प्रभा ने खिड़की खोली तभी मेट्रो ट्रेन सामने से धड़धड़ाते हुए निकल गयी।दीवारें एकबारगी हिलती हुई-सी महसूस हुई।बिलकुल आँखों के सामने ही है मेट्रो लाइन, लगता है खिड़की से हाथ निकाल कर उसे छुआ जा सकता है।दिन में जाने कितनी बार धड़धड़ाती है ये,रात साढ़े ग्यारह बजे आखिरी बार गुज़रती है और सुबह छह बजे फिर शुरू हो जाती है।लेकिन प्रभा के विचारों की रेल अनवरत चलती रहती है, सुबह मेट्रो शुरू होने से पहले ही आँख खुलने से लेकर रात आखिरी मेट्रो गुज़र जाने के बाद जबर्दस्ती सो जाने तक।
कल वेदांत ने कहा था कि आज आयेगा।समय नहीं बताया लेकिन प्रभा ने सुबह से ही राह देखनी शुरू कर दी।कमाल है न,वह स्वयं से कहती है, अपने ही बेटे से मिलने के लिए उसे कितने दिन इंतज़ार करना पड़ता है!वह भी तभी बताता है जब प्रभा पूछती है कि घर कब आयेगा।न तो उसने कभी खुद कहा, न ही कभी वह बिना बताये आया।बेटी वैदेही पाँच-सात दिन में आकर मिल जाती है।उसी से वेदांत की ख़ैर-ख़बर भी मिल जाती है।प्रभा के पति को जैसे कोई अंतर नहीं पड़ता।बच्चे महीना भर न मिलें तब भी न चिन्ता होती है न उत्सुकता।उनसे प्रभा सारा दिन बात न करे तो भी उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता।वे अपनी पुस्तकों या काग़ज़ों में सर घुपाये प्रभा से भी अपना काम करने को कहते रहते हैं।पर प्रभा के पास अपना कौन-सा काम है!बच्चे साथ हो तो कोई काम हो,उनसे बतियाये,उनकी पसंद का कुछ पकाये, बनाये।उसने दही-बडे बनाने के लिए बडे तलकर,छाछ में डुबाकर रख दिये।दही मथकर रख दी और जीरा भूनकर पीस दिया।बाकी वेदांत के आने पर तैयार हो जायेगा।
सबकुछ समेटकर वह फिर खिड़की पर आयी,तब दूसरी ओर से मेट्रो निकल गयी।कभी-कभी वह आती-जाती मेट्रो गिनने लगती है,लेकिन गिनती पूरी कभी नहीं होती,उससे पहले ही उसका ध्यान बँट जाता है।मेट्रो के नीचे सड़क के किनारे छोटी-सी नागफनी उगी हुई है, एक पत्ते से आगे दो पत्ते, उससे आगे दो और...बिना टहनी के,फन के आकार के काँटेदार पत्ते।खिड़की से सीधी नज़र वहीं जाती है।वह जितनी थी, उतनी ही है...जैसे उसका बढ़ना रुक गया हो।उसने सुना है ये बहुत धीरे बढ़ती है और उनपर फूल भी आते हैं...जाने कब यह बड़ी होगी और कब तो फूल खिलेंगे!उसकी शादी से पहले जैसलमेर में उसके घर के पिछवाड़े भी नागफनी उग आयी थी।एक बार जब सड़क बनाने के लिए गली में सरकारी मजदूर आये तो उन्हें कुछ पैसे देकर दादी ने उसे उखड़वा दिया।पर यहाँ तो नागफनी घर से दूर सड़क किनारे है, उसके घर की परिधि तो खिड़की की सलाखों पर खत्म हो जाती है।प्रभा को वह दूर से दिखती भर है।वह उसकी ऊँचाई आँखों से नापती रहती है लेकिन वह उसी जगह रुकी हुई लगती है,ज़मीन में अकेली गड़ी,अलग-थलग,दिन-रात मेट्रो की धड़धड़ाहट और भीड़भाड़ से जूझकर जबरन अकेले जीती हुई।जैसलमेर के रेतीले मौसम में तो ठीक है लेकिन मुम्बई की इस भीड़भाड़ में ये कैसे उग आयी होगी!हर दिन खिड़की पर आते ही प्रभा की नज़र एकबार उसपर पड़ती ही है और उसे देखते ही मन जैसलमेर पहुँच जाता है।फिर चाय के लिए पति की पुकार या दरवाज़े की घण्टी उसे वापस मुम्बई ले आती है।
