Aanch - 6 in Hindi Fiction Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | आँच - 6 - हैरान हूँ मैं !

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आँच - 6 - हैरान हूँ मैं !

अध्याय छह
हैरान हूँ मैं !

अवध की ज़मीन ज़रखेज़ है। अवध हुकूमत की आय का ज्यादातर हिस्सा भूमि से ही प्राप्त होता। भूमि से आमदनी चार प्रकार से प्राप्त होती-खालसा, हुजूर तहसील, इज़ारा(ठेका) और अमानी। खालसा रियासतों पर अवध हुकूमत का प्रत्यक्ष अधिकार होता। इसकी वसूली नाज़िम या चकलेदार स्वयं करता। नाज़िम सरकार द्वारा नियुक्त राजस्व अधिकारी होते। चकलेदार निजी नौकर होते जो समझौते की अवधि में राजस्व की वसूली करते। चकलेदार नाज़िम के नीचे होते। हर निज़ामत में तीन-चार चकले होते। चकलों को बाद में परगनों में बदल दिया गया। परगनाधिकारी को आमिल कहा जाने लगा। नाज़िम और चकलेदार नज़राना, इज़ाफ़ा वसूलते ही नज़र भी प्राप्त करते। सम्माननीय व्यक्तियों को कानूनगो, चौधरी/मुखिया बनाया जाता जो राजस्व वसूली में मदद करते।
हुजूर तहसील में ज़मीनों के मालिक अपने करों का भुगतान तहसील में आकर करते थे। ताल्लुकेदारों द्वारा जब इज़ारा (ठेका) के अनुसार भुगतान किया जाता तो इसे इज़ारा कहा जाता। अमानी के अन्तर्गत सरकार अपने आमिल, अमीन आदि द्वारा करों की वसूली कराती थी।
इस समय अवध में चार प्रखवड-लखनऊ, फै़ज़ाबाद, बहराइच और ख़ैराबाद थे। लखनऊ में लखनऊ, रायबरेली, उन्नाव, फै़ज़ाबाद में फ़ैज़ाबाद, सुलतानपुर, प्रतापगढ़, बहराइच में बहराइच, गोण्डा, महम्दी (खीरी) तथा ख़ैराबाद में हरदोई, दरियाबाद, सीतापुर जिले सम्मिलित थे।
कर्नल ओट्रम ने अवध के बारे में एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की। उसमें शब्द ओट्रम के और भाव स्लीमन के थे। ओट्रम ने स्पष्ट कर दिया कि अवध के बारे में मेरा अनुभव कम है इसीलिए रेजीडेन्सी (बेलीगारद) के पुराने रेकार्ड के आधार पर रिपोर्ट बनाई गई है। इस रिपोर्ट में कर्नल रिचमण्ड को उद्धृत करते हुए बताया गया कि नवाब कम उम्र का और कम दानिशमंद लोगों से घिरा हुआ है। अवध की आय भूमि कर से ज्यादा होती है। इसमें खालसा अधिक लाभप्रद है पर उपयुक्त निगरानी के अभाव में सरकार को सम्पूर्ण प्राप्य नहीं मिल पाता। हुजूर तहसील भी अधिक प्रचलित है पर इसका दुरुपयोग वरिष्ठ अधिकारी और वज़ीर करते हैं। इज़ारा का भी उपयोग हो रहा है पर ब्रिटिश प्रतिनिधि इसे नुक़्सानदेह बता रहे हैं। अमानी पद्धति का प्रयोग भी बुद्धिमत्ता पूर्वक नहीं किया जाता।
कर्नल ओट्रम की लम्बी रिपोर्ट में सत्ता, वज़ीर, प्राप्तियाँ और वित्त, न्यायिक अदालतें और पुलिस, सेना, सड़कें तथा सार्वजनिक कार्य, अपराध-अत्याचार आदि प्रमुख बिन्दु थे। जब यह रिपोर्ट कलकत्ता पहुँची, डलहौजी ऊटकमंड में थे। जनरल लो रिपोर्ट देखकर खुश हुए। उन्होंने उसे डलहौजी के पास भेजने की व्यवस्था की। रिपोर्ट पाकर डलहोजी ने 18 जून 1855 को अवध और कम्पनी के सम्बन्धों पर एक लम्बा लेख लिखा जिसमें चार मुख्य प्रस्ताव थे। पहला प्रस्ताव था कि नवाब ने जिस सत्ता का दुरुपयोग किया है उसका वे त्याग करें और अवध को ब्रिटिश राज में सम्मिलित करने की अनुमति दें। दूसरा यह कि नवाब को अपनी