केशव भट्ट काश्मीरी का नाम चैतन्य महाप्रभु के तत्कालीन अनुयायियों और भक्तों की श्रेणी में श्रद्धापूर्वक लिया जाता है। वे भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। चैतन्य की दिव्यता के प्रचारक थे और सिद्ध भागवत थे।
जिस समय शस्यश्यामला स्वर्णिम बंगभूमि श्रीगौरांग महाप्रभु की कीर्तन-माधुरी का रसास्वादन कर रही थी, नवद्वीप के बड़े-बड़े न्यायशास्त्री और दर्शनवेत्ता तर्क और शास्त्रार्थ से संन्यास लेकर भक्ति-कल्पलता की शीतल छाया में विश्राम करते हुए भगवान श्रीकृष्ण की लीला का मधुर गान कर रहे थे, ठीक उसी समय उत्तरापथ में दिग्विजय की विजयिनी पताका फहराते हुए एक बहुत बड़े समूह के साथ चौडोल पालकी पर चढ़कर पण्डितराज केशव काश्मीरी ने पुण्यसलिला भगवती भागीरथी के मनोरम तट पर नवद्वीप शास्त्रार्थ की शंखध्वनि की। न्याय का गढ़ नवद्वीप हिल उठा। इतने बड़े शास्त्रवेत्ता से लोहा लेना अत्यन्त कठिन था।
गीता भक्त साहित्य संगीत/कला तीर्थ/यात्रा हिन्दी टाइपिंग Contact Donate Now Secured by Razorpay केशव भट्ट काश्मीरी केशव भट्ट काश्मीरी का नाम चैतन्य महाप्रभु के तत्कालीन अनुयायियों और भक्तों की श्रेणी में श्रद्धापूर्वक लिया जाता है। वे भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। चैतन्य की दिव्यता के प्रचारक थे और सिद्ध भागवत थे। चैतन्य महाप्रभु से शास्त्रार्थ जिस समय शस्यश्यामला स्वर्णिम बंगभूमि श्रीगौरांग महाप्रभु की कीर्तन-माधुरी का रसास्वादन कर रही थी, नवद्वीप के बड़े-बड़े न्यायशास्त्री और दर्शनवेत्ता तर्क और शास्त्रार्थ से संन्यास लेकर भक्ति-कल्पलता की शीतल छाया में विश्राम करते हुए भगवान श्रीकृष्ण की लीला का मधुर गान कर रहे थे, ठीक उसी समय उत्तरापथ में दिग्विजय की विजयिनी पताका फहराते हुए एक बहुत बड़े समूह के साथ चौडोल पालकी पर चढ़कर पण्डितराज केशव काश्मीरी ने पुण्यसलिला भगवती भागीरथी के मनोरम तट पर नवद्वीप शास्त्रार्थ की शंखध्वनि की। न्याय का गढ़ नवद्वीप हिल उठा। इतने बड़े शास्त्रवेत्ता से लोहा लेना अत्यन्त कठिन था। महापण्डित ने देखा नवद्वीप से एक बहुत बड़ा जनसमूह श्रीकृष्ण का पवित्र, मधुमय और आनन्दमय नाम उच्चारण करता हुआ उनके निवास की ओर चला आ रहा है। लोगों के आगे-आगे उन्होंने एक ऐसे युवक को प्रमत्त नृत्य करते हुए आते देखा, जिसका शरीर तप्त हेमवर्ण का सा था, गले में पुष्पों का आकर्षक हार था, अधरों में 'हरि' नाम की पवित्र भागीरथी के निनाद का आलोडन था। मुस्कान की ज्योतिर्मयी किरणों की तरंग में अंग-अंग आप्लावित थे। वे सहज ही इस दिव्य, तेज:पुंज विलक्षण युवक की ओर आकृष्ट हो गये। हाथ चरणधूलि मस्तक पर चढ़ाने के लिये चंचल हो रहे थे, पर प्रकाण्ड शास्त्रज्ञान के गर्वभार से इतने दबे हुए थे कि धरती का स्पर्श न कर सके। विनम्रता ने दिग्विजयी पण्डित का वरण तो किया, पर जयपत्र के स्वाभिमान का मद नयनों से उतर न सका। मन कहता था कि आलिंगन करना चाहिये, पर जन-समूह के विनम्र संकोच ने ऐसा करने नहीं दिया। युवक गौरांग