गुमनाम ढाँचा
चार मंजिला आलीशान इमारत, पूरी तरह रोशनी से नहाई हुई थी और रात में ऐसी लग रही थी मानो कोई पांच सितारा होटल हो। ठीक ऊपर की तरफ बीचों -बीच में बड़ा-बड़ा लिखा था 'जीवन रक्षक 'यानी जीवन को देने वाला। जिसे देखते ही मानस के कदम यकायक रुक गए। वो ठहर कर देखने लगा। उसने एक बार फिर से उस इमारत का नाम पढ़ा, अभी भी उस पर लिखा था' जीवन रक्षक'। हलाकिं वो इस शहर में एक लम्बे अरसे के बाद आया था मगर कुछ चीजें जहन में ऐसी जगह बना लेती हैं जो मरते दम तक नही निकलती।
उसने खुद को आश्वस्त किया। कि यह वही अस्पताल है। जिसने उसे मौत के मुंह से निकाला था। वो इसे कैसे भूल सकता है ? बीस पच्चीस बरस पहले यहाँ चार -पांच कमरों की एक मकाननुमा इमारत हुआ करती थी। एक डाक्टर और तीन -चार नर्सो का छोटा सा स्टाफ था। आज इसकी काया ही पलट चुकी थी। बिल्डिंग से लेकर कार्यशैली तक सब कुछ आधुनिक था।
ग्रेनाइट का फर्श शीशे की तरह चमक रहा था। दीवारों और सीलिंग पर अब्बल दर्जे की पी ओ पी उसकी शान के कशीदे पढ़ रही थी। कांच के अलग-अलग केबिन बने हुए थे। हर केबिन में यूनिफार्म पहने हुए लड़के और लड़कियां बैठे हुए थे। उसने मन ही मन सोचा हां जगह तो ये वही है और नाम भी वही।
उस समय आगे की तरफ काफी जगह खाली पड़ी हुई थी। अब वहां पर खूबसूरत सा पार्क बन चुका था। जहाँ तमाम तरह के पेड़ -पौधे और विभिन्न वर्णी फूल उस कृत्रिम रोशनी में खूब चमक रहे थे। ठंडी और नरम घास तीमारदारों के लिये कुछ पल सुकून का तोहफा जैसी थी।
चहल -पहल से अंदाजा लगाया जा सकता था कि' जीवन रक्षक' शहर का कितना बड़ा और नामी अस्पताल होगा। वह चलते-चलते कॉरीडोर तक पहुंच गया। अंदर भी पहले जैसा कुछ नहीं था। उस वातानुकूलित हाल में बड़े बड़े शानदार सोफे पड़े थे। एकाध को छोड़ कर सभी पर कोई ना कोई बैठा हुआ था। कोई अपनी बारी के इन्तजार में था और कोई बारी आने के बाद बुझा हुआ था।
उसने इधर -उधर ढूंढा। सामने ही रिसेप्शन दिखाई दिया। वो लपक कर वहाँ पर पहुँच गया और पूछा-”एक्सक्यूज़ मी, यहां पर रज्जो बुआ -------?”उसका वाक्य अभी पूरा भी नहीं हुआ था कि रिसेप्शन पर बैठे हुए व्यक्ति ने उसको देख कर कहा-”पेशेंट का पूरा नाम बताइए ?”“नहीं पेशेंट नहीं है वो”फिर उधर से आवाज आई-”फिर कौन है ?”वह काफी पहले यहां पर काम करती थी। उन्हीं का नाम है रज्जो बुआ, मुझे उन्ही से मिलना है”“अच्छा -अच्छा आप उन बुआ की बात कर रहे हैं उनसे मिलना है आपको ?”हां”"अभी भी यहीं हैं”मानस ने उससे पूछा- “कहां मिलेंगीं ?”"ग्राउंड फ्लोर पर ही सामने से दाएं जाइए स्टाफ रूम पर पूछ लीजिए उनकी ड्यूटी यही रहती है”"जी, थैंक्स”कहकर मानस अंदर बढ़ गया।