वह छत्तीस साल पहले मुम्बई आयी थी।तब सखी-सहेलियों में तो उसकी किस्मत की ही चर्चा होती थी।बाहर वालों के लिए बम्बई है ही स्वप्ननगरी।उसपर प्रभा की शादी हुई भी एक फिल्मी लेखक से।फिल्मों के लेखकों को भले ही कोई नाम से न पहचाने, उठना-बैठना तो उनका फिल्मवालों के साथ ही होता है!उसने भी वासुदेव शास्त्री नामक किसी लेखक का नाम नहीं सुना था लेकिन जब उनसे ब्याह कर बम्बई आयी तो हर रोज अपने आसपास फिल्मों का ही ज़िक्र सुनती रहती।पति रात-रात भर बैठकर लिखते रहते और दिन भर किसी न किसी निर्माता या निर्देशक के दफ्तर का चक्कर लगाते।
फिल्मों या फिल्मवालों से जुड़ी और कोई बात उसके आसपास नहीं रही।घर पर जो लोग पति से मिलने आते, होते तो फिल्मवाले ही,लेकिन अपरिचित।फिल्मवालों के धनी होने की बात भी उसके लिए किंवदंती ही बनी रही।वह तो शुरू से किराये के फ्लैट में ही रह रही है।पहले हर महीने किराये की चिंता रहती थी लेकिन जब से वेदांत ने टेलीविजन धारावाहिकों में काम करना शुरू किया है यह संघर्ष खत्म हो गया।वह टेलीविजन का परिचित चेहरा है।अब भी वेदांत अगर साथ रहे तो कितना ख़र्च बचाया जा सकता है,लेकिन अब यह प्रभा का दिवास्वप्न मात्र रह गया है।पति का फिल्मों में संघर्ष देखने के बाद उसने कभी नहीं चाहा कि बच्चे उस क्षेत्र में जायें, लेकिन पहले वेदांत और उसके पीछे-पीछे वैदेही भी अभिनय के ही चक्कर में पड़ गयी।और तो और अपने लिए दोनों ने जीवन साथी चुने तो वो भी अभिनय के क्षेत्र से ही।उसे छोड़कर घर के बाकी सब एक ही दफ्तर में काम करते हैं मानो!पढ़ने-लिखने के मामले में निराश ही किया दोनों बच्चों ने।कितना शौक रहा है प्रभा को कि बच्चे खूब पढ़ें, ऊँची नौकरी करें...सब धरा का धरा ही रह गया।दोनों ने मुश्किल से दसवीं की और पिता की तरह उन्होंने भी फ़िल्म और टेलीविजन के निर्माताओं के चक्कर लगाने शुरू कर दिये।वेदांत के पास राजपूताना क़द काठी होने के कारण उसे ब्रेक मिल गया और तब से ठीक-ठाक काम चल पड़ा है उसका।वैदेही जूझ ही रही है अभी तक,छोटी-मोटी भूमिका मिल जाती हैं लेकिन अभी अपनी पहचान नहीं बना सकी है।
दरवाज़े की घण्टी ने फिर उसकी तन्द्रा तोड़ी, वेदांत ही था। हर माँ की तरह प्रभा का ध्यान भी उसकी सेहत पर ही गया,वेदांत दुबला भी लगा और परेशान भी।बिना कुछ कहे सीधा अंदर आकर दीवान पर पसर गया।
" ठीक तो है ना बेटा? कितना दुबला हो गया है!" बात प्रभा ने ही शुरू की।उसे लगता है वेदांत का इस तरह कभी-कभी आना,कुछ देर मिलकर, कभी कुछ रुपये पकड़ाकर चले जाना औपचारिक होता जा रहा है।इसलिए न चाहते हुए भी बातचीत की शुरुआत औपचारिक सी लगती है।प्रभा का जी तो चाहता है मिलते ही वेदांत "मsम्मीss..." कहकर उससे लिपट जाये!पर वह अक्सर चुपचाप आकर बैठ जाता है, प्रभा के पूछने से ही बातचीत शुरू होती है, आज भी वही हुआ।
"ठीक हूँ, बहुत दिनों से नाईट शिफ्ट चल रही है....पापा नहीं हैं?"
