I am not your brother. in Hindi Short Stories by jagGu Parjapati ️ books and stories PDF | मैं भाई नहीं हूँ तेरा.

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मैं भाई नहीं हूँ तेरा.

( यह कहानी पूर्णतः काल्पनिक है।)



बात कुछ ज्यादा पुरानी तो नहीं है, बस यहीं कुछ सन् 1940 के आस पास की ही बात है। तब मैं शायद पांचवीं कक्षा में पढ़ती होऊंगी। शुरू से ही चंचल रही हूं मैं ,मुझे स्कूल जाना तब भी किसी जेल से कम नहीं लगता था।हालांकि पिता जी एक जाने माने व्यपारी थे ,और ब्रिटिशर्स के साथ भी उनके अच्छे संबंध थे। लेकिन मुझसे ज्यादा अच्छे से ये बात किसे पता होगी कि अगर पिता जी का बस चलता तो वो उन सब फिरंगियों का अब तक खून कर चुके होते।
पिता जी ने उन फिरंगियों से बदला लेने की अपनी ही नीति बनाई हुई थी। वो मानते थे कि हम उनके खेल खेलते खेलते उनको ही हरा देंगे। तो बस उसी खेल का एक मोहरा मैं भी थी।एक तरफ पूरा देश अंग्रेजी का विद्रोह कर रहा था,वहीं दूसरी ओर मुझे स्कूल भेजा जाता था ताकि मै अंग्रेजी भाषा सीख सकूं। वो बात अलग है कि अंत तक भी मेरी वजह से उन्हें कुछ खास हासिल नहीं हुआ था। मैं बस उनके कुछ काग़ज़ात पढ़कर उन्हें सुना देती थी और वो उसी से खुश हो जाते थे।
ख़ैर उस समय की अगर मैं आपको बातें बताने लगुंगी तो शायद आप ऊब जाएंगे लेकिन बातें ख़तम नहीं होंगी। अरे मैंने अब तक आप सबको अपना नाम तो बताया ही नहीं,,,चलो कोई बात नहीं मैं अब बता देती हूं मैं हूं सोना ..सोना देवी। क्या हुआ नाम थोड़ा अजीब है ना ? मालूम है मुझे.. तभी तो मैं आप सबको बता नहीं रही थी।लेकिन तब ऐसे ही नाम होते थे । मुझे तो इस बात की खुशी थी कि मेरा नाम नानकी, भतेरी, केला, संत्रो जैसा कुछ नहीं था। सच बताऊं तो शुरू में तो मुझे अपना नाम कुछ खास पसंद नहीं था,पर धीरे धीरे मुझे अपना नाम पसन्द अा गया था। ठीक वैसे ही जैसे धीरे धीरे अपना स्कूल अच्छा लगने लगा था।
तब लड़कियों का स्कूल जाना इतना आम भी नहीं था जितना की आप सबको मेरी बातों से लग रहा होगा।मेरे पिता जी ने सबकी बातों को जब एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दिया था ना तब कहीं मैं स्कूल जा पाई थी। अगर गिनती भी करें तब भी पूरी स्कूल में मुश्किल से दस पन्द्रह लड़कियां आती होंगी।जिनमें से चार तो मेरी जमात ( कक्षा) में ही पढ़ती थी। उनमें से जो मेरी दोस्त थी उसका नाम था फुल्लो देवी। फुल्लो के पिता जी भी मेरे पिता जी के साथ ही व्यापार करते थे। अगर मैं हमारी दोस्ती को खानदानी दोस्ती भी कहूं तो गलत नहीं होगा।क्यूंकि पहले हमारे दादा जी और उनके दादा जी दोस्त थे ,फिर पिता जी भी दोस्त हैं,अब आगे मेरी और फूलो की भी कम नहीं जमती थी। अगर रात हमारे बीच में ना आए तो यकीनन हम हमेशा साथ ही रहते।
