले शुक्रवार को शादी है। सोमवार से मटियारी के काम शुरू हो जायेंगे तो आप उस दिन शाम तक आ जाना।"

"ठीक है , कार्ड वगैरह छप गए, अगर भेजने हो तो भाई साहब को दे देना। अकेले होकर टेंशन मत लेना। सब हो जाएगा।"

"नहीं भाभी ज्यादा लोगों को तो बुलाना नहीं है , सो ऐन वक्त पर ही खबर करेंगे या फिर वाट्सएप से भेज देंगे। " कहकर फ़ोन रख दिया।

"क्या कहा ?" दिनेश ने उसके फ़ोन रखने के बाद पूछ ही लिया।

"कुछ नहीं , वही कि शुक्रवार की शादी है और ज्यादा लोगों को तो बुलाना नहीं है , सो कार्ड ऐन टाइम पर ही भेजेंगे और दूर वालों को वाट्सअप से भेज देंगे। होटल से कर रहे हैं तो ज्यादा भीड़ तो बुला भी नहीं सकते हैं। लिमिटेड कमरे बुक किए हैं।"

"अम्मा के लिए कुछ बात की कि क्या करना है ? लाना है या नहीं।" दिनेश ने पूछा।

"सर्वेश जब से घर छोड़ कर गये है , अम्मा तो उसको बराबर याद करती रहती हैं लेकिन उसको समय ही नहीं मिलता है। बेटियाँ भी बाहर से आती हैं तो दादी से मिलने की किसी को कोई पड़ी ही नहीं होती है।" दीपा के मन की भड़ास निकालने लगी।

"ये सब छोडो मुझे ये बताओ कि अम्मा का क्या करना है ?"

"वह कह रही थी कि अम्मा को लाना तो एक मुसीबत है। रात भर के लिए एक नर्स की व्यवस्था कर दीजियेगा। रात में रस्मों के बाद भाई साहब चले जाएँ और सुबह विदाई के समय आ जाएँ। विदा के बाद तो आप भी जा सकती हैं। तब तक नर्स को रोक कर रखियेगा। "

"सही तो कह रही है , ये वही अम्मा हैं जो छोटी कहते कहते थकती नहीं थी। सबसे ज्यादा लाड़ तो उसी पर लुटाती रही और फिर उसकी बेटियों पर। छोटे तो उनका पहले से ही दुलारा था और शादी के बाद तो छोटी भी शामिल हो गयी। हम तो सिर्फ उनके और उस परिवार के साथ अम्मा के आदेशों का पालन करते रहें।" दिनेश को अपने पुराने दिन याद आने लगे। जब दिल पर ठेस लगती है तो अंदर की ज्वाला और अधिक भभकने लगती है। पहले तो उसने कोई फर्क ही नहीं समझा। उसके बच्चे तो हैं इस घर की रौनक है कौन सा बँटा हुआ है। तब ये सब बच्चे भी "बड़े पापा , बड़े पापा" की रट लगाए रहते थे। शाम को काम से आकर वह उन्हीं के साथ खेलता रहा और अपने को कभी निःसंतान समझा ही नहीं। मानों तो सब अपने और न मानों तो कोई नहीं। मानने का कोई अवसर ही नहीं मिला छोटे तो हमेशा बाहर ही रहा उसकी फौज की नौकरी, कभी कभी छुट्टी लेकर आता और पत्नी-बच्चों को लेकर ससुराल और ससुराली रिश्तेदारों के यहाँ घूमने चला जाता। सारे समय प्रीति और बच्चे तो यहीं रहे , यही कारण था कि अम्मा का प्रीति पर ज्यादा ही लाड़ रहा। हमने कभी उसको इतर लिया भी नहीं , ऐसा होना स्वाभाविक भी है , उसका पति बाहर रहता है तो उसकी हर छोटी और बड़ी जरूरत को हम लोगों ने ही पूरा किया था। इसमें कोई शक नहीं था कि प्रीति बहुत तेज थी, लेकिन शिकायत किससे की जाय। सारे गुण तो किसी एक में होते नहीं है और फिर सर्वेश का यहाँ न रहना भी उसके क्रोध और आक्रोश का कारण समझा जा सकता था। बात बात में बच्चों को मारना या डाँटना उसकी आदत में शुमार था और बच्चे रोते हुए बड़ी मम्मी या बड़े पापा के पास आ जाते और उनको समझा दिया जाता।