"अंदर हैं...दही-बडे बनाये हैं..." कहकर प्रभा उठी।वेदांत कोई प्रतिक्रिया दिये बिना पापा से मिलने अंदर चला गया।वेदांत को दही बडे पसंद होते हुए भी उसकी चुप्पी प्रभा को निराश कर गयी।पिछले कुछ महीनों से वेदांत ने इधर आना भी कम कर दिया है और वह कुछ चुप भी रहने लगा है।लेकिन प्रभा के पूछने पर वह काम का हवाला देकर बात खत्म कर देता है।
प्रभा दही बडे लेकर आयी तब तक वेदांत भी पिता से मिलकर बाहर आ गया।बाप-बेटे की मुलाक़ात तो और भी हैरान करती है,लेकिन सिर्फ प्रभा को,उसके पति ने न कोई टिप्पणी की है कभी,और न शिकायत।
" शर्मिष्ठा कैसी है?" प्रभा ने पूछा।
" बिज़ी, ऐज़ यूजुअल...."
" तेरा नया सीरियल देखा, अच्छा है।धोती में जँच रहा है तू," कहकर प्रभा हँसी।वेदांत भी मुस्कुराया।
" शर्मिष्ठा के साथ रहते रहते बंगाली लगने लगा है..."
" वेदु आयी थी क्या ?" वेदांत ने बहन के बारे में पूछ कर बात बदल दी।
" पिछले हफ्ते आयी थी,कल फोन आया था, बहुत सारे ऑडिशन देने है कह रही थी...तुझे मिली?"
" नहीं,देव मिला था...यू एस जाने वाला है...थिएटर का कोई नया प्रोजेक्ट मिला है..."
" वेदु भी?...मुझे तो नहीं बताया..."
" उहुँ...अकेला...चलो,चलता हूँ..."कहकर वह उठा।प्रभा को हर बार लगता है, अभी वेदांत कहेगा, घर आओ न मम्मी, कब आओगी...
पर वही पूछ बैठती है," फिर कब आयेगा बेटा?"
" देखता हूँ... जल्दी आता हूँ," कहकर उसने जेब से रुपयों की गड्डी निकाल कर उसकी ओर बढ़ा दी।
" अभी तो पड़े हैं..." प्रभा धीरे से बोली।
" कोई नहीं... रख लो ",वेदांत ने उसे पकड़ा दिये और निकल गया।
प्रभा लिफ्ट नीचे जाने तक दरवाज़े पर खड़ी रही।फिर दरवाजा बंद कर के दीवान पर बैठी रही।सुबह से जिसका इंतज़ार कर रही थी,वह आया भी और गया भी!अब फिर एक नया इंतज़ार....
उसने टीवी चला दिया।वेदांत के धारावाहिक के कल रात के भाग का पुनर्प्रसारण आने वाला है, वही देखने बैठ गयी।लोग कहते हैं वह अच्छा अभिनय करता है।लेकिन प्रभा को पर्दे पर बेटे को देखकर कभी लगा ही नहीं कि वह अभिनय कर रहा है, वह तो उसे उसी तरह हँसते,बोलते,रोते, चिढ़ते देखती आयी है शुरू से!उसने नहीं देखा तो, कभी इस तरह चुप और गम्भीर...अभिनय तो तब करता लगता है वह !
प्रभा ने वैदेही से बात करने के लिए फोन उठाया, फिर ये सोचकर रख दिया कि ऑडिशन देने में व्यस्त होगी।जब वक़्त मिलेगा खुद ही कर लेगी।बच्चों को फोन करने से पहले प्रभा को यह विचार ज़रूर आता है कि कहीं वह उनकी व्यस्तता में दखलंदाज़ी तो नहीं कर रही।यही सोचकर कई बार वह फोन करते-करते रुक गयी है।बच्चों के पिता को ऐसा कोई द्वंद्व नहीं होता।
अगले दिन दोपहर बाद प्रभा फिर से खिड़की पर आकर खड़ी हो गयी।सन्ध्या के समय उसका जी चाहता है कहीं घूम आये लेकिन भीड़ और ट्रैफिक देखकर मन बदल जाता है।गुज़रती चमचमाती गाड़ियों को खिड़की से देखना ही मनभावन लगता है।सड़क पर चलते हुए तो सारा ध्यान उनकी चपेट में आने से बचने पर रहता है।तभी दरवाज़े की घण्टी बजी।शायद वासुदेव लौट आये,सोचते हुए उसने दरवाजा खोला,वैदेही थी।
हमेशा की तरह उसकी छोटी पोशाक देखकर प्रभा ने मुँह बनाया, " ऐसे कैसे घूम लेती है शहर भर!"