शाही उपाधि और प्रतिष्ठा को बनाए रहने दिया जाए किन्तु वे सम्पूर्ण सिविल और सैनिक प्रशासन हमेशा के लिए कम्पनी के पक्ष में निहित करें। तीसरे प्रस्ताव में कहा गया कि शाह से अनुरोध किया जाये कि कुछ समय के लिए वे अपना राज ब्रिटिश अधिकारियों के प्रबन्ध में कर दें। चौथे प्रस्ताव में प्रावधान था-नवाब को सुझाया जाय कि अवध का प्रबन्ध रेजीडेन्ट के हाथों में दे दें जिनके निर्देशन में नवाब के अफ़सरों तथा आवश्यकतानुसार अंग्रेज अफ़सरों की मदद से राजकार्य चलाया जाय।
लेख पूरा कर डलहौजी अपनी कुर्सी से उठे। सामने फूलों से गमकता लान। लान की हरी घास पर चहलकदमी करते हुए वे सोचते रहे। कौन सा विकल्प सबसे ठीक रहेगा। पहला, एक मन ने उत्तर दिया। दूसरा मन भी कहीं दुबका था, बोल पड़ा-अवध के नवाबों ने बिना किसी गुरेज़ के अँग्रजों की शक्ति को स्वीकार किया था। ज़रूरत पर हमेशा मदद करते रहे। क्या इस मित्रवत व्यवहार का यही फल देना चाहिए?’ ‘बात तो ठीक है पर अवध को अँग्रेजी सत्ता में आना है। क्या इसके लिए पहला विकल्प उत्तम नहीं है?’ पहला मन हार मानने को तैयार नहीं था। ‘किसी मित्र का गला घोट देना ही सर्वोत्तम विकल्प कैसे हो सकता है?’ दूसरा मन तर्क देता रहा।
‘तब?’
‘तब क्या? सोचिए कोई दूसरा विकल्प।’ इसी बीच मैम आ गईं। दोनों हाथ में हाथ डाले टहलते रहे। शाम का समय। डलहौजी का मन तर्क-वितर्क करता रहा। मैम को आभास हो गया।.......यू आर ।
ओ याऽ......डलहौजी जैसे चांक पड़े। गर्मजोशी से उन्होंने मैम का चुम्बन ले लिया।


अन्ततः डलहौजी ने दूसरे विकल्प को लागू करने का मन बनाया। उसने एक नोट लिखा जिसमें रेजीडेन्ट को निर्देशित किया गया कि पूर्ववर्ती सन्धियों को निरस्त कर एक नई संधि की जाय जिसकी प्रमुख शर्ते हों-
ब्रिटिश सरकार और अवध के बीच हुई इसके पूर्व की सभी संधियाँ निरस्त समझी जाएँ तथा दोनों के बीच सम्बन्धों का निर्धारण इसी संधि के अनुरूप होगा।
अवध के नवाब वर्तमान राज्य की सम्प्रभुता को कायम रखते हुए सम्पूर्ण सिविल और सैन्य प्रशासन-सभी शक्तियों, क्षेत्र, अधिकार और दावों सहित ईस्ट इंडिया कम्पनी में विहित करेंगे।
प्रभाव स्वरूप नवाब की इज़्ज़त एवं प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हुए अवघ के राजस्व से उन्हें एक वार्षिक वृत्ति तय की जाए जिसे संधि में उल्लिखित किया जाय।
अवध के राजस्व से नवाब के सम्पूर्ण परिवार जो प्रभुसत्ता के बच्चे नहीं हैं, के लिए भी आवश्यक व्यवस्था की जाय।
अवध की प्राप्तियों से पहले सिविल और सैन्य खर्चे का भुगतान होगा। फिर क्रमशः नवाब और शाही परिवार की वृत्तियों पर तथा प्रान्त के विकास पर व्यय किया जायेगा। इन खर्चों से बची राशि ईस्ट इंडिया कम्पनी के अघिकार में रहेगी।
डलहोजी के नोट पर कौंसिल के सदस्यों ने भी विचार रखे। अन्ततः लार्ड डलहौजी के प्रस्तावों को रेजीडेन्ट की रिपोर्ट तथा कौंसिल के सदस्यों की टिप्पणियों के साथ निदेशकों के कोर्ट को अन्तिम आदेश के लिए भेज दिया गया।