बच्चों के बड़े होने, पढ़ने के साथ ही खर्च बढ़ रहे थे तो वे इस अविकसित इलाके में अपना मकान बनवा कर आ गए, बच्चों के स्कूल जाने की समस्या होने लगी। दूर के इलाके में बड़े स्कूल और कॉलेज थे , सो उनको छोडने और लेने की जिम्मेदारी जब आई तो अपना काम धंधा कम होने लगा, ये किसी ने न सोचा और फिर छोटी छोटी बातों में उसकी पत्नी के कारण झगड़ा भी होने लगा। छोटी को पति के यहाँ न होने का पूरा पूरा फायदा मिल रहा था। घर के कामों में असहयोग , कभी भी बच्चों को छोड़ कर मायके में जाकर बैठ जाना। सारी जिम्मेदारी दीपा को समझा कर प्रयोग हम और अम्मा कर रहे थे, लेकिन हम मन से उसके गुनहगार थे कि वह पूरे दिन घर में खटती रहती थी। उसकी सुबह अगर किचेन में होती और शायद रात भी।

"सो गए क्या ?" दीपा बाथरूम से निकलकर आते हुए बोली।

"नहीं , कुछ सोच रहा था। "

"अब क्या सोचना ? जीवन तो पूरा निकल ही गया , तब कभी सोचा नहीं और जिस परिवार के लिए मरते रहे उसका जो व्यवहार देख रहे हैं, मैं उससे पूरी तरह से वाकिफ थी।" दीपा स्वर भीग गया था और इसके लिए मैं ही गुनाहगार था।

"एक बात आपने सोची कि यही अम्मा छोटी छोटी कहते थकती नहीं थी, उन्हें कोई चीज दी नहीं कि पहले सवाल छोटी को दी या नहीं। हमें छोड़िये उनके बारे में तो सोचा होता। नेहा और निभा की शादी तो चलो बाहर से की थी , अम्मा नहीं जा सकती थीं लेकिन ये तो लोकल है न और इस बार भी.....|

"क्या बात करती हो ? आज भी उससे कोई उम्मीद रखती हो।" दीपा को सांत्वना देने के उद्देश्य से कहा।

दोनों भरे मन से सोने का प्रयास करने लगे लेकिन क्या नींद इतनी जल्दी आने वाली थी। दोनों के मन में अलग अलग द्वंद्व चल रहा था।

दिनेश को वह दिन याद आ गए , जब सर्वेश की फौज वाली जॉब थी और वह और दीपा ही छोटी और उसके बच्चों की पूरी जिम्मेदारी निभा रहे थे क्योंकि अम्मा की इच्छा थी उनके सामने उनके दोनों बेटे साथ बने रहें परिवार टूटे नहीं, ये दोनों बच्चे उनको वर्षों की तपस्या के बाद मिले थे और दिनेश बड़ा है तो वह ही सबको बाँध कर रख सकता है। उसने भी निश्छल भाव से सब कुछ ओढ़ रखा था। प्रीति की डिलीवरी से लेकर उसके बच्चों की पढाई लिखाई , एंट्रेंस , एग्जाम सब कुछ उसके ही जिम्मे रहा और उसने पूरे मनोयोग से पूरा किया। अपने बच्चे न होने की पीड़ा को कभी महसूस ही नहीं किया। उसके बच्चे अपने पापा से ज्यादा बड़े पापा के करीब थे और कोई भी सलाह मशविरा उसके बिना होता ही नहीं था। यहीं तो था जिसने उसकी दुनियाँ आबाद कर रखी थी। सबसे बेखबर वह अपने काम और घर के अलावा कुछ नहीं सोचना चाहता था या कहो कि उसकी दुनिया इतने में ही सीमित हो चुकी थी।