" ओफ्फोह,मम्मी हो गया आपका शुरू!क्या खराबी है इसमें, कुछ दिख तो नहीं रहा...आप भी ना!"
" कुछ शादीशुदा लड़कियों की तरह क्यों नहीं पहनती?"
" मम्मी आप एक राइटर की वाइफ हो, कभी डायलॉग बदल-बदलकर भी बोला करो प्लीज़!" वैदेही हँसने लगी।
प्रभा ने उसके फ्रॉक को साशयता से देखा।
" तुझे देखकर कोई कहेगा तेरी शादी हुई है?"
अच्छा है ना,मैंने बताना भी नहीं है!" वैदेही फिर हँसी।
" पापा नहीं हैं क्या? भाई आया?"
" ह्म्म, कल आया था,"प्रभा ने कहा।
" कुछ बताया...?"
" हाँ...अमेरिका जा रहा है ना देव!" प्रभा ने मुस्कुराते हुए वैदेही को देखा।
" देव की नहीं, अपनी बात...शर्मिष्ठा छोड़ रही है उसे..."
प्रभा यकायक कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पायी।फिर बोली,
" तुझे कैसे पता?"
" आज से थोड़ी, चार महीने से चल रहा है...अब तो फाइनल ही तय कर लिया...कह रहा था आपको बतायेगा।"
" तुम लोग अपनी बात कब करते हो?वो तेरी बता रहा था और तू उसकी बता रही है...तूने भी तो नहीं बताया देव अमेरिका जा रहा है!" प्रभा ने उलाहना दिया।
" देव जा रहा है मम्मी, मैं नहीं!!"
" अरे!एक ही बात तो है ना...?" प्रभा के ऐसा कहने पर वैदेही ने कन्धे उचकाकर ठंडी सी निगाह से उसे देखा और कहा, " जी नहीं।"
" शर्मिष्ठा को क्या हुआ?" प्रभा ने चिंतित होकर पूछा।
" बस,ओवर हो गया...और क्या!"
" ऐसे ही? ओवर हो गया यानि? शादी में ऐसा होता है?"
" अब एक साथ नहीं रहना चाहते तो,एक ही घर में अजनबियों की तरह रहने से तो अच्छा है अलग रहें।"
प्रभा को समझ नहीं आया वह क्या कहे!वैदेही सबकुछ इतनी सहजता से बोलती रही जैसे एक सम्बंध का टूट जाना बड़ी स्वाभाविक बात है।
वैदेही के जाने के बाद भी प्रभा काठ-सी बैठी सोचती रही।
पता नहीं क्यों वैदेही जितनी आसानी से बता गयी,वह उतनी आसानी से स्वयं को समझा नहीं पा रही।वेदांत ने तीन साल पहले अपनी पाँच साल पुरानी दोस्त और अंग्रेज़ी थिएटर की चर्चित अभिनेत्री शर्मिष्ठा सेन से शादी की थी।प्रभा को कभी भी वह अपने परिवार का हिस्सा नहीं लगी।शर्मिष्ठा ने ऐसी कोई कोशिश कभी की भी नहीं और प्रभा स्वयं को उसके परिवार का हिस्सा समझने का साहस कर ही नहीं सकी।शर्मिष्ठा के माता-पिता भी शहर और बांग्ला रंगमंच के चर्चित कलाकार हैं।उनसे प्रभा का समधियाने का रिश्ता बन ही न सका।अपने बेटे के तीन साल के वैवाहिक संबंध में प्रभा और उनकी भेंट तेरह बार भी नहीं हुई होगी।शर्मिष्ठा ही कुल तीस बार नहीं मिली,तो परिवार कैसे बन पाता उसके साथ!वह प्रभा से मिलने इस घर में एक ही बार आयी है,जब वासुदेव के दिल का ऑपरेशन हुआ था और शर्मिष्ठा उस समय विदेश में होने के कारण अस्पताल नहीं पहुँच सकी थी। प्रभा उसके घर दो या तीन बार गयी होगी, वो भी मेहमानों की तरह गयी और आयी।अब यह सब सोचकर प्रभा समझ नहीं पा रही कि केवल वेदांत का घर टूट रहा है या उसका परिवार...