निदेशकों की कोर्ट चार बार अवध की भूमि को उसकी विपन्न स्थिति से मुक्त कराने के लिए कुछ निश्चित प्रस्तावों की मांग कर चुकी थी। डलहौजी ने यह पहला और अंतिम प्रस्ताव भेजा। वे खुश थे कि निदेशकों की कोर्ट इस प्रस्ताव का विरोध नहीं कर सकेगी। पर मन में कहीं शंका भी थी कि गृह विभाग के अधिकारी यदि उसके प्रस्ताव को न स्वीकार करें तो? यह ‘तो’ उन्हें विचलित कर देता। उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था। मन में आया कि वह अवकाश ले लें। पर चार्ल्स वुड जो इंडिया बोर्ड के अध्यक्ष थे, उनसे पद पर बने रहने का अनुरोध करते रहे। यदि पद पर बने रहेंगे तभी तो अवध को अंग्रेजी राज में मिलाने का सौभाग्य मिलेगा।



बद्रीनाथ फ़ादर से अंग्रेजी पढ़ने के लिए घर से निकले। चौराहे पर हम्ज़ा मिल जाते थे और दोनों पैदल निकल जाते। पर आज हम्ज़ा नहीं आए तो बद्रीनाथ उनके घर की ओर तेज क़दमों से चले। थोड़ी दूर पर हम्ज़ा आते हुए दिखे। उन्हें संतोष हुआ। अगर समय से नहीं पहुँचेंगे तो फ़ादर सुअर, कुत्ता, दोगला न जाने क्या-क्या कह कर डाट पिलाएगा। ‘ज़रा तेज चलो’ बद्रीनाथ बोल पड़े। हम्ज़ा तेज गति से चलने लगे। ‘आज हमारे यहाँ एक दूर के रिश्ते का भाई आया है।’ हम्ज़ा ने बताया ‘कहाँ घर है उसका?’
‘ढाका में’
‘ढाका का मलमल तो बहुत मशहूर है।’
‘है नहीं, था।’
‘क्यों?’
‘घर-घर में करघे पर काम होता था पर अब करघे बन्द होने लगे हैं।’
‘क्यों?’
‘कम्पनी सरकार विलायती माल बेचना चाहती है। हिन्दुस्तान से कच्चा माल विलायत भेजना चाहती है। कारीगर को तंग किया जाता है।’
‘तो नवजवान क्या करेंगे?’
‘यही तो बड़ी मुश्किल है बद्रीनाथ भाई। किसानों को भी नील की खेती करने के लिए मजबूर किया जाता है। जो किसान विरोध करते हैं उनको तंग किया जाता है।’
‘तब?’
‘तब क्या? तुमने कहा था न कि अंग्रेजों की साज़िश का पता करने के लिए भी हमें अंग्रेजी पढ़नी चाहिए। मैं पढूँगा फ़ादर कितना ही गाली बके, तंग करे।’
हम्ज़ा कुछ देर से निकले ही थे। बातचीत में मशगूल हो जाने से पैर बहुत तेजी से नहीं बढ़ सके। फ़ादर तक पहुँचते कुछ देर हो ही गई। फ़ादर देखते ही गर्म हो उठा। दोनों को मुर्गा बनने का हुक्म देकर अन्दर चला गया।
बद्रीनाथ ने हम्ज़ा की ओर देखा। हम्ज़ा की आँखें सुर्ख हुईं पर उबाल धीरे- धीरे शान्त हो गया। दोनों मुर्गा बन गए। थोड़ी देर बाद फ़ादर आए। डाट पिलाई डैमफूल, बी पंकचुअल।(गधे, समयनिष्ठ बनो।) गो, कम टुमारो(जाओ, कल आना) दोनों खड़े हुए। कान खिंचकर लाल हुए ही, दर्द भी करने लगे थे। दोनों लौट पड़े। फ़ादर का वाक्य , खुदा का वाक्य था। कुछ दूर तक दोनों चुपचाप चलते रहे। ‘अपने यहाँ अंग्रेजी सिखाने वाले दो स्कूल खुले हैं। कोई अगर पढ़ना चाहता है तो स्कूल में पढ़ सकता है। हम लोग तो वहाँ पढ़ नहीं सके।’ बद्रीनाथ ने बात शुरू की।
‘लेकिन यह भी सुना है कि जो बच्चे ईसाई बन जाते हैं उन्हें वज़ीफ़ा दिया जाता है। ईसाई धर्म की बातों को पढ़ाया जाता है।’ हम्ज़ा ने अपनी जानकारी को सामने रखा।
‘अँग्रेज तो चाहते ही हैं कि लोग ईसाई बन जाएँ। मिशनरी लोग हम लोगों को सभ्य बनाने के लिए घूम ही रहे हैं। हम लोग असभ्य हैं न!’ बद्रीनाथ ने हम्ज़ा पर धौल जमाते हुए कहा।
‘बद्री, यह भी सुना है कि कोई वुड महोदय हैं। उन्होंने सुझाव दिया है कि ऐसे स्कूल खोले जाएँ जिनमें अरबी-फारसी संस्कृत, अँग्रेजी सहित मातृभाषाओं की भी शिक्षा दी जाए।’