उच्च और व्यावसायिक शिक्षा की और बढ़ते हुए बच्चे उसके आश्रय में रहे और जहाँ भी जाना हो साथ जाकर काम पूरा करवा कर ही लौटता था। जब तीनों बच्चे बड़े हो गए तो उनके लिए एक दिन वापस आओ तो दूसरे दिन फिर चल पड़ो। उसका काम अब प्रभावित होने लगा था और आर्थिक समस्या भी पैदा होने लगी लेकिन वह कह नहीं सका और उन लोगों ने इस बात को कभी समझा नहीं - "बड़े पापा है न , सब देख लेंगे।" सर्वेश का ये कहना उसको बेवकूफ बनाना था या फिर उसके प्रति विश्वास - कभी समझ नहीं पाया। उसे ठगा जा रहा है या फिर उसका इस्तेमाल हो रहा है ऐसा तो उसने कभी सोचा ही नहीं , अपने भी कभी ऐसा कर सकते हैं उसकी सोच से दूर की बात है। अरे यही बच्चे जब बड़े हो जायेंगे तो उसको कोई चिंता नहीं रहेगी। सर्वेश भी रिटायर होकर आ जाएगा और फिर यहीं कुछ करने लगेगा वह आराम से काम करके और परिवार के साथ खुश रहेगा।

बेटियों का सलेक्शन हुआ और वे पढाई करके नौकरी भी करने लगी। उनका स्तर बढ़ने लगा और दिनेश का वहीं का वहीं रहा। अम्मा और घर देखते देखते वह आगे न बढ़ पाया। यहाँ अम्मा स्वार्थी होने लगी सर्वेश और प्रीति ही उनके लिए प्रमुख हो गए। उनके गुणगान या कहो कि उनके बढ़ते हुए पैसे और प्रभाव ने उनको दबा लिया। सर्वेश रिटारमेंट लेकर आ गया और यहीं पर उसने कोई बिजनेस डालने की सोच ली। सब कुछ जैसे कि पूर्वनियोजित था। वह बड़े का बड़प्पन ढोने में ही पिसता रहा। इस शहर से बाहर जाने की कभी सोची ही नहीं, सब ढोते ढोते वह भी शारीरिक रूप से कमजोर होने लगा था, उसकी एजेंसी किसी तरह से चल रही थी लेकिन नयी पीढ़ी की तरह वह अब काम नहीं कर सकता था। हाँ अपने परिवार को अच्छे से पाल सकने में सक्षम था बस , दो लोग और एक अम्मा कितना चाहिए होता है अब।

सर्वेश भी फ़ौज से रिटायरमेंट लेकर आ गया और यहीं पर उसको नयी जॉब मिल गयी। उसके आने से लेकर ही घर में कुछ न कुछ शुरू हो गया। प्रीति के रंग पहले भी ठीक न थे और अब तो जैसे उसमें एक और मनोबल आ गया था। कहते हैं कि जब इंसान अपना विवेक प्रयोग नहीं करता है तो बहुत सारी गुत्थियाँ बन जाती है। उनको मिलकर खोल सकते हैं लेकिन कोई खोलना चाहे तब न। बस चल रहा था। उनकी दो बेटियाँ जॉब में आ चुकी थी और अब बड़े पापा दूध में मक्खी की तरह से बाहर कर दिए गए थे। कभी अकेले में दो आँसूँ अब लुढ़क जाते थे , इतना कमजोर तो वह कभी नहीं था।

फिर एक दिन सर्वेश आया और बोलै - "भैया बच्चे चाहते हैं कि एक फ्लैट पॉश एरिया में ले लिया जाय। ये घर पुराने ढंग का है और फिर कल को इनकी शादी होगी तो दामाद आयेंगे एक अच्छा घर तो चाहिए होगा , जिसको मेन्टेन करके रखा जाय। यहाँ तो अम्मा रहेंगी तो घर कितना ही साफ करिये एक गन्दी से महक आती ही रहती है। इन लोगों को अब बाहर रहते रहते इसकी आदत नहीं रही।"

