भक्त लालाजी (जन्म- संवत 1853, गुजरात; मृत्यु- संवत 1918) भगवान के अनन्य भक्त थे। उन्हें नरसी मेहता का अवतार माना जाता है। इनका मन ईश्वर की भक्ति और साधु सेवा में बहुत रमता था।
भक्त लालाजी का जन्म सौराष्ट्र प्रान्त के सिंधावदर ग्राम में संवत 1853 वि. चैत्र शुक्ला नवमी को एक समृद्ध वैश्य कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम बलवन्तसाह और माता का वीरूबाई था। ऐसा कहा जाता है कि वे नरसिंह मेहता के अवतार थे।
बचपन से ही इनका मन भगवद भक्ति और साधु सेवा में बहुत लगता था। भक्त लालाजी (जन्म- संवत 1853, गुजरात; मृत्यु- संवत 1918) भगवान के अनन्य भक्त थे। उन्हें नरसी मेहता का अवतार माना जाता है। इनका मन ईश्वर की भक्ति और साधु सेवा में बहुत रमता था। परिचय भक्त लालाजी का जन्म सौराष्ट्र प्रान्त के सिंधावदर ग्राम में संवत 1853 वि. चैत्र शुक्ला नवमी को एक समृद्ध वैश्य कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम बलवन्तसाह और माता का वीरूबाई था। ऐसा कहा जाता है कि वे नरसिंह मेहता के अवतार थे। साधु सेवा बचपन से ही भक्त लालाजी का मन भगवद भक्ति और साधु सेवा में बहुत लगता था। उनके पिता ने उनको कपड़े के व्यापार में लगा दिया। जाड़े का प्रभात था, लालाजी दूकान में बैठे थे, संतों की एक मण्डली ने कुछ कम्बल मांगे; लालाजी उनको भयानक शीत से आक्रान्त देखकर दया से पिघल गये, उन्होंने प्रत्येक साधु को एक-एक कम्बल दे दिया। एक पड़ासी दूकानदार ने लालाजी के पिता से शिकायत की; उनके पिता ने आकर कम्बलों को गिना तो उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि दुकान में जितने कम्बल थे; उनसे एक अधिक है। साधु मण्डली नगर से थोड़ी ही दूर गयी थी कि पड़ोसी के साथ बलवन्तसाह ने उनके पास जाकर कम्बलों के सम्बन्ध में पूछ-ताछ की। संतों ने प्रसन्नतापूर्वक भक्त लालाजी के दान और उदारता की सराहना की। उनके पिता ने ऐसे भक्त पुत्र को पाकर अपने-आपको धन्य समझा। धीरे-धीरे लालाजी की ख्याति बढ़ने लगी। उनके पीछे-पीछे भगवान के भक्तों की एक अच्छी मण्डली चलने लगी।
एक बार भक्त लालाजी सायला ग्राम के ठाकुर मदारसिंह के घर पर भक्त मण्डली के साथ आमन्त्रित हुए। ठाकुर को एक बड़ा कष्ट था। वे जब भोजन करने बैठते, तब उन्हें भोजन सामग्री के स्थान में रक्त-मांस दिखायी देते। इसलिये ठाकुर को यह आशंका हो गयी थी कि कोई ब्रह्मराक्षस उनके भोजनालय में आकर खाद्य-समग्री छू देता है, इससे उन्हें भोजन के स्थान पर रक्त-मांस दीखाई पड़ता है। भक्त लालाजी ने उनको समझाया कि ‘भोजन भगवान को समर्पित करने के बाद ही खाना चाहिये।’ भक्त मण्डली ने भगवान को समर्पित भोजन किया तथा ठाकुर ने भी प्रसन्नतापूर्वक प्रसाद लिया। लालाजी की कृपा से आज उनको पवित्र प्रसाद ही दीख पड़ा। उनका कष्ट दूर हो गया। ठाकुर उनके भक्त हो गये। उन्होंने लालाजी की प्रसन्नता के लिये एक सुन्दर मन्दिर भी बनवाया, जिसमें आज तक सदाव्रत का क्रम चलता आ रहा है।