‘नए बच्चों के लिए अच्छी बात है। हम लोगों को तो अलग अलग लोगों से पढ़ना पड़ता है।’ बद्रीनाथ को कुछ आशा बँधी।
‘पर यह सब नए बच्चों को भले काम आए। हम लोगों को तो इसी फ़ादर से पढ़ना पडे़गा।’ हम्ज़ा और बद्री पढ़ने की उम्र पार कर चुके हैं।
‘हम्ज़ा तुमने कुछ सुना है? मैंने लोगों को बात करते सुना है कि अँग्रेज अवध में नवाब का राज ख़त्म कर खुद का राज कायम करना चाहते हैं।’
‘कुछ ऐसी चर्चा बुजुर्गों से मैंने भी सुनी है। अँग्रेज अवध को हड़पने की साज़िश कर रहे हैं। कम्पनी के बड़े लाट हर रात यही स्वप्न देखते हैं कि लखनऊ पर कम्पनी का राज हो गया है।’ हम्ज़ा दुखी मन से बताते रहे।
‘कम्पनी का राज होना अच्छा नहीं होगा हम्ज़ा। इतना ज़रूर है कि अँग्रेजी पढ़े लोगों को काम मिल जाएगा।’ बद्रीनाथ कहते रहे।
‘इडियट, गधा कहलाकर नौकरी करना चाहते हो बद्रीनाथ। मैं तो ऐसी नौकरी पर थूकता हूँ।’ कहते हुए हम्ज़ा ने खख़ारा।
‘तुम तो साज़िश का पता लगाने के लिए पढ़ रहे हो पर मुझे तो नौकरी की तलाश करनी पड़ेगी। मेरी कोई व्यावसायिक पृष्ठ भूमि नहीं है। हमारे घर में कई पीढ़ियों से नौकरी ही की गई है। नवाब का राज ख़त्म हुआ तो अँग्रेजी राज की नौकरी करनी ही होगी।’
‘बद्रीनाथ, हमारा तुम्हारा रास्ता अलग। पर अँग्रेजी दोनों को पढ़नी है। मैं अँग्रेजों की नौकरी नहीं करूँगा।’
हम्ज़ा का स्वर तल्ख़ था।
‘नौकरी न करके क्या करोगे हम्ज़ा?’
‘अपना धंधा करूँगा और अँग्रेजों की साज़िश का पता लगाऊँगा।’
‘साज़िश का पता लगाना जोखि़म भरा है।’
‘जानता हूँ। जोखि़म से डरता नहीं हूँ।’ हम्ज़ा की मुट्ठियाँ बँध गईं। बद्रीनाथ हम्ज़ा की मुट्ठियों का बँधना और खुलना देखते रहे। इसी बीच चौक आ गया। दोनों अपनी अपनी गली की ओर मुड़ गए।
हम्ज़ा घर पहुँचे। उनकी बैठक में ईमान के साथ इल्तिफ़ात बैठे हुए थे। उन्हें पता था कि हम्ज़ा अँग्रेजी सीख रहे हैं।
‘कहो कैसे आए चचा?’ सलाम करते हुए हम्ज़ा ने पूछ लिया। नसरीन गुलगुले और पानी रख गई। तीनों ने गुलगुले खाकर पानी पिया।
‘मुझे कुछ ज़रूरी बात करनी है बेटे हम्ज़ा।’ इल्तिफ़ात ने जैसे कहा, ईमान उठ पड़ा, कहा, ‘मैं बाज़ार घूम कर आता हूँ।’ इल्तिफ़ात ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा,‘बेटा समय ख़राब है। मैं अँग्रेज बहादुर के यहाँ कभी कभी मुगलई गोश्त बनाने जाता हूँ। एक दिन साहब ने मेम साहब के साथ शराब पिया। यही शाम का समय था। मेम ने दूसरी बार गिलास में ढाला। साहब उसे पीते समय थोड़ा बहक गए। उनके मुँह से निकल गया, ‘अब यह अवध हमारा हो गया।’ इतना तो मेरी समझ में आ गया पर इसके बाद वे बोल गए-‘द किंग विल गो’। मैं इसका मतलब नहीं समझ पाया। तुम अँग्रेजी पढ़ रहे हो। इसका मतलब क्या हुआ हम्ज़ा?’‘राजा जाएगा?’ हम्ज़ा ने बताया।
‘राजा कहाँ जायगा हम्ज़ा?’ ‘इसका मतलब हमारी समझ में यह आया कि अवघ का राज ख़त्म हो जायगा चाचा।’
‘बात मेरी समझ में भी कुछ आ रही है। बाज़ार में लोग जो चर्चा कर रहे हैं, वह सही है। हमारे शाह अब गद्दी पर नहीं रह पाएँगे।’ कहते हुए इल्तिफ़ात रो पडे़। हम्ज़ा की आँखें भी डबडबा आईं।
‘बेटा किसी से कहना नहीं।’
‘नहीं चाचा, मैं क्यों किसी से कहूँगा।’
‘तुम ठीक कर रहे हो। अँग्रेजी पढ़ लोगे तो इनकी भेद वाली बातों को भी समझ लोगे। इनकी काट के लिए अँग्रेजी पढ़ना पड़ेगा बेटा।’ इल्तिफ़ात रोते हुए कहते रहे।
