शारीरिक विकलांगता किसी का मुंह नहीं देखती ना ही किसी में कोई लिंग भेद ही करती है. यहाँ मैं विकलांगता शब्द का प्रयोग कर रही हूँ जो देखने, पढ़ने, सुनने, आदि में कठोर शब्द है बहुत से लोग कहेंगे मुझे दिव्यांग शब्द का प्रयोग करना चाहिए था. लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया क्यूंकि सच हमेशा कड़वा एवं कठोर ही होता हैं. मेरे विचार से जिन लोगों का केवल कोई अंग खराब हो अथवा किसी हादसे में खराब हो गया हो या कट गया हो केवल उनको दिव्यांग कहना सही हो सकता है. लेकिन जो लोग मानसिक और शारीरिक दोनों ही रूप से ठीक ना हों उन्हें विकलांग कहना ही सही होगा, ऐसा मेरा विचार है. हाँ तो मैं यह कह रही थी कि ऐसी विकलांगता कोई लिंग देखकर नहीं आती. फिर भी जिन घरों में दुर्भाग्य से ऐसा कोई व्यक्ति होता है ख़ासकर कोई वयस्क 'महिला या पुरुष' उस घर के सदस्य उस व्यक्ति से परेशान हो ही जाते हैं. फिर चाहे वह उनका अपना बच्चा ही क्यूँ ना हो. उसके भविष्य की चिंता घर के सभी सदस्यों को मानसिक रूप से सदा ही विचलित रखती है. उपर से शारीरिक श्रम उन्हें ना चाहते हुए भी अत्यधिक चिढ़चिढ़ा और गुस्सैल बना देता है, जो अकसर उस बीमार व्यक्ति पर गाहे बगाहे निकल जाता है. बात अगर केवल शारीरिक विकलांगता कि हो, तब भी लोग यदि आर्थिक रूप से बहुत सक्षम है तो ही कोई सहयोगी रखकर काम चला लेते हैं. लेकिन यदि व्यक्ति शारीरिक और मानसिक दोनों ही रूप से विकलांग हो जाए तो परिवार के लिए यह समस्या एक विराट रूप धारण कर लेती है. और सहयोगी रखने के बाद भी उन्हें उनकी इस समस्या से छुटकारा नहीं मिल पाता. हर कोई उस व्यक्ति की ज़िम्मेदारी से भागना चाहता है और अंत में वृद्धावस्था में माँ -बाप को ही उस बच्चे का ख्याल रखना पड़ता है. देखभाल करनी पड़ती है. समस्या तो तब अधिक बढ़ जाती है जब लोग ऐसे असहाय रोगियों के लिए भी यह कहने लग जाते हैं कि ‘अरे लड़की है, ना तो समस्या ज्यादा है 'हर माह रजो धर्म की समस्या' और गंदगी ही गंदगी.’ तो क्या जिनके घर में वयस्क पुरुष है उनके घर में किसी प्रकार की गंदगी नहीं होती....? या हो सकती... तो फिर ऐसे मामलों में भी स्त्री ही बेचारी क्यों...? स्त्री की इस समस्या को तो ऑपरेशन के माध्यम से खत्म किया जा सकता है. लेकिन पुरुषों का क्या ?...वैसे देखा जाए तो पुरुषों में भी यह किया जा सकता है. लेकिन करवाता कोई नहीं क्यूंकि पुरुष चाहे जैसा भी क्यों ना हो, वंश बढ़ाने में सक्षम होना चाहिए... यह कहाँ का न्याय है.............. इसी समस्या पर आधारित यह कहानी है. "मुझे न्याय चाहिए”
"मुझे न्याय चाहिए " भाग -1
दीनदयाल शर्मा जी पेशे से एक मास्टर रहे हैं और उनका सारा जीवन अपने इलाके के एक छोटे से स्कूल में पढ़ते -पढ़ते ही बीत चुका है. अपने उसूलों के पक्के दीनदयाल जी ने कभी बेईमानी का सहारा नहीं लिया और कम वेतन में भी पूरी ईमानदारी से एक शिक्षक का काम किया. जिसके कारण उन्हें और उनके परिवार को बेहद आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा. यहाँ तक कि वह स्वयं एक मास्टर होते हुए भी अपनी बेटी को अधिक ना पढ़ा सके. थोड़ा कुछ अधिक श्रम या यूं कहें कि परिश्रम करके उन्होंने घर ठीक से चलाने की बहुत कोशिश कि किन्तु समय और सेहत ने उनका साथ ना दिया. आज वह एक लकवे के रोगी होकर खाट पर पड़े हैं. ना ठीक से बोल सकते हैं, ना चल सकते हैं, इसके बावजूद भी उन्होंने बहुत प्रयास किया कि उनकी जगह उनकी बेटी रेणु को नौकरी मिल जया ताकि घर चलता रहे हैं. लेकिन किस्मत को यह भी मंजूर नहीं था क्यूंकि दीनदयाल जी की ईमानदारी बहुत से लोगों की आँखों में कांटा बनकर चुभा करती थी इसलिए उन्होंने ना तो कभी दिनदयाल जी को उनकी सच्चाई और ईमानदारी के बल पर आगे बढ़ने दिया और ना ही उनके परिवार को काम देकर फलने फूलने दिया.