लालाजी क्षमा के तो मूर्तिमान स्वरूप ही थे। एक समय वे भक्त मण्डली सहित महाराजा भावनगर के अतिथि थे, राजधानी में उनके स्वागत-सत्कार में बड़ी चहल-पहल थी। दूर-दूर के संत और भक्तजन प्रसाद पा रहे थे। एक जटाधारी संत ने लालाजी के हाथ से प्रसाद पाने की इच्छा प्रकट की। लालाजी ने उनसे विनम्रतापूर्वक भोजन करने की प्रार्थना की, पर उन्होंने भोजन के पहले वस्त्र मांगा। लालाजी ने हाथ जोड़कर कहा कि ‘भोजन के बाद वस्त्र-प्राप्ति सम्भव है।’ संत आवेश में आ गये, उन्होंने भक्तराज के मस्तक पर चिमटे से प्रहार करके कहा कि ‘तुम संतों पर शासन करना चाहते हो?’ वे बिना भोजन किये ही चल पड़े। लालाजी उनके पीछे दौड़ पड़े, कहा कि ‘महाराज ! इस शरीर पर एक चिमटा और लगा दीजिये, यह अधम इसी का पात्र है।’ संत भक्तराज की क्षमा और सहनशीलता देखकर चकित हो उठे। दोनों बड़े प्रेम से गले मिले।
एक बार लालाजी भक्त मण्डली के साथ बड़े प्रेम से भगवान का भजन-कीर्तन कर रहे थे। भावावेश में कभी रोते, कभी हंस पड़ते थे। भजन समाप्त होने पर वे स्वयं प्रसाद वितरण करने लगे। एक पारधी ने, जिसकी झोली में दो मरे हुए पक्षी थे, कहा कि ‘मैं तब तक प्रसाद नहीं लूंगा, जब तक आप यह न बता देंगे कि मेरी झोली में क्या है।’ भक्तराज ने बड़ी विनम्रता और सादगी से उत्तर दिया कि ‘दो जीवित पक्षी हैं।’ पारधी ने प्रतिवाद किया कि ‘आप भगवान के भक्त होकर असत्य भाषण कर रहे हैं, दोनों पक्षी सबेरे ही मेरी बन्दूक से मर चुके हैं।’ भक्तराज ने कहा कि ‘भगवान का भजन अमृत से भी बढ़कर है, अमृत पीने वाला कभी नहीं मर सकता।’ पारधी की झोली के दोनों पक्षी जीवित निकले और झोली खोलते ही आकाश में उड़ गये। उसने भक्त लालाजी की चरण-धूलि मस्तक पर चढ़ा ली, वातावरण उनके जयनाद से आहादित हो उठा।
एक समय लालाजी ने सायला में बहुत बड़ा उत्सव किया, उसमें दूर-दूर से संतों और भक्तों ने आकर भाग लिया। एक जटाधारी संत ने भण्डारी से कहा कि ‘मैं अपना भोजन स्वयं अपने हाथ से बनाऊंगा, तुम घी से मेरा तूंबा भर दो।’ उसने तूंबे में घी डालना आरम्भ किया, पर वह भरता ही न था। भक्तराज भजन कर रहे थे। वे घटना स्थल पर स्वयं आये, अपने हाथ से ही तूंबा भरने लगे; पर न घी का पात्र ख़ाली होता था और न तूंबा भरता था। संत ने थोड़ी देर के बाद तूंबा फेंक दिया, वे भक्तराज का आलिंगन करके बोल उठे कि ‘तुम भगवान के पूरे भक्त हो, ज्ञान-विज्ञान आदि का अन्तिम परिणाम भक्ति ही है। तुम्हारा जीवन धन्य है।’ संत अदृश्य हो गये।
भक्तराज लालाजी ने संवत 1918 वि. में भगवान के धाम की यात्रा की। उन्होंने अपना प्रयाण काल पहले से बता दिया था। उनका भगवान में अटल विश्वास था।