‘मैं चलूँगा। बेटा किसी को कानों कान ख़बर न हो।’ इल्तिफ़ात उठ पड़े।
‘नहीं चचा, आप बेफ़िक्र रहिए।’ कहते हुए हम्ज़ा थोड़ी दूर तक पहुँचाने गए। लौट कर हम्ज़ा बैठक में आ गए। इल्तिफ़ात से तो कह दिया-किसी से नहीं कहूँगा पर... क्या सचमुच वे इसे निभा पाएँगे? वे गुमसुम बैठे रहे। दिमाग़ में तरह तरह के विचार उठ रहे थे। कम्पनी का शासन हो जाएगा तो......। कितनी नई तरह की कठिनाइयाँ सामने आ जाएँगी?
कम्पनी के आला अफ़सर तो अवध को भी हड़प लेना चाहते हैं। यहाँ के सारे धन्धों को चौपट कर देंगे वे। सतारा, झांसी, संबलपुर को हड़प ही चुके हैं। अब अवध की बारी है। क्या अँग्रेजी कम्पनी को रोका नहीं जा सकता? सब को ईसाई बना देना चाहते हैं लोग। हम्ज़ा के मन में ये विचार उठ ही रहे थे कि ईमान चौक का एक चक्कर लगाकर लौट आए।
‘यहाँ का चिकन तो बहुत नफ़ीस है हम्ज़ा भाई।’
‘पर जब रह पाएगा तब तो?’
‘ठीक कहते हो हम्ज़ा। तुमने कम्पनी का ज़ुल्म देखा नहीं है। हम लोग भोग रहे हैं। गाँवों में हमारी पंचायतें थीं। मक़्तब थे, हिन्दुओं के संस्कृत पढ़ाने वाले इदारे थे। बंगाल में अस्सी हज़ार इदारे थे। कम्पनी शासन ने पहले पंचायतों को ख़त्म किया। पंचायतें ख़त्म हो गईं तो उसी के साथ संस्कृत पाठशालाएँ और मक़्तब भी कम हो गए। अब तो अवाम की पढ़ाई की कोई सहूलियत नहीं रही। जो अमीर लोग हैं, उन्हीं के बच्चे पढ़ पा रहे हैं। कम्पनी के लोग जबरन कम दाम पर माल खरीदते हैं। गाँवों में एक रजिस्टर लेकर जाते हैं। कोई उन्हें अपना माल न बेचना चाहे तब भी एक रुपया घर में फेंककर नाम लिख लेते हैं। कारीगर अब दूसरे को माल बेच ही नहीं सकता। कारीगरों और मजदूरों पर कम्पनी तरह तरह के ज़ुल्म करती है। ज़ुर्माना करना, क़ैद कर लेना, कोड़े मारना, ज़बरदस्ती इक़रारनामा लिखवा लेना आम हो गया है। इसी से बुनकरों की तादाद कम हो गई है। कोई बुनकर अगर अपना माल दूसरे के हाथ बेचने की कोशिश करता है तो अँग्रेज कम्पनी का गुमाश्ता जुलाहे पर निगाह रखने के लिए सिपाही तैनात करा देता है। जैसे ही थान पूरा होने के करीब आता है ये सिपाही थान को जबरदस्ती करघे में से काटकर निकाल देते हैं। पैकर या दलाल अगर कारीगर की मदद करना चाहते हैं तो कम्पनी के एजेन्ट उन सबको पकड़वाकर कै़द करा लेते हैं, बेड़ियाँ-हथकड़ियाँ डाल देते हैं। बड़ी बड़ी रकमें ज़ुर्माने के तौर पर वसूल करते हैं, कोडे़ लगाते हैं और बेदीन कर ईसाई बनाने की कोशिश करते हैं।
अगर कारीगर उतना काम नहीं कर पाते जितना कम्पनी के गुमाश्ते उनके मत्थे मढ़ देते हैं तो उनका माल-असबाब सब नीलाम कर दिया जाता है। कच्चे रेशम के लपेटने वाले इतने तंग किए गए कि कइयों ने अपने अँगूठे काट डाले ताकि उन्हें रेशम लपेटने के लिए मजबूर न किया जा सके।’
‘भाई तुम्हारी बातें सुनकर बड़ा दुःख होता है। गर यहाँ कम्पनी का राज हुआ तो यहाँ भी यही सब होगा। हमारी मुश्किलें बढ़ेगी। यहाँ के अँग्रेजी अफ़सर हमारे लोगों को बेइज़्ज़त कर देते हैं, यह तो देखा है पर तुमने जो बयान किया वह तो।’
‘मैं भी यही सोचकर हैरान हूँ। क्या अवध को भी वही सब झेलना पड़ेगा जो बंगाल के लोग झेल रहे हैं?’