एक लम्बा गलियारा पार कर वो जनरल वार्ड में पहँच गया। उसने देखा, एक औरत जिसके पैरों में दो बददी की चप्पल, कमर झुकी हुई , तन पर वही सोती धोती, किसी पेशेंट की भर्ती की तैयारी में लगी थी। उसे पहचानते देर नही लगी। उसने पीछे से धीरे से पुकारा-"रज्जो बुआ”उन्होंने पलट कर देखा और पूछा-”किसको पूछ रहे हो ?”"आप रज्जो बुआ हैं ना ?”उन्होंने मानस को घूर कर देखा और कहा-”हां, मेरा ही नाम रज्जो है यहां पर सब मुझे इसी नाम से जानते हैं पर तुम कौन हो ?”उनको देखते ही मानस की आंखों में आंसू आ गए। उसे पिछला सारा वक्त याद आ गया। वो भाव विभोर हो उठा। उसने आगे बढ़कर पूछा-”बुआ मुझे पहचाना..?”उनके चेहरे से लग रहा था कि वो पहचान नहीं पा रही हैं पर कोशिश जरुर कर रही हैं। अब वो उनके पास जाकर खड़ा हो गया। ठीक सामने और कहने लगा -”बुआ, देखो, देखो मुझे मैं मानस हूं।”उन्होंने उसको गौर से देखा फिर ना पहचानते हुए अपने काम में लग गई और धीरे से बुदबुदाने लगीं -”यहाँ तो सभी मुझे बुआ कहते हैं। तुमने कह दिया तो कौन सी बड़ी बात है।”उनकी बात को अनसुना कर उसने फिर कहा -"बुआ मुझे ध्यान से देखो मैं मानस हूं। एक बार मेरी जिंदगी को आप ही ने बचाया था।”इस बार वह धीरे से हंसी और कहने लगी-”बेटा यहाँ काम करते हुए मेरी उम्र गुजर गई ना जाने कितने लोग आते हैं और चले जाते हैं मैं किस किसको याद रखूंगी और अब तो मुझे सही से दिखाई भी नहीं देता।”
मानस ने उनके दोनों कंधों को पकड़ लिया और कहा -"बुआ मैं उन लोगों में से नहीं हूं मैं उन सब से अलग हूँ। मेरी रगों में आप का दिया हुआ खून दौड़ रहा है। क्या आपको याद नही वो रात, जब मैं सड़क दुर्घटना में बुरी तरह घायल हो गया था और कुछ लोग मुझे उठाकर यहां लाए थे। तब आपने एक मां की तरह मेरा ख्याल रखा था और .....”कहते -कहते मानस भावुक हो गया। रज्जो को कुछ याद आया-”हां बेटा मुझे याद आया अरे तू वही मानस है ? कहां था अब तक ? और कैसा है तू ? उन्होंने उसको ध्यान से देखा वह खुशी से पागल हो गई। उसके दोनों गालों को छूते हुए कहा -"आजा बैठ जा। बड़े दिन बाद आया है।”मानस कुर्सी पर बैठ गया। वो जल्दी-जल्दी हाथ का काम निपटाने लगी और कहने लगी-”बस तू दो मिनट रुक मैं अभी आई। एक पेशेंट आने वाला है उसी का बैड लगा रही हूँ। वह पूरी तन्मयता से अपना काम कर रही थी और कहती जा रही थी -"अभी रूम नंबर पाँच के पेशेंट को स्पंज कराना है। रूम नंबर दो में बेड लगाना है। सारा काम मुझ पर छोड़ रखा है। अगर मैं ना आऊं तो अस्पताल में काम ही ना चले। जिसको देखो रज्जो बुआ..."
मानस चुपचाप उन्हें देख रहा था। वह आज भी बिलकुल वैसी ही थी। ना तो उनके हालात बदले थे और ना ही व्यवहार। वह बीस वर्ष पहले भी बुआ थी और आज भी एक बड़े अस्पताल की साधारण सी नौकरानी। पर वह उसमे खुश थी या नहीं ये कहा नही जा सकता।
बैठे-बैठे मानस ने उस कमरे को गौर से देखा। दीवारों पर महंगा और आधुनिक पेंट। नया और खूबसूरत फर्नीचर। सभी सुख सुविधाओं से भरपूर महंगी और बड़ी-बड़ी मशीनें तमाम उपकरण क्या नहीं था वहां पर.? क्या यह वही अस्पताल है? इसकी तो काया ही पलट गई। कैसे हुआ ये सब ?