मैं और फुल्लो नए नए छ्ठी जमात में पहुंचे थे। कुछ एक को छोड़ कर लगभग सभी पुराने चेहरे फिर से एक साल देखने थे। हमारी कक्षा में कुल मिलाकर पैंतीस बच्चे थे जिनमें से हम चार लड़कियां थी। अब आप सबको लगेगा कि मैं अपनी तारीफ़ खुद ही कर रही हूं लेकिन तब तक मैं हमारी कक्षा की सबसे होनहार छात्रा मानी जाती थी। अगर देखा जाए तो मेरी हालत अंधो में काने राजा से कम नहीं थी। जहां एक तरफ हमारी कक्षा के बच्चो से अंग्रेजी के शब्द याद भी नहीं होते थे वहीं मैं शब्दों को जोड़ कर पढ़ लेती थी, भले ही मुझे गूगल को गोग्ली ही क्यूं ना पढ़ना पढ़े ।
लेकिन पता नहीं किसकी नजर लग गई शायद मेरी खुद की ही लग गई होगी। क्यूंकि हमारी कक्षा में जो तीन नए विद्यार्थी आए थे उनमें से एक लड़का मुझसे भी आगे था। हालांकि ये बात मेरी बर्दाश्त के बाहर थी कि मेरे होते हुए हमारे गुरु जी किसी और की तारीफ़ कर रहे थे लेकिन मै तब कुछ कर भी नहीं सकती थी क्यूंकि उसकी हरकते ही उसके होनहार होने की चुगली करती थी। बिल्कुल शांत सा,हमेशा हाथ में एक किताब तो रखता ही था। अंग्रेजी भी तो फटाक से बोलता था।एक तो मैं लड़की ऊपर से वो मुझसे ज्यादा आगे तो मेरा उस से जलना मुझे स्वाभाविक ही लगा था।
फिर तो मैंने भी उसको देख देख कर खुद पर ज्यादा मेहनत करनी शुरू कर दी थी।धीरे धीरे कुछ सुधार आया भी था मुझमें। अब मुझे ये भी पता था कि अंग्रेजी का एक और नाम अंगलिश भी है। नए छात्र भी अब पहले से ज्यादा घुल मिल गए थे पूरी कक्षा के साथ बस एक को छोड़ कर, वो कौन है ये तो आप सब समझ ही गए होंगे।
लो मैं फिर से आपको उसका नाम बताना तो भूल ही गई।उसका नाम था "मंसूब ...मंसूब अली "। कितना प्यारा नाम है ना ..? तभी तो मैं बता नहीं रही थी आप सबको। सच में मुस्लिम नाम तो मुझे भी बहुत पसन्द है मुझे तो इस बात का भी अच्छा खासा बुरा लगता था कि उसका नाम मुझसे ज्यादा अच्छा है। उसको देख कर मन होता था कि काश मैं भी मुस्लिम ही होती , कम से कम नाम तो अच्छा होता।
आप सबको भी ये तो पता ही होगा कि कक्षा में बच्चों की बहुत सी प्रजातियां पाई जाती हैं। एक वो जो सबसे पीछे बैठते हैं और गलती से अगर उनकी आंखे एक अक्षर भी पढ़ लें तब उनका सबसे पहला काम आंखो को गंगा जल से शुद्ध करना होता है। दूसरे वो जिनको किताबो के अलावा कुछ नहीं दिखता , अगर किसी दिन दिख भी जाए तो वो रात को दो घंटे ज्यादा पढ़ते हैं। तीसरे वो होते हैं जो पढ़ने के साथ साथ इधर उधर ताकाझांकी भी कर लेते हैं ,और कक्षा में सबसे ज्यादा बोलने का जिम्मा भी इनका ही होता है । मैं बच्चों की तीसरी प्रजाति से नाता रखती थी।