नसरीन की आवाज़ आई। दस्तरख़्वान तैयार है।
हम्ज़ा और ईमान दोनों उठ पड़े। पर दिमाग़ भविष्य को सोचकर परेशान ही रहा।
दोनों दस्तरख़्वान पर भी बात करते रहे। हम्ज़ा की माँ ने पूछ ही लिया,‘बेटे, तुम लोग कुछ परीशां दिखते हो।’
‘अम्मी, अवध के हालात पर हम लोग चर्चा कर रहे हैं।’ हम्ज़ा ने रोटी का कौर तोड़ते हुए कहा। ‘हालात तो अच्छे नहीं हैं, यह मैं भी सुन रही हूँ। पर खाना खाते वक़्त...।’ अम्मी का चेहरा भी ग़मगीन हो गया।



आयरिश महिला एलिना अपने पति एंड्रूज के साथ कुछ कमाने के लिए कलकत्ता आ गई थी। पति का हैजे़ से देहान्त हो गया। वह अकेली हो गई। उम्र सत्ताइस वर्ष। जेम्स भी पैसा कमाने के लिए ही भारत आए थे। उनकी पत्नी का देहान्त हो गया था। वे इंग्लैंड के नागरिक थे। लखनऊ में रहकर अँग्रेजी माल का आर्डर प्राप्त करते और इसी बहाने कम्पनी-सत्ता के लिए जासूसी भी करते। साल भर पहले जेम्स और एलिना की भेंट कलकत्ता की एक महफ़िल में हुई। एक दूसरे की ओर आकर्षित हुए। एलिना को आर्थिक संरक्षण की भी ज़रूरत थी। वह लखनऊ आ गई। जेम्स और एलिना ने शादी कर ली। जेम्स की उम्र चालीस के पार पहुँच गई थी। पर दोनों में खूब पटती। एलिना में स्वतंत्रता का भाव अधिक था। दोनों में कभी कभी खटपट भी हो जाती, पर तुरन्त ही सुलह भी। जेम्स अपने काम में लगा रहता और एलिना भारतीय संस्कृति को जानने-समझने का प्रयास करती। वह हिन्दोस्तानी बोलती, समझती। पुरानी पाण्डुलिपियों की खोज में भी रहती। दोनों बेलीगारद में ही रहते थे अन्य अँग्रेज परिवारों के साथ।
एलिना ने एक दिन एक आदमी से एक घोबीगीत सुना था-निबिया कै पेड़वा जबै निक लागै जब निबकौरी न होइ। गीत उसे बहुत पसन्द था। जब तब उसे गाने का प्रयास करती। एक दिन उसने धोबीघाट पर जाकर धोबियों से मिलने का मन बनाया। जेम्स को उसका यह काम पसन्द नहीं था पर वह मना भी नहीं कर सकता था। एलिना टिनुक जाती। लखनऊ से कानपुर जाने वाली सड़क पर वह तांगे से चल पड़ी। शहर से बाहर निकली ही थी कि बाईं ओर एक तालाब के किनारे पाँच घोबियों और तीन धोबिनों को कपड़ा धोते देखा। धोबी और धोबिनें लकड़ी के पाटे पर छियोराम छियोराम कहते हुए कपड़े धो रही थीं। कुछ गधे इधर-उधर घास चर रहे थे। एलिना ने तांगा रुकवा दिया। ताँगे वाले से कहा ‘यहीं अको। मैं इन लोगों से बात करके चलती हूँ।’

एलिना ताँगे से कूदकर उतरी और धोबियों के घाट की ओर चल पड़ी। हलकी गुनगुनी धूप थी पर उसने छाता लगा लिया। स्कर्ट-ब्लाउज में, गले में स्कार्फ। पैरों में चमकदार जूती।
धोबियों ने एलिना को उत्सुक भाव से देखा। माँगी राम तालाब से बाहर आ गए। धोबिनें मुस्कराती रहीं। एलिना के निकटआते ही माँगीराम ने हाथ जोड़कर राम राम कहा। एलिना ने भी राम राम कह हाथ बढ़ा दिया पर माँगीराम हाथ जोड़े ही रह गए। हाथ आगे नहीं बढ़ा। एलिना ने अपना हाथ बढ़ाकर माँगीराम का हाथ दबा दिया। धोबिनें इसे देख हँस पड़ीं। ‘आप लोग तालाब में कपरा क्यों धोता है नदी में क्यों नहीं धोता?’ एलिना ने पूछा
