बरसात के दिन थे। कई दिनों से नींद ठीक से नहीं आ रही थी, खासकर जब से मैं गांव से वापस लौटा था। उसे दिन भी बारिश लगातार सुबह से हो रही थी, इस कारण मैंने छुट्टी ले ली,और मैं घर पर ही
था।
मन कुछ उचाट सा था, तो मैंने रामू काका को छोड़कर बाकी दोनों नौकरों से शाम को जल्दी ही जाने को कह दिया। अब घर में बस मैं था और रामू काका थे। वोबचपन से मुझे जानते थे, मेरे हाव-भाव भांप कर, उन्होंने मेरी पसंदीदा ताहारी बनाई और खाने के लिए पूछा। मेरे आदेश अनुसार थोड़ी ही देर में खाना परोस दिया। मैंने पेट भर के खाना खाया, पेट की भूख तो शांत हो गई परंतु मन भूखा था।
मन में कुछ शंका थी, अजीब सी।
मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था। मन कुछ दबा दबा सा था, मानो कोई अदृश्य भार उसे पर रखा हो।
बारिश अब भी अपने निश्चित वेग से पृथ्वी पर गिर रही थी। इस सब के चलते मुझे कुछ घुटन सी महसूस हुई तो मैं कमरे की खिड़की खोलकर, उसी के पास अपनी कुर्सी सटा कर बैठ गया और खिड़की से निकल रहे प्रकाश में बारिश की बूंदों का पथ देखने लगा और उसी में लीन हो गया। मुझे पता ही नहीं चला कब रामू काका हाथ में दूध का ग्लास लेकर मेरे सामने आ खड़े हुए। उन्होंने कहा,– ’बाबूजी दूध ले आए ,पी लीजिए ’,तो मेरी ध्यान मुद्रा टूटी मैंने कहा, ’काका आज बिल्कुल मन नहीं है’, और फिर अपनी साधना में डूब गया। रामू काका चले गए।
आंखों से नींद तो मानो हमेशा के लिए कहीं चली गई थी।
अब बारिश के साथ तेज हवाएं भी शुरू हो गई थी, शायद इसीलिए बिजली चली गई अब सारे घर में अंधकार का साम्राज्य स्थापित हो गया था। रामू काका सो चुके थे, अब केवल मैं अकेला जाग रहा था। बिजली के चले जाने से मैं बारिश को भी नहीं देख पा रहा था पा रहा था परंतु मैं भली भांति महसूस कर सकता था की बारिश और तूफान अब अपने प्रचंड रूप में आ चुके थे ,पर मेरी खिड़की के ऊपर ढलांतर छज्जा होने के कारण बंदे मुझ तक नहीं पहुंच रही थी। कुछ देर बाद बारिश –तूफान जितनी रफ्तार से अपने प्रचंड रूप में आए थे उतनी ही शीघ्रता से शांत हो गए ,बिल्कुल शांत।
तूफान –बारिश की इतनी भयंकर हुंकारों के बाद एकदम से ऐसी शांति मानो मुझे चीख चीख कर कह रही थी कि इस सारे संसार में अब केवल शून्य का आधिपत्य है। मुझे अब अपनी सांसों की आवाज़ के अलावा कुछ सुनाई ना देता था, कि तभी घड़ी ने टन्न ... की जोरदार आवाज से ग्यारह बजने का इशारा किया। आवाज सुनकर मैं एक बार तो चौक उठा ,परंतु अगले ही पल उसी शून्य में जाने लगा। बादल छटे ,चंद्रमा ने अपनी धीमी धीमी चांदनी भूमंडल में फैलाई,और फिर मध्यम मधम वायु चलने लगी। परंतु अब शून्य का स्थान भय ने ले लिया था।
चंद्रमा पर कृष्ण मेघों की एक बारिक़ परत आ गई थी, जिसने पर्यावरण से स्पष्ट समाप्त कर दी। मेरी खिड़की से ठीक सामने जो पीपल का पेड़ था ,मुझे अभी तक हवा में उसके पत्ते हिलते हुए महसूस हो रहे थे परंतु अब वह किसी प्रेत जैसा प्रतीत होता था, जो अपनी जटाएं खोलकर तांडव कर रहा हो। आभास होता था कि जैसे वह हर पल मेरी ओर बढ़ रहा हो। हालांकि मैं अंधविश्वासी नहीं हूं ,परंतु न जाने क्यों मैं बहुत भयभीत था। मेरे अंदर कुछ कांप रहा था । मैं अपनी कुर्सी से उठ नही पा रहा था। खिड़की बंद करने का ख्याल भी मुझे नहीं आया। अब पेड़ से ध्यान हटाया तो अन्य ध्वनियों पर चला गया। खिड़की के नीचे भरे पानी में गिर रही छज्जे पर से भरी-भरी बूंदें ,उन साधारण सी बूंदों की आवाज़ सुनना मेरे लिए उस समय असहनीय हो रहा था। इससे भी ज्यादा भ्यावक थी, निरंतर आ रही कुछ पक्षियों की आवाज़ें और कुत्तों के एक झुंड की एक साथ रोने की हूंक। इन सब ध्वनियों ने एक साथ मिलकर मेरी अंतरात्मा को झकझोर कर दिया। मैं एक झटके से उठा और खिड़की बंद करदी और शीघ्रता से पलट कर चल दिया, कि सहरसा मेरी कमर को हवा लगने का है आभास हुआ मैं पीछे मुडा तो देखा खिड़की खुली हुई थी, मानो वह पेड़ मेरे पलटते ही खिड़की को धक्का मार कर अपनी जगह पर जाकर खड़ा हो गया हो। मैंने फिर झट से खिड़की बंद कर दी और इस बार कुंडी लगाते हुए ध्यान आया की पहली बार मैं कुंडी नहीं लगाई थी। जैसे ही मैं मुंडा तो मुझे आभास हुआ कि किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा ,मैं तुरंत पीछे मुड़ा,परंतु अंधेरे में मेरी आंखे कुछ ना देख सकी। मैं फिर मुड़कर वापस चलने लगा तो किसी के बड़े-बड़े पंजों ने मेरे दोनों कंधे जकड़ लिए और तेज़ लंबे नाखून मेरी चंडी में घुसाने लगा। चिल्लाने का बहुत प्रयत्न किया, लेकिन आवाज़ मेरे गले से बाहर ना आई।
अब अंधकार के उसे दानव ने अपने नुकीले दांतों से मेरी गर्दन एक झटके में पकड़ ली तो मैं अपना सारा बाल लगाकर चिल्ला उठा। आंखें खुली तो देखा मैं पसीने में तर –बतर था। अपने पलंग पर ही सोता हुआ मैं सपना देख रहा था...
अब मुझे ये खिड़की कभी पेहले जैसे सुंदर दृश्य न दिखा सकेगी।।