बुआ ने बताया कि-”हमारा अस्पताल शहर का सबसे बड़ा और हर सुविधा से पूर्ण अस्पताल है। यहां पर अल्ट्रासाउंड, एम आर आई के अलावा अपना मेडिकल स्टोर और बढ़ा सा ओपीडी है जहां अब एक नहीं पूरे दस डॉक्टर बैठते हैं। सब कुछ आधुनिक हो चुका है। सारा काम कंप्यूटर से होता है। अब शहर वालों को दिल्ली या मुंबई नहीं भागना पड़ता। फिर भी इमरजेंसी पेशेंट को बाहर ले जाने की पूरी सुबिधा है। यह सब बताते हुए वो बड़ा गर्व का अनुभव कर रही थी। उनके चेहरे की मासूमियत छोटे बच्चे की तरह लग रही थी। मानो बच्चा कह रहा हूं 'देखो मेरा घर सबसे अच्छा'।”पर उसको नही पता कि ये घर उसका है या नही ?
“एक बात बताओ बुआ ? आप खुश तो हो ना”मानस ने बीच में ही पूछ लिया।”हां बेटा मैं बहुत खुश हूं। डाक्टर मेरी इज्जत करते हैं और पूरा स्टाफ भी। आखिर मैं ही तो हूं सबसे पुरानी और तजुर्बे कार, हाथ लगाते ही बता दूं कि मरीज को परेशानी क्या है।
मैंने इस अस्पताल को अपना पूरा जीवन दे दिया। जब मैं पच्चीस बरस की थी तब यहां आई थी और आज पूरे साठ की होने जा रही हूं। पूरे पैतीस बरस हो गए मुझे यहां। पूरी जवानी और बुढ़ापा गुजरा है यहाँ। अस्पताल की एक-एक ईंट मुझे पहचानती है। तनख्वाह हमेशा टाइम पर मिलती है। इसके अलावा होली -दिवाली नए कपड़े और मिठाई भी। स्वस्थ होने के बाद पेशेंट भी सौ पचास रू पकड़ा ही जाते हैं। अब तू बता और क्या चाहिए मुझे.? क्या कमी है मेरे पास.? फिर खुश ना होऊँ तो क्या करूं..?”कहते-कहते उनकी आंख भर आई।
मानस को लगने लगा था कि वह जो बोल रही है उसमें उतनी सच्चाई नहीं है। वह खुश भी नहीं है। उसने पूछा-”बुआ, आपका एक बेटा था दीपक वो कहां है ? आप तो उसको डॉक्टर बनाना चाहती थी ना..? कितना तेज था पढाई में वो ?”
एक बार उनके चेहरे पर हल्की सी उदासी छाई थी। फिर उन्होंने संभलकर कहा-”दीपक को भी इसी अस्पताल में ही नौकरी मिल गई है। वार्ड बॉय है वो”।”पर आप तो उसे......?”कहते- कहते रुक गया मानस।”हां चाहती तो थी। पर इतना पैसे कहां से लाती ?”
मानस ने कहा-”ठीक कह रही हो आप। इतना पैसा कहां से आता? मैं भूल गया पांच सितारा तो अस्पताल हुआ है आप नहीं, और फिर अगर वह डॉक्टर बन भी जाता तो सेवा नही व्यापार कर रहा होता। ऐसा ही एक और महल खड़ा होता। उसमें आप जैसी ही कोई और बुआ होती जो अपना पूरा जीवन मरीजों की सेवा में लगा देती। अस्पताल का कद आसमान को छूने लगता और उसकी नीव में एक और रज्जू बुआ का गुमनाम ढांचा दबा होता.....।
छाया अग्रवाल
बरेली