मंसूब कक्षा में सबसे ही बहुत कम बोलता था ," वो नहीं बोलता तो क्या हुआ मैं तो बोल सकती हूं ना" ये बात बार बार मुझे उस से बात करने पर मजबुर कर देती थी। जैसे जैसे दिन गुज़र रहे थे वैसे वैसे मुझे एहसास हुआ था कि मंसूब दिल का बुरा नहीं है। एक बार मैं स्कूल से घर जा रही थी तब एक कुत्ते को वो रोटी खिला रहा था। एक बार पूरी कक्षा को उसने गुरु जी के बालक सुधार यंत्र से भी बचाया था। और तो और एक बार उसने मुझे एक सवाल भी तो समझाया था हां वो बात ओर है कि समझाने के लिए उसको गुरु जी ने ही कहा था। फिर भी मैं कह सकती हूं कि वो एक अच्छा लड़का था।
तो बस मैंने भी उस से धीरे धीरे ,छोटी मोटी बात पर बोलना शुरू कर दिया। बात हमेशा ऐसी होती थी कि उसको जवाब देना ही पड़ता था... जैसे पढ़ाई की बात और होशियार होने के नाते हर पढ़ाई की बात का जवाब देना वो अपना फर्ज समझता था।
निजी तौर पर मेरा ये मानना है कि कोई भी इंसान तो बुरा होता ही नहीं है वो तो आदतें ही होती हैं जो उसको बुरा बनने पर मजबुर कर देती हैं।वैसे तो आप सबको भी पता चल ही गया होगा कि मैं तब भी कितनी अच्छी थी लेकिन हर किसी की कुछ बुरी आदतें होती हैं वैसे ही कुछ मेरी भी थी। हालांकि मेरी ये आदत मुझे बुरी नहीं लगती थी लेकिन फूलो कहती थी कि ये आदत अच्छी नहीं होती। मुझे लगता है कि आप सबको भी ये आदत ज्यादा बुरी नहीं लगेगी। वो था कि मैं हर लड़के को भाई कहकर ही बोलती थी। लेकिन फुल्लो कहती थी कि भाई के पीछे जी भी लगाना चाहिए। लेकिन मुझे भाई जी बोलना कभी अच्छा नहीं लगा था। भला किसी को भाई बोलना क्या कम सम्मान की बात है जो पीछे जी भी लगाएं। ये तो गुड़ को चाशनी में डुबोने वाली बात हो गई।मंसूब से बात करने के बाद मुझे पता चला कि भाई बोलना हर किसी को अपना सम्मान नहीं लगता है ।
तो हुआ यूं कि हमारी कक्षा में दो छात्रों के पास ही गुरु जी के चाक और डस्टर सम्भाल कर रखे जाते थे और वो दो छात्र कोई और नहीं बल्कि मै और मंसूब ही थे। हमारी कक्षा में बारी बंधी हुई थी कि एक दिन मंसूब गुरु जी को चाक और डस्टर देगा और एक दिन मैं, लेकिन उस दिन पता नहीं किस बच्चे ने मेरे झोले ( बैग ) से चाक चोरी कर लिए थे। हमारी वो कक्षा बाहर एक पेड़ के नीचे लगा करती थी। सब बच्चे वहां जा चुके थे और मैं अब तक कमरे में चाक ही ढूंढ रही थी। जब बहुत ढूंढने के बाद भी मुझे कुछ हासिल नहीं हुआ तो मैंने मंसूब से मदद लेना तय किया। मैं जल्दी जल्दी कमरे से अपनी क्लास में मंसूब के पास गई और मैंने बड़ी मासूम शक्ल बनाते हुए कहा ..
