निम्बार्काचार्य 'वैष्णव सम्प्रदाय' के प्रवर्तक आचार्य के रूप में प्रख्यात हैं। यह ज्ञातव्य है कि वैष्णवों के प्रमुख चार सम्प्रदायों में 'निम्बार्क सम्प्रदाय' भी एक है। इसको 'सनकादिक सम्प्रदाय' भी कहा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि निम्बार्क दक्षिण भारत में गोदावरी नदी के तट पर वैदूर्य पत्तन के निकट (पंडरपुर) अरुणाश्रम में श्री अरुण मुनि की पत्नी श्री जयन्ति देवी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। कतिपय विद्वानों के अनुसार द्रविड़ देश में जन्म लेने के कारण निम्बार्क को 'द्रविड़ाचार्य' भी कहा जाता था।
द्वैताद्वैतवाद' या 'भेदाभेदवाद' के प्रवर्तक आचार्य निम्बार्क के विषय में सामान्यत: यह माना जाता है कि उनका जन्म 1250 ई. में हुआ था। श्रीनिम्बार्काचार्य की माता का नाम जयन्ती देवी और पिता का नाम श्री अरुण मुनि था। इन्हें भगवान सूर्य का अवतार कहा जाता है। कुछ लोग इनको भगवान के सुदर्शन चक्र का भी अवतार मानते हैं तथा इनके पिता का नाम श्री जगन्नाथ बतलाते हैं। वर्तमान अन्वेषकों ने अपने प्रमाणों से इनका जीवन-काल ग्यारहवीं शताब्दी सिद्ध किया है। इनके भक्त इनका जन्म काल द्वापर का मानते हैं। इनका जन्म दक्षिण भारत के गोदावरी के तट पर स्थित वैदूर्यपत्तन के निकट अरुणाश्रम में हुआ था।
ऐसा प्रसिद्ध है कि इनके उपनयन के समय स्वयं देवर्षि नारद ने इन्हें श्री गोपाल-मन्त्र की दीक्षा प्रदान की थी तथा श्रीकृष्णोपासना का उपदेश दिया था। इनके गुरु देवर्षि नारद थे तथा नारद के गुरु श्रीसनकादि थे। इसलिये इनका सम्प्रदाय 'सनकादि सम्प्रदाय' के नाम से प्रसिद्ध है। इनके मत को 'द्वैताद्वैतवाद' कहते हैं। निम्बार्क का जन्म भले ही दक्षिण में हुआ हो, किन्तु उनका कार्य क्षेत्र मथुरा रहा। मथुरा भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि रही, अत: भारत के प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्रों में मथुरा का अपना निजी स्थान रहता चला आया है। निम्बार्क से पहले मथुरा में बौद्ध और जैनों का प्रभुत्व हो गया था। निम्बार्क ने मथुरा को अपना कार्य क्षेत्र बनाकर यहाँ पुन: भागवत धर्म का प्रवर्तन किया।
वैष्णवों के प्रमुख चार सम्प्रदायों में से एक सम्प्रदाय है- 'द्वैताद्वैत' या 'निम्बार्क सम्प्रदाय'। निश्चित रूप से यह मत बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है। श्रीनिम्बार्काचार्य जी ने परम्परा प्राप्त इस मत को अपनी प्रतिभा से उज्ज्वल करके लोक प्रचलित किया, इसी से इस द्वैताद्वैत मत की 'निम्बार्क सम्प्रदाय' के नाम से प्रसिद्धि हुई।
ब्रह्म सर्वशक्तिमान हैं और उनका सगुणभाव ही मुख्य है। इस जगत के रूप में परिणत होने पर भी वे निर्विकार हैं। जगत से अतीत रूप में वे निर्गुण हैं। जगत की सृष्टि, स्थिति एवं लय उनसे ही होते हैं। वे जगत के निमित्त एवं उपादान कारण हैं। जगत उनका परिणाम है और वे अविकृत परिणामी हैं। जीव अणु है और ब्रह्म का अंश है। ब्रह्म जीव तथा जड़ से अत्यन्त पृथक अपृथक भी हैं। जीव भी ब्रह्म का परिणाम तथा नित्य है। इस सृष्टिचक्र का प्रयोजन ही यह है कि जीव भगवान की प्रसन्नता एवं उनका दर्शन प्राप्त करे। जीव के समस्त क्लेशों की निवृत्ति एवं परमानन्द की प्राप्ति भगवान की प्राप्ति से ही होगी। ब्रह्म के साथ अपने तथा जगत के अभिन्नत्व का अनुभव ही जीव की मुक्तावस्था है। यह भगवत्प्राप्ति से ही सम्पन्न होती