Swami Prabhupada in Hindi Motivational Stories by Renu books and stories PDF | स्वामी प्रभुपाद

The Author
Featured Books
Categories
Share

स्वामी प्रभुपाद

स्वामी प्रभुपाद प्रसिद्ध गौड़ीय वैष्णव गुरु तथा धर्मप्रचारक थे। वेदान्त, कृष्ण भक्ति और इससे संबंधित क्षेत्रों पर आपने विचार रखे और कृष्णभावना को पश्चिमी जगत में पहुँचाने का कार्य किया। ये भक्तिसिद्धांत ठाकुर सरस्वती के शिष्य थे, जिन्होंने इनको अंग्रेज़ी के माध्यम से वैदिक ज्ञान के प्रसार के लिए प्रेरित और उत्साहित किया। स्वामी प्रभुपाद ने "इस्कॉन" (ISKCON) को स्थापित किया और कई वैष्णव धार्मिक ग्रंथों का प्रकाशन और संपादन किया।

स्वामी प्रभुपाद का जन्म 1896 ईं. में भारत के कोलकाता नगर में हुआ था। इनके बचपन का नाम अभय चरण था। पिता का नाम 'गौर मोहन डे' और माता का नाम 'रजनी' था। इनके पिता एक कपड़ा व्यापारी थे। उनका घर उत्तरी कोलकाता में 151, हैरिसन मार्ग पर स्थित था। गौर मोहन डे ने अपने बेटे अभय चरण का पालन पोषण एक कृष्ण भक्त के रूप में किया। अभय चरण ने 1922 में अपने गुरु महाराज श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी से भेंट की। इसके ग्यारह वर्ष बाद 1933 में वे प्रयाग में उनके विधिवत दीक्षा प्राप्त शिष्य हो गए।

स्वामी प्रभुपाद से उनके गुरु श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने कहा था कि वे अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से वैदिक ज्ञान का प्रसार करें। आगामी वर्षों में श्रील प्रभुपाद ने 'श्रीमद्भगवद्गीता' पर एक टीका लिखी, गौड़ीय मठ के कार्य में सहयोग दिया। 1944 ई. में श्रील प्रभुपाद ने बिना किसी की सहायता के एक अंग्रेज़ी पाक्षिक पत्रिका आरंभ की, जिसका संपादन, पाण्डुलिपि का टंकण और मुद्रित सामग्री के शोधन का सारा कार्य वे स्वयं करते थे। बेहद संघर्ष और अभावों के बावजूद श्रील प्रभुपाद ने इस पत्रिका को बंद नहीं होने दिया। अब यह पत्रिका "बैक टू गॉडहैड" पश्चिमी देशों में भी चलाई जा रही है और तीस से अधिक भाषाओं में छप रही है।

श्रील प्रभुपाद के दार्शनिक ज्ञान एवं भक्ति की महत्ता पहचान कर गौड़ीय वैष्णव समाज ने 1947 ईं. में उन्हें भक्ति वेदान्त की उपाधि से सम्मानित किया।

सन 1959 में संन्यास ग्रहण के बाद भक्ति वेदान्त स्वामी प्रभुपाद ने वृन्दावन, मथुरा में 'श्रीमद्भागवत पुराण' का अनेक खंडों में अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। आरंभिक तीन खंड प्रकाशित करने के बाद सन 1965 में अपने गुरुदेव के अनुष्ठान को संपन्न करने अमेरिका को निकले। जब वे मालवाहक जलयान द्वारा पहली बार न्यूयॉर्क नगर में आए तो उनके पास एक पैसा भी नहीं था। अत्यंत कठिनाई भरे क़रीब एक वर्ष के बाद जुलाई, 1966 में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ ('इस्कॉन' ISKCON) की स्थापना की। सन 1968 में प्रयोग के तौर पर वर्जीनिया, अमेरिका की पहाड़ियों में नव-वृन्दावन की स्थापना की। दो हज़ार एकड़ के इस समृद्ध कृषि क्षेत्र से प्रभावित होकर उनके शिष्यों ने अन्य जगहों पर भी ऐसे समुदायों की स्थापना की। 1972 में टेक्सस के डलास में गुरुकुल की स्थापना कर प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की वैदिक प्रणाली का सूत्रपात किया।

14 नवंबर, 1977 ईं को 'कृष्ण-बलराम मंदिर', वृन्दावन धाम में अप्रकट होने के पूर्व तक श्रील प्रभुपाल ने अपने कुशल मार्ग निर्देशन के कारण 'इस्कॉन' को विश्व भर में सौ से अधिक मंदिरों के रूप में विद्यालयों, मंदिरों, संस्थानों और कृषि समुदायों का वृहद संगठन बना दिया। उन्होंने 'अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ' अर्थात्‌ 'इस्कॉन' की स्थापना कर संसार को कृष्ण भक्ति का अनुपम उपचार प्रदान किया। आज विश्व भर में इस्कॉन के आठ सौ से ज्यादा केंद्र, मंदिर, गुरुकुल एवं अस्पताल आदि प्रभुपाद की दूरदर्शिता और अद्वितीय प्रबंधन क्षमता के जीते जागते साक्ष्य हैं।

श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों की प्रामाणिकता, गहराई और उनमें झलकता उनका अध्ययन अत्यंत मान्य है। कृष्ण को सृष्टि के सर्वेसर्वा के रूप में स्थापित करना और अनुयायियों के मुख पर "हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे" का उच्चारण सदैव रखने की प्रथा इनके द्वारा स्थापित हुई। 1950 ईं. में श्रील प्रभुपाद ने गृहस्थ जीवन से अवकाश लिया और फिर वानप्रस्थ जीवन व्यतीत करने लगे, जिससे वे अपने अध्ययन और लेखन के लिए अधिक समय दे सके। वे वृन्दावन धाम आकर बड़ी ही सात्त्विक परिस्थितियों में मध्यकालीन ऐतिहासिक श्रीराधा दामोदर मन्दिर में रहे। वहाँ वे अनेक वर्षों तक गंभीर अध्ययन एवं लेखन में संलग्न रहे। 1959 ई. में उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया था। श्रीराधा दामोदर मन्दिर में श्रील प्रभुपाद ने अपने जीवन के सबसे श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का आरंभ किया। यह ग्रंथ था- "अठारह हज़ार श्लोक संख्या के श्रीमद्भागवत पुराण का अनेक खण्डों में अंग्रेज़ी में अनुवाद और व्याख्या"।

श्रील प्रभुपाद जी का निधन 14 नवम्बर, 1977 में प्रसिद्ध धार्मिक नगरी मथुरा के वृन्दावन धाम में हुआ