"साफ साफ कहो न कि अलग घर में रहना है, दुनिया के बहाने से कोई फायदा नहीं। कल तक यहाँ नहीं थे तो सबको ये घर रास आता था और अब न इस घर की जरूरत है और न इस घर के लोगों की। जैसा बच्चे कहें और चाहें वैसे ही करो।,मेरे विचार से इसी घर के ऊपर एक मंजिल बनवा लेते और अपने ढंग से उसको मेन्टेन कर लेते। हम साथ न सही एक घर में तो रहेंगे और सुख दुःख में एक दूसरे के लिए बने ही हैं।"

"बच्चे शायद इस इलाके में रहना ही नहीं चाहते हैं, अपार्टमेंट के माहौल की बात ही और होती है।"

इस बात की तो सिर्फ सूचना देनी थी , अपार्टमेंट तो पहले ही बुक कराया जा चुका था, उसको कोई आपत्ति भी नहीं थी लेकिन इस सूचना ने उसकी नींद उड़ा दी। तो क्या छोटे अब घर छोड़ कर चला जाएगा लेकिन छोटे तो घर में रहता ही कितना था ? कोई बीस साल तो फौज की नौकरी में बाहर ही रहा। समय समय पर छुट्टी लेकर आता रहा तो बाल बच्चों के साथ घूमने फिरने में गुजर देता था। घर की कोई जिम्मेदारी थी ही कहाँ ? अम्मा के एक्सीडेंट के कारण उसने अपनी नौकरी को छोड़ ही दिया और यहीं पर एलआईसी एजेंट का काम कर लिया और छोटे चला गया फौज में। घर पर उसी की सारी जिम्मेदारी बन गयी। एलआईसी एजेंट का काम ऐसा था कि जिसमें समय की कोई पाबन्दी न थी। घर के काम पहले होते थे। उनमें अम्मा की देखभाल , प्रीति और बच्चों के सारे काम। उसने कभी ये न सोचा था कि ये बच्चे उसके नहीं है या फिर उसके संतान नहीं है। एक दिन वह ऑफिस में बैठ अपने साथी से बात करने लगा कि उसके बच्चे जब पैरों पर खड़े हो जायेंगे तो फिर उसको कमाने की जरूरत नहीं रहेगी और न ये प्रेशर रहेगा कि हर साल की इतनी पॉलिसी करनी ही है तब खर्च पूरे होंगे।

तभी सुनील ने कहा - "दिनेश हकीकत में आओ , जिन्हें तुम अपने बच्चे अपने बच्चे कहते फिरते हो और खुद को होम कर रखा है , वे तुम्हारे नहीं है और एक दिन वह भी आएगा जब वे सिर्फ अपने माँ-बाप के ही होंगे। "

"क्या बात करते हो यार! मैंने इन बच्चों को पैदा होने से पहले से संरक्षण दिया है, प्रीति को कभी बहू नहीं बल्कि बेटी की तरह अस्पताल से लेकर बच्चों के होने, उनकी हर जरूरत खुद पूरी की है, चाहे पढाई हो या फिर उनकी बीमारी अजारी हो। सर्वेश यहाँ रहता ही कब है ? उसकी नौकरी तो साथ रहने पर ही चल रही है , हाँ रिटायरमेंट ले लेगा तो मेरा बोझ कुछ हल्का हो जाएगा। फिर सिर्फ अम्मा को देखना भर रहेगा और अपना काम धंधा इत्मीनान से कर लिया करूँगा, ये भागमभाग नहीं रहेगी।"

"चल अब वक्त की चाल समझ, जीवन में तू और भाभी ही साथ रहेंगे, भले इस परिवार के लिए तूने उन्हें पीछे ही रखा है लेकिन सच यही है।"