है। उपासना द्वारा ही ब्रह्म की प्राप्ति होती है। ब्रह्म का सगुण एवं निर्गुण दोनों रूपों में विचार किया जा सकता है, किंतु जीव की मुक्ति का साधन भक्ति ही है। भक्ति से ही भगवान की प्राप्ति होती है। सत्कर्म एवं सदाचार के द्वारा शुद्धचित्त में जब भगवत्कथा एवं भगवान के गुणगण-श्रवण से भगवान की प्रसन्नता प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत होती है, तब मुमुक्षु पुरुष सद्गुरु की शरण ग्रहण करता है। गुरु द्वारा उपदिष्ट उपासना द्वारा शुद्धचित्त में भक्ति का प्राकट्य होता है। यही भक्ति जीव को भगवत्प्राप्ति कराकर मुक्त करती है।
थोड़े में द्वैताद्वैत मत का सार यही है। भगवान नारायण ने हंसस्वरूप से ब्रह्मा जी के पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत्कुमार को इसका उपदेश किया। सनकादि कुमारों से इसे देवर्षि नारद ने पाया और देवर्षि ने इसका उपदेश निम्बार्काचार्य जी को किया। यह इस सम्प्रदाय की परम्परा है। निम्बार्काचार्य ने अपने ब्रह्मसूत्रों के भाष्य में "अस्मद् गुरवे नारदाय" कहा है। सनकादि कुमारों का भी उन्होंने स्मरण किया है, उसी ग्रन्थ में गुरु परम्पराओं में। देवर्षि नारद ने निम्बार्काचार्य को "गोपालमंत्र" की दीक्षा दी, ऐसी मान्यता है।
भक्तों के मत से द्वापर में और सम्प्रदाय के कुछा विद्वानों के मत से विक्रम की पांचवीं शताब्दी में निम्बार्काचार्य का प्रादुर्भाव हुआ। दक्षिण भारत में वैदूर्यपत्तन परम पवित्र तीर्थ है। इसे 'दक्षिणकाशी' भी कहते हैं। यही स्थान एकनाथ की जन्मभूमि है। यहीं श्रीअरुणमुनि जी का अरुणाश्रम था। अरुणमुनि की पत्नी जयन्तीदेवी की गोद में जिस दिव्य कुमार का आविर्भाव हुआ, उसका नाम पहले 'नियमानन्द' हुआ और यही आगे श्रीनिम्बार्काचार्य जी के नाम से प्रख्यात हुए। निम्बार्काचार्य के जीवनवृत्त के विषय में इससे अधिक ज्ञात नहीं है। वे कब गृह त्यागकर ब्रज में आये, इसका कुछ पता नहीं है। ब्रज में श्रीगिरिराज गोवर्धन के समीप ध्रुवक्षेत्र में उनकी साधना-भूमि है।
एक दिन समीप के स्थान से एक दण्डी महात्मा आचार्य के समीप पधारे। दो शास्त्रज्ञ महापुरुष परस्पर मिले तो शास्त्रचर्चा चलनी स्वाभाविक थी। समय का दोनों में से किसी को ध्यान नहीं रहा। सांयकाल के पश्चात आचार्य ने अतिथि यति से प्रसाद ग्रहण करने के लिये निवेदन किया। सूर्यास्त होने के पश्चात नियमत: यति जी भिक्षा ग्रहण नहीं कर सकते थे। उन्होंने असमर्थता प्रकट की। परन्तु आचार्य जी नहीं चाहते थे कि उनके यहाँ आकर एक विद्वान अतिथि उपोषित रहे। आश्रम के समीप एक नीम का वृक्ष था, सहसा उस वृक्ष पर से चारों ओर प्रकाश फैल गया। ऐसा लगा जैसे नीम के वृक्ष पर सूर्यनारायण प्रकट हो गये हैं। कोई नहीं कह सकता कि आचार्य के योगबल से भगवान सूर्य वहाँ प्रकट हो गये थे या श्रीकृष्णचन्द्र का कोटिसूर्यसमप्रभ सुदर्शन चक्र, जिसके आचार्य मूर्त अवतार थे, प्रकट हो गया था। अतिथि के प्रसाद ग्रहण कर लेने पर सूर्यमण्डल अदृश्य हो गया। इस घटना से आचार्य निम्बादित्य या निम्बार्क नाम से विख्यात हुए। आचार्य का यह आश्रम ‘निम्बग्राम’ कहा जाता है। यह गोवर्धन के समीप का निम्बग्राम है, मांट के समीप का नीमगांव नहीं। वे यति जी उस समय जहाँ आश्रम बनाकर रहते थे, वहाँ आज 'यतिपुरा' अथवा 'जतिपुरा' नामक ग्राम है।