परिवार...उसने स्वयं से दोहराया...पति-पत्नी, बेटा-बहू, बेटी-दामाद,परिवार की सभी इकाइयों के बावजूद वह परिवार ढूँढ़ रही है।बहू और दामाद आने के बाद भी वह नानी या दादी बनने का सपना ही देखती रही।शर्मिष्ठा से तो कभी कह न सकी,वैदेही से एक बार हँसते-हँसते ही पूछ लिया तो तपाक से जवाब मिला था," मम्मी प्लीज़,टिपिकल मम्मियों वाली बात मत करो!करियर का तो कुछ बने पहले!
आपकी तरह शादी करते ही बच्चे हो गये तो उसके बाद क्या...मैं भी किसी लायक नहीं रहूँगी..." फिर एक ठहाका लगाते हुए बोली," अपनी बहूरानी को बोल कर देखो ना!" प्रभा निरुत्तर हो गयी,अपनी बेटी को कह कर देखना ही काफी रहा।कितनी सहजता से वैदेही ने उसे किसी लायक ना रहने की बात कर दी!जितनी ईमानदारी से वैदेही प्रभा का सच उसके सामने रख गयी,प्रभा उतनी सच्चाई से स्वयं को भी नहीं कह सकी कभी।
रात को जब वासुदेव लौटे तो प्रभा ने उनसे बात की।
" बच्चे बड़े हो चुके हैं प्रभा।अपने फैसले लेने की समझ हैं,
निपटने दो उनको अपनी ज़िंदगी से।तुम या मैं कुछ नहीं कर सकते।"
एक उसे छोड़कर सभी के लिए कितना सहज है ये सोच लेना!क्या वेदांत के लिए भी ?प्रभा स्वयं के साथ प्रश्न लिए जूझती रही लेकिन वेदांत को फोन कर के पूछ नहीं सकी।वासुदेव सच कह रहे हैं, बच्चे खुद ही निपटेंगे, वह क्या करे?जिस तरह वेदांत ने शादी करने का फैसला आकर बताया था, तलाक की बात भी उसी तरह आकर बता जायेगा।उसकी राय ना तब माँगी ना अब माँगेगा।हुआ भी वही।कुछ दिनों बाद उसने फोन किया कि वह आ रहा है।शाम ढले वह आया।
" वेदु ने तो बताया ही होगा..."
" तूने क्यों नहीं बताया..."
" क्या फर्क पड़ता है, खबर बदल थोड़े ही जाती!"
प्रभा ने कुछ नहीं कहा।
कुछ ही हफ्तों में दोनों के बीच आपसी सहमति से तलाक हो भी गया।प्रभा के मन में हल्की-सी आस फिर जगी,वेदांत के उनके पास आकर साथ रहने की।लेकिन वैदेही ने कहा " ये कैसे होगा मम्मी, इतने सालों में उसकी लाइफस्टाइल बिल्कुल बदल चुकी है।वो क्या आप ही नहीं रह सकोगे उसके साथ, पहले वाला बेटा नहीं रहा वो आपका!टीवी स्टार है वो अब!"...पता नहीं इसका अर्थ प्रभा क्या समझे,बच्चे आगे निकल गये हैं या वह पीछे रह गयी! शायद वही नागफनी की तरह एक जगह गड़ी रह गयी...
कुछ हफ्तों बाद देव चार महीने के लिए अमेरिका चला गया।वैदेही ऑडिशन में और भी व्यस्त हो गयी।प्रभा ने वेदांत का अपनी एक सह-अभिनेत्री के साथ प्रेम-सम्बंध की खबर भी सुनी है।लेकिन उसने न वेदांत को पूछा न वैदेही से जानना चाहा।इधर वासुदेव को भी राजस्थान की पृष्ठभूमि पर एक ऐतिहासिक धारावाहिक लिखने का नया काम मिल गया।अलबत्ता प्रभा के पास वही काम...
मेट्रो की धड़धड़ाहट सुनकर प्रभा खिड़की खोलकर खड़ी हो गयी।दोनों तरफ से एक-दूसरे को काटती मेट्रो गुज़र गयी।नीचे सड़क पर भी ट्रैफिक जाम में रंग-बिरंगी गाड़ियों का रेला रुक गया।प्रभा कारों में बैठे लोगों के चेहरे देखती रही।रेला धीरे धीरे आगे खिसकने लगा...ऊपर से एक मेट्रो और गुज़र गयी।अचानक प्रभा की नज़र नागफनी पर पड़ी।
नागफनी पर नन्हीं-नन्हीं लाल कोंपलें उग आयी हैं...
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