ने अपना परिचय दिया। केशव काश्मीरी ने शास्त्रार्थ करने की इच्छा प्रकट की। निमाई पण्डित चैतन्य का न्याय-पाण्डित्य तो चारों ओर ख्याति की पराकाष्ठा पर था, पर उन्होंने शास्त्रार्थ की बात न चलाकर केशव काश्मीरी से कलिमलहारिणी, अच्युतचरणतरंगिणी भगवती गंगा जी की महिमा वर्णन करने का विनम्रतापूर्वक निवेदन किया। केशव काश्मीरी ने आशुकवित्व शक्ति के सहारे गंगा जी के स्वरूप-चित्रण में सौ श्लोक नये-नये रचकर तुरंत सुना दिये, पर इतने से ही उन्हें संतोष न हुआ। उन्होंने गौरांग से अपने श्लोकों में दोष निकालने के लिये कहा।
महाप्रभु ने दोष बतलाये। उनके मुख से उचित और युक्तिसंगत दोष सुनकर वे आश्चर्यचकित हो गये। उनका मुख लज्जा से लाल होकर अवनत हो गया। मन में सरस्वती का स्मरण किया। अपनी हार पर उन्हें बड़ी ग्लानि हो रही थी। सरस्वती के स्मरण से उन्हें ज्ञात हुआ कि श्री चैतन्य असाधारण अलौकिक पुरुषोत्तम ही हैं। उनकी विद्वत्ता का मद उतर गया। ज्ञान भक्ति के सामने विनत हो गया। केशव काश्मीरी ने गौरांग के चरण पकड़कर आत्मोद्धार की भिक्षा मांगी। जनसमूह ने जयध्वनि की।
श्री गौरांग ने कहा कि- "भविष्य में न तो आप शास्त्रार्थ करें और न किसी व्यक्ति को हराने की चेष्टा करें। श्रीकृष्ण के चरण-चिन्तन-माधुर्य का आस्वादन ही भवसागर से पार उतरने का सहज उपाय है। उनकी भक्ति ही मुक्ति का वैदिक मार्ग है। भगवान हरि ही समस्त शास्त्रों के मूल हैं। आगम-निगम सभी शास्त्र श्रीकृष्ण की महिमा का कीर्तन गाते हैं। वे ही जगत के जीवनस्वरूप हैं। जिस व्यक्ति की मतिगति श्रीकृष्ण चरण में नहीं है, वह सब शास्त्रों का ज्ञाता होकर भी शास्त्र के वास्तविक रस का आस्वादन नहीं कर सकता। श्रीकृष्ण का भजन छोड़कर जो व्यक्ति शास्त्र की आलोचना में ही कुशल है, वह निरे गदहे के समान ज्ञान-भार का वहन करता है। सिद्धवर्णों का समाम्नाय तो श्रीकृष्ण की ही कृपा-दृष्टि में होता है।" केशव काश्मीरी श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य हो गये। श्रीकृष्ण के परमानुराग के किले में आप-से-आप बंद हो गये। श्रीकृष्ण-भक्ति की माधुरी के प्रचार में उन्होंने महान योगदान दिया।
केशव काश्मीरी के समय में भारत का अधिकांश म्लेच्छाक्रान्त था। स्थान-स्थान पर वैदिक परम्परा की कड़ी विधर्मियों द्वारा तोड़ने का दुस्साहस चल रहा था। भगवान श्रीकृष्ण के पवित्र लीला-क्षेत्र मथुरामण्डल को भ्रष्ट करने की चेष्टा में यवनों का बहुत बड़ा हाथ था। कलिन्दनन्दिनी के तटस्थ विश्राम घाट पर उनका एक समूह कुतर्कों तथा अन्यान्य उपायों से हिन्दुओं को धर्मच्युत होने के लिये विवश कर रहा था। उत्तरापथ की हिन्दू जनता ने मथुरामण्डल की पवित्रता को अक्षुण्ण रखने के लिये दिग्विजयी महापण्डित परम भागवत केशव काश्मीरी का दरवाज़ा खटखटाया। केशव काश्मीरी ने सदल-बल उपस्थित होकर विश्राम घाट पर अधिकार करके उन लोगों को मथुरामण्डल से बाहर कर दिया। उनके षड़यंत्र का जनाजा निकाल दिया और ब्रजभूमि की भक्तिमती पवित्रता और भगवदीयता का संरक्षण किया।