‘ताल के पानी से कपड़ा ज्यादा साफ होवै। यही लिए हम लोग...।’
‘ओ समझ गई। ज़ियादा साफ़ होता है। ओ...। भाई क्या नाम है तुम्हारा?’ एलिना ने पूछा।
‘लोग माँगीराम के नाम से पुकारत हैं।’ माँगीराम ने जवाब दिया। ‘ओ... माँगीराम। वेरी गुड, अच्छा नाम है माँगीराम।
हम सुनता है कि धोबी लोग स्वांग करता।’
‘हाँ करत हौं।’?
‘ओ ...स्वांग करता है... नाटक करता है। गाता भी है?’
‘हाँ गावा जात है।’ माँगीराम अच्छे गायक भी थे, कुछ उत्साह में आ गए।
‘कोई गाना सुनाएगा?’
‘हाँ सुनाइ सकित है।’
‘तो माँगीराम जी गाना सुनाओ।’
माँगीराम ने एक चद्दर बिछा दिया उसी पर ऐलिना बैठ गई। उन्होंने गायन शुरू करने के पहले भूमिका बाँधी। ‘ई गाना मा राम, लखन, सीता के बन जाइ कै बात बखानी गै है।’
‘ओ राम-सीता, तुम्हारा भगवान!’
‘हाँ हम लोग भगवानै कहित है।’
‘ओह, वेरी गुड। हम सुनना चाहता। माँगीराम ने गुनगुनाना शुरू किया-
कौनौ बिरिछतर भीजत होइहैं, राम लखन दूनो भाई।
कौनौ बिरिछतर…………..।
माँगीराम के गायन शुरू करते ही धोबियों के साथ धोबिनें भी आकर बैठ गईं।
‘अरे वन का चले दूनो भइया.....
बोल के साथ माँगीराम की आँखें भी बरसने लगीं।
वन का चले दूनो भैया कोई समझावत नाई
भीतर रोवै मातु कौसिला द्वारे बटु समुदाई
आगे आगे राम चलतु हैं पीछे लछिमन भाई
तेकरे पीछे मातु जानकी मधुबन लेत टिकाई
भूख लगे भोजन कहँ पैहैं? प्यास लगे कहँ पानी?
नींद लगे डासन कहँ पैहैं कुश, कांकर गड़ि जाई।
रिमझिम रिमझिम दइवौ बरसै पौन बहे पुरवाई,
कवनौ बिरिछतर भीजत होइहैं राम लखन दूनो भाई।

माँगीराम का गायन इतना भावपूर्ण और लहरदार था कि सभी की आँखें भर आईं। जब उन्होंने दुहराते हुए गीत को उतारा-कौनौ बिरिछतर भीजत ह्वैहैं.....कौनौ बिरिछतर...। एलिना भी भावुक हो गई। उसने पूरे गीत को आत्मसात कर लिया।
‘मैं तुम लोगों से भी सुनना चाहता।’ धोबिनों की ओर देखते हुए उसने कहा। ‘मैं चाहता कि कोई शादी का गीत ।’
धोबिनें भी उत्साहित हुईं। लुचुई ने गीत का बोल कढ़ाया अन्य धोबिनें साथ देने लगीं-
आधे तलवा मा हंसा चूनै आधे मा हंसिनि हो।
तबहूँ न तलवा सोहावनि एक रे कमल बिनु।
आधे बगिया मा अमवा बौरे आधे मा इमली हो,
तबहूँ न बगिया सोहावनि एक रे कोइल बिनु।
आधी फुलवरिया गुलबवा गमकै आधी मा केवड़ा हो,
तबहूँ न फुलवा सोहावनि एक रे भँवर बिनु ।
सोने के सुपवा पछोरैं मोतिया हलोरैं,
तबहूँ न पुरुष सोहावन एक रे सुनरि बिनु।
आधे माड़ौ मा गोती बैठैं आधे मा गोतिन हो,
तबहूँ न माड़ौ सुहावन एक रे ननद बिनु।
बेदिया पै पंडित कलश कलश करैं हो