" मंसूब भाई ...मुझे मेरे बैग में चाक़ नहीं मिल रही है , तू आज मुझे अपनी दे दो, कल मैं तुझे अपने वाले में से पक्का वापिस कर दूंगी।"
मंसूब के बारे में जैसे की मैंने आप सबको पहले ही बताया था कि वो मदद करने को तो हमेशा ही तैयार रहता था।तो बस अपने स्वभाव को मद्देनजर रखते हुए वो मेरी मदद करने को भी तैयार हो गया था।हम दोनों क्लास की तरफ जा रहे थे। मंसूब आगे आगे था और मैं लगभग उसके पीछे पीछे या कभी कभी साथ ही चल रही थी। पता नहीं क्यूं लेकिन मंसूब मेरी तरफ जब भी देखता तो थोड़ा घुर कर ही देखता जैसे किसी बात से उसको बहुत गुस्सा अा रहा हो। वो उम्र के लिहाज से हमसे थोड़ा ज्यादा समझदार भी था, इसलिए मुझे खुद पर ही शक हुआ कि पक्का मैंने है किसी गलत दाल की खिचड़ी पकाई होगी ।
हम दोनों अपनी कक्षा वाले कमरे में पहुंचे। मंसूब ने अपने झोले से चाक निकालकर मेरी तरफ बढ़ा दिया। मैं जब उसके हाथ से चाक लेने लगी तब उसने अपना हाथ थोड़ा पीछे हटाते हुए कहने लगा।
" सोना आपको चाक चाहिए तो बेशक कल भी हम आपको दे देंगे, लेकिन आइंदा से आप हमें भाईजान नहीं बुलाईगा, क्यूंकि हम आपके भाई नहीं है।हम किसी को अपनी बहन नहीं मानते हैं। खुदा को अगर हमें बहन की मोहब्बत बख़्शनी होती तो वो हमें एक बहन जरूर बख्श देते।" इतना कहकर वो चाक मेरे हाथ में थमा कर चला गया। मैं सन्न सी हुई वहीं खड़ी रह गई। मुझे उसकी कही बातें तो समझ अाई लेकिन उसने ऐसा कहा क्यूं ये समझना मेरी समझ के परे था। आजतक हमें तो घर हो या स्कूल सब जगह यही सिखाया जाता था कि सभी भारतवासी आपस में भाई बहन या भाई भाई का रिश्ता रखते हैं। आज पहली बार किसी ने सोचने पर मजबुर किया था कि जो हमें सिखाया जाता है वो सब सही भी है या नहीं। मैंने उस दिन एक बार भी मंसूब की तरफ नहीं देखा,शायद उसको तो फ़र्क भी ना पड़ा हो कि सब कहने के बाद मेरे मन में क्या भाव उमड़े होंगे।
उस दिन स्कूल ख़तम होने के बाद शाम को मैंने अपनी मां को आज का पूरा वाकिया बताया। अंत में मां इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि वो लड़का अच्छा नहीं है और मैं आज के बाद कभी उस से बात नहीं करूंगी। मैंने भी अपनी मां की बात में हां में हां मिलाते हुए अपनी सहमति जता दी थी और मंसूब से मन ही मन बात ना करने का फैसला कर लिया था।
उस से अगले दिन जब मंसूब स्कूल में दिखा तो निजी तौर मैंने उसको अनदेखा कर दिया था वो बात अलग है कि उसको इस बात का पता भी नही चला था। गुरु जी की कक्षा शुरू होने से पहले जब सब कमरे से पेड़ के नीचे जा रहे थे तब आखिर में जाते जाते मंसूब मेरे पास आते हुए मुझ से पूछा
"सोना आपको आज भी चाक चाहिए है क्या ?"
मैंने एक बार उसकी तरफ देखा फिर सोचा कि क्या ये सच में अच्छा नहीं है ? फिर मुझे मेरी मां की बात याद आ गई।मैंने खुद को थोड़ा सहज कर, उसके हाथ में दो चाक थमाते हुए कहा ..
