unique gathering in Hindi Children Stories by DINESH KUMAR KEER books and stories PDF | अनोखी सभा

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अनोखी सभा

1. अनोखी सभा

आधी रात का समय था। एकदम शान्त सा वातावरण लग रहा था, लेकिन कुछ आवाजें जो नदी तट से आ रही थी, मानों कोई मीटिंग चल रही हो। मैंने बिस्तर से उठकर देखा, वहाँ तो सचमुच मीटिंग ही चल रही थी।
नदी तट के सारे वृक्ष, कलकल बहती नदी, दूरभाष से सूरज दादा, आसमान से चंदा मामा, टिमटिमाते तारे, धरती माता, जंगल के सारे जीव - जन्तु उस अनोखी सभा में अपने - अपने विचार व्यक्त कर समस्याओं का हल खोज रहे थे।
आहत मन से वृक्ष बोल रहा था कि- "काटो जंगल, करो विकास की नीति पर चल रहे इंसान को मैं क्या कहूँ? यह भौतिकता के पीछे इतना तेज भाग रहा है कि उसे अपने नुकसान की बिल्कुल फिक्र नहीं है।" पानी को गंदा करना और बर्बाद करने के बारे में नदी ने अपना रोष व्यक्त किया।
हिरन, शेर, चीता, हाथी आदि सभी जानवरों ने अपनी व्यथा बताई कि किस प्रकार इंसान उनको मार - मार कर उनके मांस, खाल और दाँत का प्रयोग कर रहा है।
आसमान से चंदा मामा और टिमटिमाते तारे सबकी बातें ध्यान से सुन रहे थे और दुःखी हो रहे थे।
मीटिंग के अंत में सभा की अध्यक्षता कर रहे अपने सूरज दादा ने सभी को ढांढस बँधाते हुए कहा- "मैं तुम सभी के साथ इस जीव द्वारा किए जा रहे अत्याचार से वाकिफ़ हूँ। मैं बार - बार अपनी गर्मी से इस जीव को चेतावनियाँ भी देता हूँ, लेकिन समझदार होकर भी यह नासमझी करता है।" सूर्य देव ने पुनः सबको आश्वस्त करते हुए कहा कि - " इस बार इस जीव को राह पर लाने के लिए मैं अपनी किरणों का तेज़ प्रकाश छोङूँगा।"
उसी समय कुछ भले मानसों का काफिला सभा के निकट से गुज़रा और उन्होंने मीटिंग में हो रही बातों को सुना तथा प्रतिज्ञा की कि हम इंसानों को सही राह पर लायेंगे।
अगली सुबह सूर्य की तपिश से शुरू हुई, लोग बेहाल होने लगे। भले मानसों ने एक से अनेक की श्रृंखला बनाते हुए -
"एक काटो, सात लगाओ ।
अपना जीवन आप बचाओ ।।"
कुछ दिनों बाद स्थिति में सुधार हुआ। वरूण देव को इंसानों पर दया आ गयी। मेघ झूम - झूमकर बरसे। अब पूरी धरती खुशहाल है, चारों तरफ हरियाली का उत्सव है। मैं भी उस मीटिंग को कभी - कभी याद करती हूँ, जिसका परिणाम इतना सुहावना रहा।

संस्कार संदेश: - मिट्टी, पानी, हवा, धरती, आसमान, जीव - जन्तु सभी की सुरक्षा और संरक्षण हमारी जिम्मेदारी है ।

2.
आज जिस्म ने रूह से बग़ावत की है,
नज़रों ने तुम्हें देखने की हिमाक़त की है ।

आसाँ होता जो पी लेते हिज़्र का ज़हर हम,
कि दिल ने वस्ल - ए - यार की चाहत की है ।

पूजते जो इतना तो रब भी मिल जाते शायद,
जाने किस पत्थर दिल से हमने मोहब्बत की है ।

मेरे हमनफ़स तुम्हारी आँखों से देखनी थी दुनियां,
मयस्सर चराग़ नहीं और जुगनुओं की हसरत की है ।

पैरहन समझ 'संवेदना' वो बदलते रहे चाहत अपनी,
ख़ुश रहो तुम सदा हमने तो तुम्हारी इबादत की है ।

पैरहन = वस्त्र