महात्मा सरयूदास का जन्म संवत 1904 विक्रमी में गुजरात के पारडी नामक गांव में हुआ था। उनका जन्म-नाम 'भोगीलाल' था। बचपन में उन्हें अपने पड़ोसी बजा भगत का सत्संग मिला। इसका परिणाम यह हुआ कि उनके भक्ति मूलक संस्कार उत्तरोत्तर विकसित होने लगे। सरयूदास जी की शिक्षा-दीक्षा बहुत थोड़ी थी, अन्तर में भगवान की भक्ति तो जन्म-जन्म से ही परिव्याप्त थी। महात्मा सरयूदास के माता-पिता तथा परिवार के अन्य लोग यद्यपि जीवित थे, फिर भी वे अपने मामा के ही घर पर रहकर उनके व्यापार का कार्य संभालते थे। कुछ दिनों के बाद सरयूदास का विवाह हो गया। पर उनकी पत्नी अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकी।
एक दिन उनके गांव में कुछ साधु आये और एक सघन बरगद के पेड़ के नीचे सत्संग आरम्भ हो गया, भोगीलालजी का साधुओं से सम्पर्क बढ़ा, ईश्वर प्रेरणा से उन्होंने उनमें से एक साधु से दीक्षा ले ली। संत ने उनका नाम सरयूदास रखा। अनेक तीर्थ स्थानों का भ्रमण करके सरयूदास अहमदाबाद के प्रेम दरवाजे के मन्दिर में रहने लगे। इस पवित्र स्थान पर उन्होंने भगवद कथा आरम्भ की। नित्य प्रति भक्तों की भीड़ बढ़ने लगी। लोगों को भक्ति परक उपदेश देना, परोपकार करना तथा दीन-दुःखियों की सेवा करना सरयूदास जी के जीवन का आदर्श हो गया।
★ महात्मा सरयूदास बड़े विनम्र और क्षमाशील महात्मा थे। एक बार वे रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे में बैठकर डाकोर की यात्रा कर रहे थे, एक पठान ने उनको छेड़ने के लिये उन्हीं की ओर पैर फैलाना आरम्भ किया। सरयूदास ने शीघ्रता से उसके पैर पकड़ कर सरलता और निष्कपटता से कहा कि "पीड़ा हो रही हो तो दबा दूं।" पठान ने उनसे अपने अपराध के लिये क्षमा मांगी।
★सरयूदासजी महाराज बड़े त्यागी थे, उन्होंने तृष्णा और लोभ को कभी अपने पास नहीं फटकने दिया। वे सदा रुखा सूखा सादा भोजन करते थे। एक सज्जन डब्बे में रखकर उनका भोजन लाया करते थे। एक दिन महाराजजी ने डब्बा खोलकर देखा तो रोटी में घी अधिक लगा हुआ था, उन्होंने डब्बे को बंदकर अन्नपूर्णा को प्रणाम किया और उपवास किया।
★ एक बार वे एक प्रसिद्ध सेठ से मिलने गये। पहले उसने कोई साधारण व्यक्ति समझकर उनसे मिलना अस्वीकार कर दिया; पर बाद में बंगले से बाहर निकलने पर उनको देखते ही चरणों पर गिरकर क्षमा मांगी और उनकी त्यागनिष्ठा देखकर वह चकित हो गया। महाराज ने कुछ विद्यार्थियों और ब्राह्मणों को भोजन देते रहने के लिये उसको आदेश दिया।
★ महात्मा सरयूदास बड़े निष्ठावान भक्त थे। सदा ईश्वर-चिन्तन में मस्त रहते थे। एक दिन वे सरिता-स्नान करके लौटते समय एक रोगी की सेवा में लग गये, उनको वहाँ अधिक समय लग गया। इधर मन्दिर में कथा सुनने वालों की भीड़ बढ़ने लगी। महाराज अपने समय के बड़े पक्के थे, भगवान ने भक्त का यश बढ़ाया। कहते हैं कि वे स्वयं प्रकट होकर कथा कहने लगे। कथा समाप्त होने पर लोग अपने-अपने घर जाने लगे। महाराज जल्दी-जल्दी कथा मण्डप की ओर जा रहे थे, महाराज ने कुछ श्रोताओं से अपनी अनुपस्थिति के लिये क्षमा मांगी। उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वे तो मेरी ही कथा सुनकर लौट रहे हैं। उन्होंने मन ही मन भगवान का स्मरण किया, प्रेम से गद्गद हो गये।
संवत 1868 विक्रमी में महात्मा सरयूदास ने साकेतलोक की प्राप्ति की।