" ये लो तुम अपने चाक,और आगे से मेरे साथ बात मत करना ,मेरी मां ने बताया कि तुम अच्छे लड़के नहीं हो और मुझे तुमसे बात भी नहीं करनी चाहिए।"
मेरी बातें सुनकर उसकी आंखें इतनी बड़ी तो हो ही गई थी कि उनमें से आंखों में बने वो काले रंग के कंचे आसानी से बाहर अा सकते थे।जैसे कल मुझे उसकी बातें समझ नहीं आई थी शायद आज उसको भी नहीं अाई थी। मैं अपनी बात बोलकर सीधा बाहर अा गई थी। मुझे ऐसा लगा था मानो मंसूब कुछ तो बोल रहा था जो मुझे सुनाई तो नहीं दिया था लेकिन उसकी आवाज एक बार मेरे कानो में गूंज गई थी,जिसको मैं अनदेखा कर चुकी थी।
उस दिन के बाद पूरा एक साल बीत गया था लेकिन मेरी और मंसूब की बात नहीं हुई थी। हां कभी कभी गुरु जी अगर कोई काम साथ में करने को दे देते थे तो हम दोनों अपने हिस्से का काम कर देते थे और बात एक दूसरे तक फुल्लो के द्वारा पहुंचाई जाती थी। ऐसा नहीं है बहुत बार मंसूब ने खुद बात करने की कोशिश भी की थी लेकिन मैंने कभी उसका साथ नहीं दिया था।देखा था मैंने उसको कभी कभी अपनी तरफ देखते हुए जब मैं अपनी सहेलियों संग खिल खिलाकर हंसती रहती थी। उसको ये बात शायद फुल्लो ने बता दी थी कि मेरा उसके साथ ना बोलने की वजह उसका मुझे उसको भाई बोलने से मना करना था।
पूरे स्कूल की तब वार्षिक परीक्षाएं चल रही थी। हमारी कक्षा की तब आखिरी परीक्षा थी और हम सब पेपर लिखकर स्कूल में ही उछल कूद कर रहे थे।तभी किसी बात पर मैंने फुल्लो को एक चपत लगा दी थी,जिसकी वजह से मैं उसके आगे आगे और वो मेरे पीछे पीछे पूरे स्कूल में दौड़ रही थी।दौड़ते दौड़ते मैं लगभग थक कर रुक चुकी थी और फुल्लो मेरी तरफ अपने उपर हुए बेवजह के अत्याचार का बदला लेने अा रही थी। वो मेरे पास पहुंचने ही वाली थी कि कहीं से मंसूब बीच में आ गया था।उसने तब जो शब्द कहे थे तब पहली बार में मुझे भी अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ था।उसने कहा था...

" फुल्लो आप मेरी बहन को क्यूं परेशान कर रही हैं, अगर उनको आपने थोड़ा भी परेशान किया तो हमसे बुरा कोई नहीं होगा।"
इतना कहते हुए वो मेरी तरफ देख कर मुस्कुरा रहा था। मुझे आजतक भी नहीं पता कि उसकी ये बातें सुनकर मेरी आंखो से आंसू क्यूं अा गए थे। कभी कभी भावनाएं शब्दों की मोहताज नहीं रहती हैं बस कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ था।हम दोनों ही उस दिन उसके बाद कुछ नहीं बोले थे ,बस एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा रहे थे। उस दिन मैं घर पर पहुंचकर इसी बात को बार बार सोच रही थी । पता नहीं क्यूं लेकिन खुद पर गर्व महसूस कर रही थी कि मंसूब ने मुझे बहन कहा था।मतलब उसको अब मेरे भाई बोलने से कोई आपत्ती नहीं थी। उसके बाद हमारी छुट्टियां शुरू हो गई थी और मैं घर ही रहती थी। लेकिन एक कोना मंसूब के साथ बंधे उस मासूम से बंधन में ही बंध कर रह गया था। मुझे अब तो बस छुट्टियां खत्म होने का इंतजार रहता था।
