श्रीपूर्णजी की महिमा अपार है, कोई भी उसका वर्णन नहीं कर सकता है। आप उदयाचल और अस्ताचल –इन दो ऊँचे पर्वतके बीच बहनेवाली सबसे बड़ी (श्रेष्ठ) नदीके समीप पहाड़की गुफामें रहते थे। योगकी युक्तियोंका आश्रय लेकर और प्रभुमें दृढ़ विश्वास करके समाधि लगाते थे। व्याघ्र, सिंह आदि हिंसक पशु वहीं समीपमें खड़े गरजते रहते थे, परंतु आप उनसे जरा भी नहीं डरते थे। समाधिके समय आप अपान वायुको प्राणवायुके साथ ब्रह्माण्ड को ले जाते थे, फिर उसे नीचेकी ओर नहीं आने देते थे। आपने उपदेशार्थ साक्षियोंकी, मोक्षपद प्रदान करनेवाले पदोंकी रचना की। इस प्रकार मोक्षपदको प्राप्त श्रीपूर्णजीकी महिमा प्रकट थी।
श्रीपूर्णजीके विषयमें विशेष विवरण इस प्रकार है— श्रीपूर्णजी भगवत्कृपाप्राप्त श्रीरामभक्त सन्त थे। एक बार आपका शरीर अस्वस्थ हो गया। आपको औषधिके लिये औंगरा (एक जड़ी) की आवश्यकता थी। इनके मनकी बात जानकर भगवान् श्रीरामचन्द्रजी ने एक ब्राह्मण का रूप धारण किया और औंगरा लाकर दिया, जिससे ये स्वस्थ हो गये। भगवत्कृपाका अनुभव करके आप प्रेम-विभोर हो गये। आश्रमसे कुछ दूरपर नगर था, वहाँ यवन बादशाह रहता था। उसकी कन्या ने श्रीपूर्णजी का दर्शन किया तो वह अत्यन्त ही प्रभावित हो गयी। उसने अपने पिता से कहा कि मैं दूसरे किसीके साथ व्याह न करूंगी। संसारी सुखों की मुझे बिल्कुल इच्छा नहीं है। आप मुझे श्रीपूर्णजीकी सेवामें रख दीजिये। बादशाह ने श्रीपूर्णजी के पास आना-जाना प्रारम्भ किया और अपनी दीनता से उन्हें प्रसन्न कर लिया। किसी दिन आपने उससे कहा कि चाहो सो माँग लो। तब उसने यही वरदान माँगा कि मेरी कन्या को आप अपनी सेवामें रख लीजिये। यह अन्यत्र नहीं जाना चाहती है। आपने कहा कि हम विरक्त साधु हैं, अपना धर्म छोड़कर उसे संसारी सुख नहीं दे सकते हैं। वह मेरे निकट रहकर भजनसाधन कर सकती है। यवन-कन्याकी भी यही इच्छा थी, अतः वह आपके पास रही। आप पूर्ण अकाम थे, अतः इस परीक्षामें उत्तीर्ण हुए। कुछ काल बाद यवन-कन्या सत्संग-लाभ लेकर सद्गति को प्राप्त हो गयी।
श्रीपूरनजी का नाम श्रीअग्रदेव जी के शिष्योंमें आया है। एक बार आप स्वर्णरेखा नदीके तटपर स्थित पीपलकी छायामें विराजे थे। भगवत्स्मरण करते हुए शान्त-एकान्तमें आपको निद्रा आ गयी। वृक्षकी खड़खड़ाहटसे आपकी नींद खुली तो आपने एक वानर को पीपल पर इधर-उधर कूदते देखा। उसी समय वानर के मुख से ‘दासोऽहं राघवेन्द्रस्य’ यह स्पष्ट सुनायी पड़ा। साक्षात् श्रीहनुमान् जी हैं, यह जानकर आपने साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया और हनुमदाज्ञा से उसे पवित्र स्थल जानकर आपने वहीं अपना निवासस्थान बनाया और वहाँ श्रीहनुमान्जीकी प्रतिमा स्थापित की। भगवन्नाम-जप के प्रभाव से आपमें सर्वसिद्धियाँ आ गयीं। सुख-शान्ति के निमित्त आने वाले जनसमुदाय के मनोरथ पूर्ण होने लगे। आपकी प्रसिद्धि हो गयी।
वह अकबरका शासन-काल था। दुष्ट यवन हिन्दू धर्ममें अनेक प्रकारसे बाधा करते थे। साधुका सुयश न सह सकने वाले यवन अधिकारियोंने आदेश दिया कि शंख-घण्टानाद मत करो। आपने सुनी-अनसुनी कर दी। सायंकाल को आपने जैसे ही शंखध्वनि की, कई सिपाहियों के साथ मुस्लिम थानेदार इनायत खाँ पकड़ने आ गया, पर पकड़ न सका, क्योंकि मन्दिरके चारों ओर बड़े-बड़े बन्दरोंकी भीड़ थी। सब निराश लौट गये। दूसरे दिन शंख बजते ही वे लोग पुनः पकड़ने आये तो उनके आश्चर्यका ठिकाना न रहा। बाबाजीका छिन्न-भिन्न मृत शरीर देखकर वे खुश हुए और लौट चले। अभी वे चौकीपर पहुँचे भी न थे कि पुनः शंख बजा। वापस आकर देखा तो फिर वही दृश्य। इनायत खाँ ने इनकी सिद्धियों का चमत्कार अकबर को लिख भेजा। उसे पुत्रकी कामना थी, अतः एक दिन वह हाथी पर चढ़कर आया।
श्रीपरमानन्दाचार्यजी ने सब कुछ जान लिया। उसे सदलबल सन्तके पास आते देखकर अहंकारी अनधिकारी समझा। आप जिस चौकीपर बैठे थे, उसके सहित उड़कर आकाशमें हाथीके हौदेसे ऊपर स्थित हो गये और बोले— "गर्व छोड़ो, सम्पत्ति और राज्य नश्वर हैं। हिन्दू-मुस्लिम सभी तुम्हारे लिये समान हैं। मुझ सन्त के आशीर्वाद से तो पुत्र भी सन्त हो जायगा। अतः तुम सलीम शाह चिस्ती (फतेहपुर सीकरी) के पास जाकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करो।" श्रीपरमानन्दाचार्य के रूपको देखकर अकबर को विराट्-स्वरूप का ध्यान हो आया और तब उसने हाथ जोड़कर कहा- “आप पूर्णवैराठी हैं।” तभीसे आपका यह नाम प्रसिद्ध हो गया। पूर्वाश्रममें आपका नाम परमेश्वर प्रसाद था। श्रीअनन्तानन्दाचार्य के प्रशिष्य खेमदास जी से आपने सं० १५७५ में विरक्त दीक्षा ली। ग्वालियरमें आपकी गद्दी है। आपने सं० १६६१ में कालूरामाचार्यको दीक्षा दी। आपके द्वारा संस्थापित श्रीहनुमान् मन्दिर आपके शिष्यों-प्रशिष्योंके द्वारा अधिक समृद्ध हुआ। इसे ग्वालियर राज्य से जागीर भी मिली थी। इसी परम्परामें श्रीगंगादासजी के नाम पर संस्थापित गंगादासजी की बड़ी शाला ग्वालियरमें प्रसिद्ध है।