पाठकीय प्रतिक्रिया
यशवन्त कोठारी
काल के कपाल पर हस्ताक्षर –धुंधले है.
हरिशंकर परसाई की जीवनी पर राजेन्द्र चंद्रकांत राय का उपन्यास आया है. पुस्तक प्रकाशक से लेना चाहता था मगर ओनलाइन खरीदी की. 663 पन्नों की किताब को पढने में काफी समय लगा. परसाई के जीवन पर उनका खुद का लिखा भी काफी पढ़ा था कांति कुमार जैन का लिखा भी पढ़ा था. लाडनूं के एक समारोह में स्व. शरद कोठारी से भी मुक्तिबोध –परसाई के बारें में बहुत कुछ सुना उन्होंने एक किताब भी दी थी. सारिका में छपा गर्दिश के दिन भी याद आया, परसाई. रचनावली अक्सर टटोल लेता हूँ कभी कभी प्रेरणा भी ले लेता हूँ या कहे आईडिया चुरा लेता हूँ लेकिन गिल्टी कोंशियस नहीं होता. खैर चलो किताब की बात करते हैं
शीर्षक अटल बिहारी वाजपई की एक कविता का अंश है. जो विचारा जाना चाहिए. परसाई का बेहतर फोटो कवर पर लगाया जा सकता था.
प्रेम चंद पर भी इतना बड़ा उपन्यास नहीं लिखा गया है, परसाई जी मार्क्सवादी थे और इस उपन्यास में भी यही सब झलका है. लेकिन कर्मकांड उनके परिवार में भी हुए, गरीबी बेरोज़गारी, बीमारी का यह दस्तावेज़ लगभग हर भारतीय की नियति है. नौकरी न मिलना या छोड़ देना की जिक्र इस रचना में बार बार आता है. बड़ा परिवार उस समय की एक सामान्य घटना है. साहित्य का संघर्ष इस किताब में बखूबी दिखाया गया है. लेकिन कहीं भी रचनाओं किअस्वीकृति कि चर्चा नहीं है जो होनी ही चाहिए. धर्मयुग का बर्बर जिक्र है मगर कुछ विवाद के बाद उन्होंने लम्बे समय तह धर्मयुग में कुछ नहीं भेजा, यहाँ तक की अकादमी पुरस्कार के बाद भी कुछ नहीं भेजा. कुछ आलोचकों के अनुसार उनका बहुत सा लेखन पार्टी प्रचार साहित्य की तरह लगता है. एक नए आलोचक ने उनके लेखन में राष्ट्र वादी विचार भी ढूढ़ लिए है.
अपनी पहली पुस्तक को छपवाने का संघर्ष हर लेखक इसी तरह करता है, ३५० रुपयों में एक हज़ार किताब छपना व उसे डेढ़ रुपयों में बेचने का वर्णन है. राज्य सभा में न जा पाने का मलाल भी दीखता है. अकादमी पुरस्कार मिलने की विषद चर्चा की गुंजाईश थी जिसे लेखक ने कोई तवज्जों नहीं दी वसुधा पत्रिका के संघर्ष की कथा जरूर प्रभावशाली है. यहाँ भी आर्थिक संघर्ष ही हावी रहता है.
शकुन्तला प्रकरण जहाँ जहाँ भी आया है रूमानी आभास देता है परसाई कुंतल के प्रेम में यह नहीं समझ पाए की यह प्लेटोनिक है या शारीरिक या केवल रूमानी, कुंतल तो अपने आपको श्रीमती हरिशंकर परसाई मान बैठी, काश लेखक इस प्रकरण को ज्यादा नहीं खींचते. जो संवाद दिए गए है वे कल्पना की उड़ान है. प्रेम चंद पर धर्मवीर का लिखा –प्रेमचंद की नीली आँखे याद आ गया. भारतेंदु के प्रकरणों पर भी कई किताबें आई है, विदेशों में तो यह बहुत बढ़िया विषय माना जाता है. लेखक की जीवनी में प्रेम प्रसंगों पर न्याय करना आसन नहीं है. किशोर कुमार के बहाने हिंदी सिनेमा की भी काफी चर्चा है, परसाई फिल्मों में नहीं गए ठीक ही किया. उपन्यास में कई फ़िल्मी गाने है हो रचना की गंभीरता को कम करते हैं, जीवनी परक उपन्यास में जो कम जोरियां होती है वो यहाँ भी है. बहनों की शादियाँ या बुआ के परिवार या अपने ताऊ परिवार को संभालना उस समय की सामान्य सामाजिक क्रिया थी वो तो आजकल सब बदल गया है मैं मेरी बीबी और छोटू बस.
रचनावली प्रकाशन और इस की समस्या पर भी उपन्यास में वर्णन दिया जाता तो बेहतर होता. शरद जोशी ने लिखा भी था –संत सीकरी में व्यस्त है. परसाई पर हुए निंदनीय हमले पर भी प्रकाश डाला गया है जो उचित है.
लेनिन को भी मास्को आने के लिए कोसर की ट्रेन की जरूरत पड़ती है इसे मार्क्स वाद से भी समझा जा सकता है. परसाई के लेखन का मुरीद हूँ लेकिन इस उपन्यास का मुरीद नहीं बन पाया इसका दुःख है.
परिशिष्ट में भी काफी जान कारियां है जो शोधार्थियों के काम आएगी.
आज़ादी के बाद की विकास यात्रा को भी इस उपन्यास के साथ जोड़ा जा सकता है तत्कालीन सामाजिक सरोकारों पर लेखक या ज्यादा नहीं कहते.
बुन्देली भाषा का प्रयोग सराहनीय है लेखक कहीं कहीं व्यग्यकार भी हो गए है जो आनंद देता है.
राजेन्द्र को बधाई की उन्होंने एक वृहद कार्य किया भारतीय लेखकों पर ऐसा काम देखने -कहने में नहीं आया.
बाण भट्ट की आत्म कथा, आवारा मसीहा पढने वालों को यह रचना पसंद आएगी.
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