ये इंतजार आखिर ख़तम हुआ था और हमारे स्कूल फिर से खुल गए थे। इस बार मैंने जाते ही मंसूब से बात की थी और सच में वो बहुत बदला बदला सा लगा था मुझे या शायद जब कोई अच्छा लगता है तब उसकी हर बात ही अच्छी लगने लग जाती है। मेरी हर छोटी बात का ध्यान रखता था शायद मेरा खुद का भाई भी इतना ख्याल नहीं रखता था। अब तो हम दोनों भाई बहन की जोड़ी हमारे पूरे स्कूल में प्रसिद्ध हो गई थी। मैं उसको हर साल राखी भी बांधती थी भले ही वो इस्लाम धर्म से जुड़ा हुआ था लेकिन मेरी भावनाओं की कद्र करता था। हर साल मुझसे ज्यादा उसको राखी का इंतजार रहता था।कभी कभी तो खुद ही मेरे घर भी अा जाता था। अब फुल्लो के साथ साथ हमारी टोली में मंसूब भी शामिल हो गया था।
दिन बीते दिन से हफ़्ते, हफ़्ते से महीने और महीनों से साल बीत गए थे पर हमारे रिश्ते पर किसी ऋतु की तप्त का कोई असर नहीं हुआ। हम जितना साथ रहे हम भाई बहन का रिश्ता उतना ही गहराता गया था।
लेकिन हमेशा की तरह मेरी नज़र तो लगनी ही थी ना ,इतना इतराती जो थी मैं हमेशा ,गुरूर बन गया था मंसूब भाई मेरा।
देश की आजादी का छोटे गांव में कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता क्यूंकि वो तो अब भी वैसे ही काम करते थे जैसे पहले करते थे।वो अब भी उतने ही प्रेम भाव से रहते थे। उनको तो शायद पता भी नहीं चलता कि भारत आजाद हो गया है अगर विभाजन नहीं होता । हां मै भारत पाकिस्तान विभाजन की ही बात कर रही हूं। सबको लगता है कि बस धरती के दो टुकड़े बंट गए थे लेकिन सच तो ये है कि पता नहीं कितने ही रिश्ते इस विभाजन की बलि चढ़ गए थे। उनमें से एक मेरा और मेरे गुरूर यानी मंसूब का रिश्ता भी था।क्यूंकि हमारा परिवार जहां रहता था वो पाकिस्तान का इलाका था। इसलिए हमें वहां से कहीं ओर जाना था और मंसूब जो मुस्लिम था।उनको पाकिस्तान में रहने का फ़रमान जारी कर दिया गया था।
हमें जिस दिन पता चला था उस से अगले दिन ही वहां से रवाना होना था। मैं सब से बचते हुए फिर भी मंसूब से मिलने गई थी। तब मंसूब ने मुझे विश्वास दिलाया था कि
" भले ही हमारा मुल्क बदल रहा है लेकिन पाक भारत का ही हिस्सा हैं। और वो मुझसे मिलने एक दिन जरूर आएगा।"
उस ने तब मुझसे ये वादा किया था कि वो जरूर आएगा। मैं इसी वादे पर अपने भाई का पूरी उम्र इंतजार करती थी।क्यूंकि मुझे उसपर यकीन था.... और देखो उसने अपना वादा निभाया है।
अपने सामने रखी अस्थियों को देखकर कहती हैं जो कि मंसूब की थी।मंसूब ने मुस्लिम होते हुए भी अपनी आखिरी इच्छा में ये मांगा था कि " उसका अंतिम संस्कार हिंदुस्तान में पूरे हिन्दू धर्म के अनुसार हो और मेरी अस्थियां मेरी बहन सोना के हवाले कर दी जाएं।
अपनी आंखों से आंसू पोंछते हुए सोना चुप हो जाती है।एक बार फिर मंसूब की अस्थियों को अपने बूढ़े हो चुके शरीर से चिपका कर आंखें बन्द कर लेती है,जो फिर कभी नहीं खुलती हैं। सोना भी हमेशा के लिए अपने भाई मंसूब के साथ जा चुकी थी।क्यूंकि उसको यकीन था कि इस संसार में ना सही उस संसार में हम साथ जरूर होंगे।.........
समाप्त🙏

स्वरचित✍️( jagGu parjapati)
तो दोस्तों ,ये कहानी आप सबको कैसी लगी हमें समीक्षा में जरूर बताइएगा।
और अगर आपका भी कोई ऐसा ही मासूम रिश्ता है तो उसको सम्भाल कर रखिएगा।क्यूंकि बड़ी मुश्किल से बनते हैं दिल के रिश्ते...।
बने रहिए आपकी अपनी जग्गू के साथ 😎...