1.
मेरी खामोशी का शोर
वो बड़ी जोर से सुनता है।
जो बात मैं कहता नही
उसको वो ज्यादा गौर से सुनता है।।
देर है पर अंधेर नही
ऐसी कोई रात नही जिसकी सवेर नही।
हां कभी कभी रात का दर्द ऐ अफसाना
वो तड़के भोर को सुनता है।।
ना हाथ फैलाता हूं कभी
ना हाथ जोड़ता हूं कभी।
ना पूरब को बैठता हूं
ना पश्चिम को कभी।
किसी एक दिशा का वो राजा थोड़ी है
वो तो आकाश है चारो ओर से सुनता है।।
अब मेरा साथ मत छोड़ना
बिलकुल आखरी सीढ़ी पर हू
गिरा तो मर जाऊंगा
कृपया मेरा हाथ मत छोड़ना।।
2.
ऐसा नहीं होता वैसा नहीं होता?
जिंदगी इक ख्वाब है प्यारे
ख्वाबों में भला
क्या क्या नहीं होता।।
क्या जाने वो बचपन की मस्ती को
बच्चो के साथ जो बच्चा नहीं होता
इन्कार कर पहले अपने वजूद से
फिर कहना कि ख़ुदा नहीं होता
देता रह आवाज कोई तो सुनेगा
सारा ही जमाना तो बहरा नहीं होता
मिटा के देख लिया खिजां ने कई बार
फूल खुशबू से कभी जुदा नहीं होता
कमियां तो तुझमें भी होगी जरूर
यूं ही तो कोई बेवफा नहीं होता।
अच्छा बुरा सब यहां हालात की पैदाइश है
कोई मां के पेट से बुरा बनकर पैदा नही होता।।
ना जाने कितने ख्यालों को साथ लिए चलता है
आदमी तन्हा होकर भी कभी तन्हा नहीं होता।।
हर शय कायनात में किसी मकसद से है
इक तिनका भी यहां जा़या नहीं होता।
अपने दिल से पूछो दिल लगाने का हुनर
कैसे कोई अजनबी अपना नही होता।।
कुछ भी रहता नहीं हमेशा इस जहां में लेकिन
किसी भी शय का बीज कभी फ़ना नहीं होता
यहीं के करिंदों ने दुकानें
वहां भी खोल रखी हैं प्यारे
जन्नत में कुछ भी अलग
कुछ भी नया नहीं होता।।
3.
कभी देखा तो नही
मगर
देखा देखा सा लगता है
इक अजनबी मुझे
अपना अपना सा लगता है।।।
जैसे कोई फूल टूट के गिरा हो
लचकती डाली से
जैसे कोई दिया गिरा हो
आरती की
थाली से।।
जैसे कोई तारा टूट के गिरा हो
गगन से
जैसे कोई भंवरा लापता
हो गया हो
चमन से।।
जैसे कोई लहर छूट गई हो
समंदर से
जैसे कोई आह निकली हो
मेरे अंदर से।।
जैसे कोई बच्चा खो गया हो
अपनी मां से
जैसे कोई परदेसी हो गया हो
अपने गांव से।।
जैसे कोई हाथ सुन्न हो गया हो
अपने शरीर से
जैसे कोई लकीर गायब हो गई हो
अपनी तकदीर से।।
जैसे रूह निकल के अपने जिस्म को
पहचान रही हो
जैसे रात अपने ही अंधकार से
हो हैरान रही हो।।
जैसे सूरज अपनी ही किरण को
बेगानी धरती पर
चमकता हुआ
देख रहा हो।।
जैसे बादल अपनी ही बूंदों को
पेड़ के पत्तों से
ओस बनकर टपकता हुआ
देख रहा हो।।
ऐसे ही मैं इस अजनबी को
देख रही हूं
जैसे आईने में खुद को ही
देख रही हूं।।
मेरा ख्याल मदहोशी बन के
मेरे चारो ओर झूम रहा है
मेरा दिल कल्पना के रथ पर
आंखों के सामने घूम रहा है
कभी तो ये सब मुझे
हकीकत लगता है
कभी सपना सा लगता है
ये अजनबी मुझे
आखिर क्यों
अपना अपना सा लगता है।।
4.
वो भी तन्हा थी मैं भी तन्हा
किसी को मगर कहना ना आया।
हुई थी दिलों में प्रेम की आहट
किसी को मगर सुनना ना आया।।
घर से थे चलते हम आशिक बनकर
वो भी निकलती थी आतिश बनकर।
गुलाबों की महक सांसों में भरकर
अर्ज ए उल्फत एहसासों में भरकर।
मचलते रहे दोनो सागर बनकर
बन प्रेम सरिता बहना न आया।।
उसकी पसंद हर मेरी पसंद थी
मेरी हर बात पे वो रजामंद थी।
बैठा करते थे गुलमोहर के नीचे
फूलों के बिछते थे सुंदर गलीचे।।
कहते थे रहते शब्दों के निबंध हम
नज्म ऐ इश्क पढ़ना न आया।।
कभी साड़ी तो कभी सूट पहनती थी
जुल्फों की बनावट वो रोज बदलती थी।।
मुझको भी आईना अब खूब था भाता
खुद में रोज मैं बदलाव था लाता।।
पर तहज़ीब ऐ विरासत आड़े आ गई
शराफत को शरारत में बदलना न आया।।
दिन हफ्ते महीने गुजरते रहे
हम दोस्त बनकर मिलते रहे।।
कोई बात न बची जिसपे बात न हुई
जो करनी थी बस वोही बात न हुई
बिछड़ गए फिर दोस्त ही बनकर
नदानों को प्रेमी बनना ना आया।।
वो भी तन्हा थी मैं भी तन्हा
किसी को मगर कहना ना आया
हुई थी दिलों में प्रेम की आहट
किसी को मगर सुनना ना आया।।