श्रीधर स्वामी के विषय में प्रामाणिक सामग्री तो उपलब्ध नहीं है, जो किंवदन्तियां हैं, उन्हीं के आधार पर कुछ जानकारी है। महापुरुषों के जीवन के सत्य को ऐसी किंवदन्तियां ही बहुत कुछ प्रकट कर पाती हैं।
ईसा की दसवीं या ग्यारहवीं सदी की बात होगी। दक्षिण भारत के किसी नगर में वहाँ के राजा और मंत्री में मार्ग चलते समय भगवान की कृपा तथा प्रभाव के सम्बन्ध में बात हो रही थी। मंत्री कह रहे थे- "भगवान की उपासना से उनकी कृपा प्राप्त करके अयोग्य भी योग्य हो जाता है, कुपात्र भी सत्पात्र हो जाता है, मूर्ख भी विद्वान हो जाता है।" संयोग की बात या दयामय भगवान की इच्छा, राजा ने देखा कि एक बालक ऐसे पात्र में तेल लिये जा रहा है, जिसका उपयोग कोई थोड़ा समझदार भी नहीं करेगा। राजा ने मंत्री से पूछा- "क्या यह बालक भी बुद्धिमान हो सकता है? मंत्री ने बड़े विश्वास के साथ कहा- "भगवान की कृपा से अवश्य हो सकता है।"
बालक बुलाया गया। पता लगा कि वह ब्राह्मण बालक है। उसके माता-पिता उसे बचपन में छोड़कर परलोक चले गये थे। परीक्षा के लिये नृसिंह मंत्र की दीक्षा दिलाकर उसे आराधना में लगा दिया गया। बालक भी सब प्रकार से भगवान के भजन में लग गया। उस अनाथ बालक की भक्ति देखकर अनाथों के वे एकमात्र नाथ प्रकट हो गये। नृसिंह रूप में दर्शन देकर भगवान ने बालक को वरदान दिया- "तुम्हें वेद, वेदांग, दर्शनशास्त्र आदि का सम्पूर्ण ज्ञान होगा और मेरी भक्ति तुम्हारे हृदय में निवास करेगी।" बालक और कोई नहीं, वे चरित्रनायक श्रीधर स्वामी ही थे।
अब इस बालक की विद्वत्ता का क्या पूछना। भगवान की दी हुई विद्या की लोक में भला, कौन बराबरी कर सकता था। बड़े-बड़े विद्वान इनका सम्मान करने लगे। राजा इन्हें आदर देने लगे। धन का अभाव नहीं रहा। विवाह हुआ और पत्नी आयी। परंतु भगवान के भक्त विषयों में उलझा नहीं करते और न दयामय भगवान ही भक्तों को संसार के विषय में आसक्त रहने देते हैं। गृहस्थ होकर भी इनका चित्त घर में लगता नहीं था। सब कुछ छोड़कर केवल प्रभु का भजन किया जाय, इसके लिये इनके प्राण तड़पते थे। इनकी स्त्री गर्भवती हुई, प्रथम सन्तान को जन्म देकर वह परलोक चली गयी। स्त्री की मृत्यु से इन्हें दु:ख नहीं हुआ। इन्होंने इसे प्रभु की कृपा ही माना। परंतु अब नवजात बालक के पालन-पोषण में व्यस्त रहना इन्हें अखरने लगा। ये विचार करने लगे- "मैं मोहवश ही अपने को इस बच्चे का पालन-पोषण करने वाला मानता हूँ।
जीव अपने कर्मों से ही जन्म लेता है और अपने कर्मों का ही फल भोगता है। विश्वभर भगवान ही सबका पालन तथा रक्षण करते हैं।" ये शिशु को भगवान की दया पर छोड़कर भजन का निश्चय करके घर छोड़ने को उद्यत हुए, किन्तु बच्चे के मोह ने एक बार रोका। लीलामय प्रभु की लीला से इनके सामने घर की छत से एक पक्षी का अण्ड़ा भूमि पर गिर पड़ा और फूट गया। अण्डा पक चुका था। उससे लाल-लाल बच्चा निकलकर अपना मुख हिलाने लगा। इनको ऐसा लगा कि इस बच्चे को भूख लगी है, यदि अभी कुछ न मिला तो यह मर जायगा। उसी समय एक छोटा कीड़ा उड़कर फूटे अण्ड़े के रस पर आ बैठा और उसमें चिपक गया। पक्षी के बच्चे ने उसे खा लिया। भगवान की यह लीला देखकर श्रीधर स्वामी के हृदय में बल आ गया। ये वहाँ से काशी चले आये। विश्वनाथपुरी में आकर ये भगवान के भजन में तल्लीन हो गये।
'गीता', 'भागवत', 'विष्णुपुराण' पर श्रीधर स्वामी की टीकाएँ मिलती हैं। इनकी टीकाओं में भक्ति तथा प्रकम का अखण्ड प्रवाह है। एकमात्र श्रीधर स्वामी ही ऐसे हैं कि जिनकी टीका का सभी सम्प्रदाय के लोग आदर करते हैं। कुछ लोगों ने इनकी भागवत की टीका पर आपत्ति की, उस समय इन्होंने वेणीमाधव जी के मन्दिर में भगवान के पास ग्रन्थ रख दिया। कहते हैं कि स्वयं भगवान ने अनेक साधु-महात्माओं के सम्मुख वह ग्रन्थ उठाकर हृदय से लगा लिया। भगवान के ऐसे लाडले भक्त ही पृथ्वी को पवित्र करते हैं।