बात उस समय की है, जब राजा और प्रजा के बीच पिता पुत्र जैसा रिश्ता हुआ करता था| प्रजा जब राजा को अथाह सम्मान देती थी और राजा को प्रजा से अपने अपनी संतान की भांति प्रेम होता था| ऐसे ही एक राजा थे राजा बलबीर सिंह जिनके तीन पुत्र थे, सबसे बड़ा पुत्र था महेंद्र, मंझला पुत्र काशी, और सबसे छोटा पुत्र देवेंद्र |
महेंद्र से राजा को सर्वाधिक लगाव था और देवेंद्र महारानी का प्रिया था परंतु काशी के हिस्से में ना पिता का प्रेम था, न ही माता की ममता का वह भाग जिसका वह अधिकारी था| अपने पुत्रों को राजा ने राज्यसभा में भी तरह परिपक्व होने से पहले ही स्थान दे दिया था, सबसे बड़े राजकुमार युवराज की गद्दी मिली, सबसे छोटा बेटा महामंत्री की छत्रछाया में रहने लगा और मंझले पुत्र काशी के साथ यहां भी अन्याय ही हुआ| राज सभा में उसे कोई स्थान नहीं दिया गया, अतः अपनी इच्छा अनुसार उसने सेना में शामिल होने की इच्छा जाहिर की| राजा को इस पर तनिक भी आपत्ति ना हुई और उसने सेनापति से कहलवा कर काशी को सेना में भर्ती करवा लिया| राजा का पुत्र होने के नाते काशी को कुछ विशेष अधिकार दिए जा सकते थे, कुछ बड़ा ओहदा दिया जा सकता था, टोली नायक बनाया जा सकता था लेकिन वह सिर्फ एक मामूली सिपाही बना| लोग कहते थे की राजा को अपने मंझला पुत्र प्रिय नहीं| यह बातें काशी के कानों तक भी कई बार आ चुकी थी, परंतु उसे उन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता था| उसके लिए सर्वाधिक सम्माननीय मनुष्य अगर कोई पृथ्वी पर था, तो वह उसके पिता और सबसे ज्यादा प्रेम उसे अपनी मां से था| उसका प्रेम किसी डोर में बंधा नहीं था| काशी को पता था की प्रेम और लगाव में क्या अंतर है, उसे मोह नहीं था| काशी के जीवन में मोह माया का कोई स्थान न था| साधारण जीवन और उच्च विचार रखने वाल वह एक अद्भुत युवक था| उसकी योग्यता, कूटनीति, उसकी रणनीतियां, युद्ध कौशल और आचार- व्यवहार, सब प्रशंसनीय थे|
भले ही सेना में उसे कोई ऊंचा पद न मिला हो लेकिन बड़ा आदर व सम्मान और प्रेम उसे सिपाहियों से मिलता था| इसलिए नहीं कि वह राजा का पुत्र था बल्कि उसके व्यवहार के कारण, उसके कौशल के कारण। काशी का अधिकांश समय सिपाहियों के साथ युद्ध अभ्यास करने में ही निकल जाता था, उसे राज्यसभा में सम्मिलित होने का ज्यादा मौका नहीं मिलता और ना ही उसे उसमें कुछ रुचि थी|
कहते हैं जीवन के जिस मोड़ पर हमें कुछ अहम फैसले करने होते हैं, उसे मोड पर ईश्वर हमारे जीवन गति को क्षीण कर देते हैं। राजा बलबीर सिंह अब बूढ़े हो चले थे और उम्र के इस पड़ाव पर उन्हे निर्णय लेना था कि उनके बाद उनके राज्य की देखभाल और सुरक्षा करने में उनके पुत्र सक्षम है या नहीं, तो उन्होंने अपने एक पुराने दोस्त मित्र से भेंट करी और उसे अपनी मंशा जाहिर की।
राजा ने कहा कि मैं तो तय कर चुका था कि मेरा मेरे बाद मेरा बड़ा पुत्र महेंद्र ही मेरे सिहांसन पर बैठेगा परंतु न जाने क्यों अब मन कुछ अशांत सा होने लगा है। हर समय व्याकुल रहता हूं, राज्य की चिंता लगी रहती है। मन समझा नहीं पता की क्या करूं तो मित्र मुझे बताओ कि इस समस्या का समाधान कैसे करूं। इस विषय पर इन दोनों ने कुछ देर बातें करी और फिर राजा वापस लौट आए।
आने के दो-तीन दिन बाद राजा की तबियत बिगड़ने लगी, हकीम ने कहा- "महाराज आपको अभी एक माह तक आराम की जरूरत है। राज्य के कार्यभार एक माह के लिए वह अपने कंधों पर से उतार दें और युवराज को मौका दें। इसी बहाने युवराज को भी कुछ अनुभव हो जाएगा और वह भी आने वाले समय में आपका हाथ बंटा पाएंगे। आखिर आपके बाद उन्हें ही तो सब कुछ संभालना है", यह सुनकर राजा ने कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं दी बस मुस्कुरा कर लेट गए। थोड़ी ही देर बाद राजा ने राज वैद्य को वापस बुलाया और उनसे कहा-"मेरे परिवार को यहाँ बुलाया जाए और जैसा मैं कहता हूं मेरी बीमारी के बारे में उन्हें बिलकुल वैसा ही बताया जाए।"
राजा के आदेश अनुसार कुछ ही देर में उनके परिवार को बुलाया गया और राज वैद्य ने राजा की बीमारी के बारे में बताया, "महाराज की बीमारी गंभीर है, महाराज अभी अचेत हैं, ना ही बोल सकते, न कुछ सुन सकते, न कुछ देख सकते हैं, और इन्हें कब होश आएगा यह कहना कठिन है।" इतना कहकर राज वैद्य कक्ष से निकल गए।
परिवारजन मोन खड़े थे। इस चुप्पी को देवेंद्र ने तोड़ा उसने महेंद्र की तरफ देखते हुए कहा, "बड़े भैया लगता है पिताजी का अंतिम समय निकट है अब आपको ही सब संभालना है।" महेंद्र ने उल्लास भरे स्वर में कहा, "हां भाई हां भाई, संभालना तो हमें ही है। सबसे पहले मुझे राज्यसभा में कुछ परिवर्तन करने...", इसके आगे वह कुछ बोल पाता बीच में देवेंद्र बोल पड़ा, "महामंत्री के पद को मेरा ही रहने दीजिएगा बड़े भैया।" और यह कहकर वह दोनों मंद मंद हंसे और फिर सब इधर-उधर की बातें करने लगे।
केवल एक सदस्य को छोड़कर, वह था काशी। जो वैद्य की बात सुनते ही अपने पिता के चरणों से लिपट गया था और अब भी जड़वत उसी मुद्रा में बैठा हुआ था। उसके आंसू रह-रह कर पिता के पैरों पर गिर रहे थे, मानो उसकी सारी पूंजी कोई उससे छीन रहा हो। अब राजा से रहा न गया, वह एकदम उठ बैठे, और काशी को गले से लगा लिया...
-तोमर