निम्बार्काचार्य का वेदान्तसूत्रों पर भाष्य 'वेदान्तसौरभ' और 'वेदान्तकामधेनुदशश्लोक' ये दो ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं। ये दोनों ग्रन्थ ही अत्यन्त संक्षिप्त हैं। इनके अतिरिक्त गीताभाष्य, कृष्णस्तवराज, गुरुपरम्परा, वेदान्ततत्वबोध, वेदान्तसिद्धान्तप्रदीप, स्वधर्माध्वबोध, ऐतिह्यतत्वसिद्धान्त, राधाष्टक आदि कई ग्रन्थ आचार्य ने लिखे थे।
निम्बार्काचार्य के शिष्य हुए 'निवासाचार्य'। इन्होंने आचार्य के ब्रह्मसूत्र भाष्य पर 'वेदान्तकौस्तुभ' नामक ग्रन्थ लिखकर उसकी व्याख्या की। इस वेदान्तकौस्तुभ की टीका आगे चलकर काश्मीरी केशव भट्टाचार्य जी ने की। श्रीनिवासाचार्य के पश्चात शिष्य परम्परा से ग्यारहवें आचार्य हुए देवाचार्य जी। इन्होंने 'वेदान्तजाह्नवी' तथा 'भक्तिरत्नावली' नामक दो ग्रन्थ लिखे, जिनका सम्प्रदाय में अत्यन्त सम्मान है। देवाचार्य के दो शिष्य हुए- सुन्दर भट्टाचार्य तथा व्रजभूषण देवाचार्य। इन दोनों आचार्यों की परम्परा आगे चलकर विस्तीर्ण हुई। सुन्दर भट्टाचार्य की शिष्य परम्परा में सत्रह भट्टाचार्य आचार्य हुए। इनमें सोलहवें काश्मीरी केशव भट्टाचार्य हुए। काश्मीरी केशव भट्टाचार्य के शिष्य भट्टजी ने 'युगल-शतक' की रचना की। यही ग्रन्थ 'आदि वाणी' कहा जाता है। भट्टजी के भ्रातृवंशज गोस्वामी अब भी निम्बार्क सम्प्रदाय की सीधी परम्परा में ही हैं। भट्टजी के प्रधान शिष्य हरिव्यास हुए। इनके अनुयायी आगे चलकर अपने को 'हरिव्यासी' कहने लगे। हरिव्यास के बारह शिष्य हुए, जिनमें शोभूरामदेवाचार्य अपनी प्रमुख विशेषताओं के कारण उल्लेखनीय हैं। इनमें से शोभूरामदेवाचार्य की शिष्य परम्परा में चतुर-चिन्तामणि की परम्परा इस समय देश में अधिक व्यापक है।
परशुरामदेवाचार्य महाराज की परम्परा को ही सर्वेश्वर की अर्चा प्राप्त है और निम्बार्क सम्प्रदाय के पीठाधिपति इसी परम्परा के आचार्य होते हैं। ब्रज में जो रासलीला का वर्तमान में प्रचार है, वह घमण्डदेवाचार्य की भावुकता से प्रादुर्भूत परम्परा है। श्रीलपरागोपालदेवाचार्य जी के शिष्य श्रीगिरिधारीशरणदेवाचार्य जी जयपुर, ग्वालियर आदि अनेकों राजकुलों के गुरु हुए हैं। श्रीहरिव्यासदेव जी की यह शिष्य परम्परा है। उनके भ्रातृवंशज अपने को 'हरिव्यासी' नहीं मानते। वे निम्बार्क सम्प्रदाय की सीधी परम्परा में हैं। श्री देवाचार्य जी के दूसरे शिष्य श्रीव्रजभूषणदेवाचार्य जी की परम्परा में श्रीरसिकदेव जी तथा श्रीहरिदास जी हुए हैं। ऐसी भी मान्यता है कि महाकवि जयदेव इसी परम्परा में हैं। श्रीरसिकदेव जी के आराध्य श्रीरसिकविहारी जी तथा श्रीहरिदास जी के आराध्य श्रीबांकेबिहारी जी हैं। श्रीहरिदास जी के अनुयायियों की एक परम्परा के लोग अपने को 'हरिदासी' कहते हैं। इनका मुख्य प्रणामी सम्प्रदाय के आद्याचार्य श्रीप्राणनाथ जी की जीवनी में उनको हरिदास जी का शिष्य कहा गया है। इस प्रकार 'कृष्ण-प्रणामी' परम्परा भी निम्बार्क सम्प्रदाय की हरिदास जी की परम्परा की ही शाखा है। इस प्रणामी सम्प्रदाय का मुख्य पीठ पन्ना, बुन्देलखण्ड में है।
निम्बार्काचार्य जी तथा उनकी परम्परा के अधिकांश आचार्यों की यह प्रधान विशेषता रही है कि उन्होंने दूसरे आचार्यों के मत का खण्डन नहीं किया है। देवाचार्य जी ने ही अपने ग्रन्थों में 'अद्वैतमत' का खण्डन किया है। श्रीनिम्बार्काचार्य जी ने प्रस्थानत्रयी के स्थान पर प्रस्थानचतुष्ट्य को प्रमाण माना और उसमें भी चतुर्थ प्रस्थान 'श्रीमद्भागवत' को परम प्रमाण स्वीकार किया। अनेक वीतराग, भावुक भगवद्भक्त इस परम्परा में सदा ही रहे हैं।