अरे सुनील ने मेरा भविष्य कैसे पढ़ लिया था ? क्या उसको मुझसे ज्यादा अनुभव है। बात तो दीपा के कानों में भी पड़ चुकी थी लेकिन वह जानती थी कि उसका कुछ भी कहना आग में घी का काम करेगा और उसे इस बात का पूर्वाभास था कि एक दिन ऐसा ही होगा लेकिन कभी बोलने की कोशिश की तो उसको चुप करा दिया। वह अपने में संतुष्ट थी या फिर अपने दिए वचन से बँधी थी। इतने बड़े जहाँ में उसका अपना भी तो अपना नहीं होता, अम्मा से तो अपने इस घर में आने के बाद से तो वह छोटे छोटे ही सुनती चली आ रही है और उसके बाद आयी छोटी और फिर दोनों शामिल हो गए। छोटे और छोटी से क्या कितना मिला वही जानती हैं।

जब वह ब्याह कर आयी थी तो दिनेश ने यही कहा था कि मेरे लिए मेरी अम्मा सबसे पहले हैं क्योंकि वह अब विकलांग हैं , तुम एक बार मेरे काम को छोड़ देना लेकिन इनके लिए कभी कोई कमी न करना। अम्मा तो प्राथमिकता रही हीं और पीछे से जो छोटी आयी उसने तो सर्वेश के बाहर रहने को हथियार बना लिया था। जब तक बच्चे छोटे रहे यहाँ टिकी ही नहीं जब पढ़ने वाले हुए तो फिर आकर रहने लगी वह भी अपनी मर्जी की मालिक। वह क्या देखता नहीं था , लेकिन उसने सदैव ही दीपा को दबाया कि परिवार में छोटी मोटी बातें ही मनमुटाव पैदा कर देती हैं और तुम बड़ी हो समझदारी से काम लेना चाहिए। छोटे के न होने से मुझ पर अधिक जिम्मेदारी है। फिर परिवार की मुखिया भी तो तुम्हीं हो न। आज वह क्या कहेगा कि उसका मुखिया होना बेकार हो गया , उसका त्याग और समर्पण बेकार हो गया और ये घर टूटने जा रहा है। अब से अपना अपना ही देखने की नींव पड़ने जा रही है।

फिर वह दिन भी आ गया कि सर्वेश उस घर से जाने लगा तो दोनों अम्मा के पास आये और पैर छूकर बोले - "अम्मा आशीर्वाद दें , हमने दूसरा घर खरीद लिया है और उसी में कल पूजा करके शिफ्ट होने जा रहे हैं।"

"क्या कहा ?" अम्मा काफी ऊँचा सुनने लगी थीं।

सर्वेश ने उनको इशारे से समझाया कि हम दूसरे घर में रहने जा रहे हैं। जब उनके समझ आया तो वह हाथ जोड़ कर कहने लगीं - "भैया मेरी थोड़ी सी जिंदगी रह गयी हैं, इस घर को छोड़ कर मत जाओ। "

"हम दूर नहीं जा रहे हैं, इसी शहर में हैं और आपसे मिलने आते ही रहेंगे। बच्चे भी जब आयेंगे तो आते रहेंगे। आप परेशान न हों। "

इतना सुनकर अम्मा दिनेश की तरफ मुखातिब होकर बोली - "भैया इन्हें रोक लो, तुमने तो कौल निभाया है लेकिन इनको समझाओ न।" और फूट फूट कर रो पड़ी।

दिनेश में इतना साहस न था कि वह उनको रोते हुए देख पाता और अपनी भीगी आँखें लिए वह कमरे से बाहर आ गया। दीपा अम्मा के पास बैठ कर उन्हें समझाने लगी, जो महज एक बच्चे को बहलाने जैसा था।

इसके साथ ही आखिर एक घर दो घरों में बदल गया। उस रात खाना नहीं बना किसी को खाने की इच्छा ही नहीं थी। अम्मा जिन्हें भूख सहन नहीं होती थी , वो मुँह ढक कर पड़ी रहीं। उन्होंने भी शायद ये नहीं सोचा था कि उनकी दो आँखों में से एक जीते जी रोशनी खो देगी।