दीनदयाल जी की हालत देखकर कई बार उनकी पत्नी लक्ष्मी और बेटी रेणु खीज उठते थे पर करें तो क्या करें घर चलाने के लिए पैसे पर्याप्त नहीं होते थे तो ऐसे में इलाज का खर्चा वह कहाँ से उठा पाते. लाचारी और बेबसी उन सभी के मुख पर सदैव ही विराजमान रहा करती थी. कई बार लक्ष्मी अपने भाग्य को कोसती और कहती मेरी ही किस्मत में यह सब लिखा था. नाम लक्ष्मी और बिहा दिया एक फक्कड़ से, जो एशो आराम की ज़िंदगी देना तो दूर एक आम ठीक ठाक सी ज़िंदगी देने के काबिल भी नहीं है और ना था ही कभी. इस आदमी ने अपने उसूलों के चक्कर में मेरा जीवन नरक बना दिया. जब देखो आने वाले कल की चिंता में कि कल जीने के लिए भोजन मिलेगा भी या नहीं, सोचते सोचते पूरा जीवन होम हो गया मेरा, लक्ष्मी की यह जली कटी बातें असहाय दीनदयाल जी के दिल के टुकड़े टुकड़े कर दिया करता मगर वह चाहकर भी कुछ न कह पाते क्यूंकि वह जानते थे कि लक्ष्मी दिल की बुरी नहीं है, बस हालातों की मारी है. इसलिए इतना कड़वा बोलती हैं. अपने बाबा की बीमारी और घर की माली हालत देखते हुए रेणु ने शहर जाकर कुछ काम करने का सोचा. पहले तो उसकी माँ और बाबा इस बात के लिए बिलकुल भी राजी ना हुए. फिर कुछ सोचकर और अपने पति की हालत और मुंह देखकर, रेणु की माँ लक्ष्मी ने कहा ‘नाम रख देने भर से कोई लड़की लक्ष्मी नहीं बन जाती’ लक्ष्मी पाने के लिए मनुष्य को बहुत से पापड़ बेलने पड़ते हैं, तब कहीं जाकर थोड़ी सी लक्ष्मी हाथ आती है. मुझे तो मेरे माता-पिता ने ज्यादा पढ़ाया नहीं पर हाँ बेटा तेरे पिता ने तुझे इतना जरूर पढ़ाया है कि तू कुछ ना कुछ काम तो कर ही लेगी. तो मैं तुझे अनुमति देती हूँ. तू जा शहर और कोई काम ढूंढ ले. बस इस बात खयाल रखना कि तेरे घर में तेरे बूढ़े माँ बाप रहते हैं, जिन्हें तेरी बहुत जरूरत है इसलिए ऐसा कोई काम ना करना कि तुझे या हमें ऐसा कोई कदम उठाना पड़े जिसके पीछे किसी तरह की कोई शर्मिंदगी छिपी हो. रेणु ने हाँ में सिर हिलाया और बाबा के पास बैठकर उनके हाथ पे अपना हाथ रखते हुए डबडबाई आँखों से आँखों- ही -आँखों में शहर जाने की अनुमति लेना चाही. गरीबी का मारा एक बेटी का सभी तरह से लाचार बाप कर ही क्या सकता था. उन्होंने काँपते हाथ उसके सर पर रख दिये.
अगले दिन सुबह सुबह ही रेणु एक झोले में अपने चंद कपड़े और थोड़ा सा जरूरत का समान रख जाने के लिए तैयार हो गयी. मन में डर लग रहा है, आज से पहले कभी उसने शहर देखा तक नहीं है. वहाँ जाकर कहाँ रहेगी, क्या करेंगी, उसे कुछ पता नहीं. फिर भी उसे जाना होगा अपने लिए ना सही किन्तु अपने माँ बाबा के लिए तो उसे इतनी हिम्मत जुटनी ही होगी. वह मन ही मन खुद को समझा रही हैं कि अगर वह अपने माँ बाबा की बेटी ना होकर बेटा होती तो क्या तब भी वह ऐसा सब ना करती. जो वह आज एक बेटी होकर कर रही है. बूढ़े माँ -बाप की सेवा करना हर संतान का धर्म होता है और सभी को ऐसा करना ही चाहिए. अगर वह भी यह करने जा रही हैं तो यह उसके लिए कितने गर्व की बात है. वह अभी यह सब सोच ही रही हैं कि उसकी माँ ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा रेणु बेटा क्या सोच रही है ? यह ले इसमें थोड़ा खाना है और अंचल में लगी गांठ खोलकर कुछ रुपये देते हुए कहा और यह कुछ रूपय हैं रख ले रास्ते में काम आएंगे.रेणु ने मुस्कुरा कर अपनी माँ को देखा और माँ ने उसे गले लगाकर हिम्मत बंधाकर घर से विदा कर दिया.
आगे क्या हुआ यह जाने के लिए जुड़े रहिए...!!!!