बेदिया ठाढ़ कन्हैया बहिनि गोहरावैं हो।
कहाँ गइउ बहिनि हमार कलश कौ गोठउँ हो,
निचवा से डोलिया उँचवा आयो, पात खहराने हो।
अँगना से भैया भीतर गे भौजी से बात करैं
आवति बहिनि गरब जिनि बोलेउ, पैयाँ लागेउ हो।
आवौ ननदी गोसाइँनि पैयाँ तोरे लागौं हो,
बैठउ माझ मड़ौवा कलश मोर गोठौं हो।
भौजी तीनि बरन मोर नेग तीनिउ लेइहौं हो,
लेबै भौजी सोरहौं सिंगार विहँसि घर जाबै हो,
देइहौं तीनिउ नेग और सोरहौं सिंगारउ हो,
हरी जी की परम पियारि तोहार मन राखब हो।
लुचुई के साथ धोबिनों ने पूरी तन्मयता से गीत को गाया। गीत को उतारते हुए जब उन्हांने दुहराया-आधे तलवा मा हंसा चूनइ आधे मा हंसिनि हो..।’ एलिना झूम उठी। उसकी कापी में माँगीराम ने दोनों गीत टाँक दिए। कापी से गीत पढ़ते हुए एलिना लय पकड़ने की कोशिश करने लगी। धोबिनों ने मदद की।
‘क्या नाम है आपका?’ कढ़ाने वाली धोबिन से एलिना ने पूछा।
‘लुचुई।’
‘क्या मायने है इसका?’ एलिना ने पूछ लिया। लुचुई और उसकी सहेलियाँ उसका मुँह देखने लगीं। माँगीराम बोल पड़े-‘हमारे हियाँ आटा मा घियो लगाइ कै रोटी बनत है। वही का लुचुई कहा जात है। रोटी बहुत मुलायम बनति है। हमरे लुचुई कै बोल बहुत मुलायम है।’ कहकर माँगीराम हँस पड़े साथ में एलिना तथा अन्य धोबिनें भी। ‘इसमें आपकी बेगम?’ ‘लुचुई हमरी बेगमै हैं’, कहकर माँगीराम हँस पड़े पर लुचुई लजा गई। एलिना ने अपने बटुए से चाँदी का दो सिक्का निकाला। माँगीराम से कहा, ‘अपना फ़ायदा के लिए आपका नुक़सान किया। आपने दो गीत हमें दिया। हम बहुत खुश हुआ। हम चाहता कि आप यह दो रुपया लो और सबमें बाँट दो।’ एलिना ने दो रुपया माँगीराम को देना चाहा।
‘रुपया हमें न चाही। आप हमार बोल सुनेव, यहै बहुत है।’ माँगीराम बोल पड़े।
‘पर आपका धुलाई का नुक़सान हुआ। हम उसका दाम नहीं दे सकता। आपने हमको बहुत कीमती गीत दिया। उसका भी दाम नहीं दे सकता। हम कुछ निशानी देना चाहता। ठीक है, हम अभी आता है।’ कहकर एलिना उठी। राम राम कर ताँगे पर जा बैठी।
तांगा शहर की ओर चल पड़ा। बाज़ार में एक सुनार की दुकान के सामने ताँगा रुकवाया। एलिना ने दुकान से आठ चांदी की अँगूठियाँ खरीदी। फिर धोबी घाट की ओर चल पड़ी। तांगा धोबी घाट के समीप रुका। ‘छेई राम’ ‘छेई राम’ की आवाज़ भी रुकी। एलिना सभी के बीच पहुँच गई। आठो अँगूठियाँ माँगीराम को देकर कहा, ‘सभी के लिए एक एक।’ माँगीराम न नहीं कर सके। एलिना के सामने ही सभी ने अपनी उँगलियों में अँगूठियाँ पहनी। एलिना फिर राम राम कर ताँगे पर जा बैठी। ताँगा शहर की ओर भाग चला।
धोबी समाज में भी नारियाँ घर-बाहर आती जाती थीं पर एलिना जैसा खुलापन नहीं था। लुचुई के साथ की धोबिनें इसी खुलेपन की चर्चा करती रहीं। माँगीराम स्वयं में खोए गुनगुनाते रहे
तन-मन गोरहर रच्यो हो साँईं।
तन-मन गोरहर..........।