कब सोचते सोचते वह सो गया उसको पता ही नहीं चला बल्कि वह सपने में अपने बचपन के समय को जी रहा था कि कैसे अम्मा और बाबू के साथ मस्ती से रह रहा था , एक ही खटिया पर लेटकर मार पीट करना और फिर डाँट खाना। एक दूसरे के बिना खाना नहीं खाते थे , एक ही प्लेट में एक साथ बीच बीच में चिढ़ाने के लिए दूसरे की कटोरी से खाने लगना और फिर एक दूसरे को मारना पीटना बचपन की मधुर यादें कहीं दब गयी। - वह फिर से वही जीवन जीना चाहता था लेकिन नींद खुलने के साथ ही वह सारे ताश के महल ढह गए।

*****

नेहा और निभा की शादी बाहर जाकर की गयी तो स्वाभाविक थी कि अम्मा को नहीं ले जा सकते थे और जिम्मेदारी तो दिनेश और दीपा की ही थी। उन्होंने एक रिश्तेदार को बुला कर रखा और एक नर्स रखी जो उनकी अनुपस्थिति में अम्मा का पूरा ध्यान रख सके। किसी तरह से दोनों बेटियों की शादी हुई। अब तीसरी की तो लोकल ही हो रही थी लेकिन अम्मा की स्थिति और अधिक जर्जर हो चुकी थी। उन्हें ये पता नहीं था कि दो पोतियों की शादी हो चुकी है क्योंकि बेटी या दामाद इस घर में आये ही नहीं। अगर सूचना मिल जाती तो दिनेश और दीपा वहीं जाकर मिल आते।

शादी के दिन नजदीक आ रहे थे, दोनों समझ नहीं पा रहे थे कि अम्मा को कैसे बताया जाय कि छोटे की छोटी बिटिया की शादी है और वह लोग आप को एक नर्स के हवाले करके जायेंगे और सबसे बड़ी बात कि खुद छोटे उनको बताने के लिए नहीं आया और उनको ले जाना तो बहुत बड़ी बात है। यही अम्मा जब ये बेटियाँ पढ़ रहीं थी तो जब हॉस्टल के लिए रवाना होती थी तो हाथ में खरे खरे नोट हाथ पर रखती कि कोई कमी पड़े तो खर्च के लिए रखना। रात में चाहे जितनी भी देर से घर से निकले, जितनी भी सर्दी हो वह अपने बिस्तर में रजाई ओढ़े बैठी रहती कि जाते समय "दही मछली" कहेंगी तो यात्रा शुभ होती है। ये जानने के बाद भी रात में ट्रेन में बैठने के बाद सुबह उसको अपने गंतव्य पर पहुंच जाना है - कुछ फुटकर पैसे भी देती - बेटा रास्ते में चाय पी लेना। माँ और दादी को किसी ने बताने की जरूरत नहीं समझी और समझें भी क्यों ? जब यही रहते थे सब, तो बेटियाँ जब घर आती तो कह देती अभी दादी को मत बताना कि मैं आ गयी हूँ। लेकिन जब वे उनके कमरे से बाहर से गुजरती तो उनकी दूर की नजर ठीक ही थी अँधेरे ही सही देख लेती और फिर सबसे पूछती क्या नेहा आई है? कौन झूठ बोलता लेकिन उन बेटियों को ये अच्छा नहीं लगता।

जब नयी नयी नौकरी लगी तो बड़ी बेटी दादी के लिए एक साड़ी लाई थी, वह वॉकर से चल लेती थीं। बहुत खुश हुईं थी लेकिन छोटी ने उनसे लेकर रख ली एक दिन उनसे कहा वो साड़ी पहन लो और उसकी फोटो खींच कर बेटी को भेज दी फिर वापस अपने पास रख ली कि कहीं आओगी जाओगी तो दे देंगे। उनको जाना कहाँ था ? और इनको देना ही कहाँ था ? उसे साड़ी का ब्लाउज अपने लिए बनवा लिया। हो गया शगुन पूरा और आने जाने वालों को साड़ी लेकर दिखाती कि नेहा ये दादी के लिए लाई है। कुछ लोग नुमाइश अच्छी कर लेते हैं उनमें से ही है उनकी छोटी। अब तो पुरानी यादें मन मष्तिष्क में हिलोरें मारने लगी थी। लेकिन उनको याद करके पीड़ा ही तो मिलने वाली है, इस पीड़ा को बार बार कुरेदकर क्या मिलेगा ? जो हो चुका है, उस दर्द को फिर से जीने का प्रयास कुछ भी नहीं देगा बस पीड़ा और पीड़ा।

आखिर शादी की रस्मों का समय भी आ ही गया तो समय समय पर दीपा जाने लगी, वह घर में ही रहता था ताकि अम्मा को देखा जा सके।फिर एक दिन फ़ोन आया - "भैया आपने अम्मा को बता दिया कि निधि की शादी है। "

"नहीं , अरे ये बताने तो आ जाता कि निधि की शादी है, तिथि , त्यौहार की बात और होती है आये या न आये।"

"अरे भैया इतने सारे काम हैं कि आप नहीं समझ सकते , इतना काम तो कर ही दीजिये। आखिर बड़े होने का फर्ज कुछ तो निभा दीजिये। "

"सही कहा तूने, मैंने जीवन भर जो किया वो पता नहीं क्या था ? चिंता न कर निभा दूँगा।" किसी तरह से अपने भावों को जज़्ब करते हुए उसने कहा लेकिन जी उसका फूट फूट कर रोने को कर रहा था। वह भी इंसान है, जिसने अपने नहीं होने पर भी अपना तन मन धन इन्हीं बच्चों पर लगा दिया था। फिर भी वह किसी पड़ोसी की तरह से दूर से खड़ा तमाशा देख रहा था।

शादी वाले दिन दोनों होटल पहुँच गए। दीपा को देखते ही प्रीति बोली - "लो अब बड़ी मम्मी आ गयीं तो सारे काम कैसे होने हैं वही बतायेंगी।सारी रस्में धीरे धीरे पूरी होने लगी। मंडप माँड़ने की बेला आयी तो दामादों को बुलाने को कहा गया। दोनों बड़े दामाद आ गए , दीपा बड़े दामाद जी से तो निभा की शादी में मिल चुकी थी, लेकिन मेहुल जी से उसकी ज्यादा मुलाकात भी नहीं थी और यहाँ तक कि उनका कभी आधा घंटे का भी साथ नहीं हुआ। दीपा को मजाक सूझा तो उसने कह दिया - "अरे मेहुल जी आप को दो दिनों में दिखलाई ही नहीं दिए , बस मौके पर ही दिखलाई दिए।"

"आप तो कहिये ही नहीं कुछ , आप तो हिंदी सीरियल की वैम्प की तरह हैं , जो सिर्फ बुरा ही बोलती हैं। "

दीपा अवाक् रह गयी कि जिस इंसान से वह कभी मुखातिब हुई ही नहीं वह इस तरह से क्यों बोल रहा है ? बात को हँसी में उड़ाने के अंदाज़ में वह फिर भी बोल दी - "चलिए अपने मेरी भूमिका तो बता दी, अब बाकी घर वालों को भी उनकी भूमिका बता दीजिए।"

"वह किसी को बताने की मैं जरूरत नहीं समझता हूँ। मम्मी जी ने मुझे सब कुछ बता रखा है। " कहते हुए मेहुल आगे बढ़ गया।

दीपा को उस समय बहुत रोना आया लेकिन कुछ कर नहीं सकती थी और वह उसी समय उठकर अंदर चली गयी। क्या छोटी ने अपने दामादों को कुछ अलग कहानियाँ बना कर हम लोगों के प्रति विष बोया है और हो सकता है कि इसी लिए ये शादी के बाद कभी न अम्मा से मिलने आये और न ही हम लोगों से। वह फिर बाहर निकल कर नहीं आयी। उसके आँसूँ रुक नहीं रहे थे और उसको लग रहा था कि जीवन भर के दायित्व निभाने के बदले यही सिला मिला है।वह समझ नहीं पा रही थी कि इन सूजी हुई आँखों से उसके यहाँ पर किसी भी रस्म में शामिल होना चाहिए। ये तो आखिरी शादी के साथ रिश्तों के ताबूत पर आखिरी कील है।