Shri Sagarji in Hindi Mythological Stories by Renu books and stories PDF | श्री सगरजी

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श्री सगरजी


इक्ष्वाकुवंश में राजा हरिश्चन्द्र नामके चक्रवर्ती सम्राट् थे। उनके पुत्रका नाम रोहित था। रोहित से हरित का और हरित से चम्प का जन्म हुआ, जिसने चम्पापुरी बसायी। चम्प का सुदेव, सुदेव का विजय, विजय का भरुक, भरुक का वृक और वृक का पुत्र हुआ बाहुक। शत्रुओं ने बाहुक से राज्य छीन लिया तो वे अपनी पत्नी के साथ वन में चले गये। वन में जाने पर बुढ़ापे के कारण जब उनकी मृत्यु हो गयी तो उनकी पत्नी भी उनके साथ सती होने को उद्यत हुईं; परंतु महर्षि और्व को यह मालूम था कि रानी गर्भवती हैं, अतः उन्होंने उन्हें सती होने से रोक दिया। जब उनकी सौतों को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने रानी को भोजन में विष मिलाकर दे दिया। परंतु ईश्वर-कृपा से गर्भ पर उस विष का कोई प्रभाव नहीं हुआ और विष (गर) – सहित बालक का जन्म हुआ था, अतः वह बालक - 'सगर' नाम। से प्रसिद्ध हुआ।

सगर चक्रवर्ती सम्राट् थे। उन्हीं के पुत्रों ने पृथ्वी खोदकर समुद्र बना दिया था। सगर के पिता महाराज बाहुक का राज्य तालजंघ, यवन, शक, हैहय और बर्बर जाति के लोगों ने छीन लिया था । सगर ने गुरुदेव और्व से सम्पूर्ण धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्तकर इन जातियों पर आक्रमण कर दिया और बुरी तरह पराजित कर दिया; परंतु अपने गुरुदेव और्व की आज्ञा मानकर उन सबका वध नहीं किया, बल्कि उन्हें विरूप बना दिया।

इसके बाद राजा सगर ने और्व ऋषि के उपदेशानुसार अश्वमेध यज्ञ द्वारा भगवान् की आराधना की। उनके यज्ञ में जो घोड़ा छोड़ा गया, उसे इन्द्र ने चुरा लिया। उस समय महारानी सुमति के गर्भ से उत्पन्न साठ हजार सगर-पुत्रों ने अपने पिता के आज्ञानुसार घोडे के लिये सारी पृथ्वी छान डाली। खोदते-खोदते उन्हें पूर्व और उत्तर के कोने में कपिल मुनि के पास अपना घोड़ा दिखायी दिया। घोड़े को देखकर वे साठ हजार राजकुमार शस्त्र उठाकर यह कहते हुए उनकी ओर दौड़ पड़े कि 'यही हमारे घोड़े को चुराने वाला चोर है। देखो तो सही, इसने इस समय कैसे आँखें मूंद रखी हैं। यह पापी है। इसको मार डालो, मार डालो !' उन उद्दण्ड राजकुमारों ने कपिल मुनि-जैसे महापुरुष का तिरस्कार किया था, जिसके कारण उन सबके शरीर में ही आग जल उठी और वे सब-के-सब क्षणभरमें भस्मीभूत हो गये।

महाराज सगर की दूसरी पत्नी से असमंजस नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ था। असमंजस पूर्वजन्म के योगी थे, अतः उन्होंने वन में जाकर योगमार्ग का अनुसरण किया। असमंजस के पुत्र का नाम था अंशुमान्। वह अपने पितामह महाराज सगर का आज्ञाकारी था। उनकी आज्ञा से अंशुमान् घोडे को ढूँढ़ने के लिये निकला। वह भी उसे हूँढ़ते-ढूँढ़ते कपिल मुनि के आश्रम पर पहुँचा। वहाँ उसे अपने चाचाओं के शरीर की भस्म, यज्ञीय अश्व और भगवान् कपिल मुनि के दर्शन हुए। अंशुमान्ने उनके चरणों में प्रणाम किया और एकाग्र मन से उनकी स्तुति की। अंशुमान् की विनम्रता और साधु भाव से भगवान् कपिल बहुत प्रसन्न हुए और बोले– वत्स अंशुमन् ! यह घोड़ा तुम्हारे पितामह का यज्ञ पशु है। इसे तुम ले जाओ। तुम्हारे भस्मीभूत हुए चाचाओं का उद्धार केवल गंगाजल से होगा और कोई उपाय नहीं है। अंशुमान्ने बड़ी नम्रता से उन्हें प्रसन्न किया और उनकी परिक्रमा करके वे घोड़े को ले आये। राजा सगर ने उस यज्ञ पशु द्वारा यज्ञ की शेष क्रिया पूरी की और अंशुमान् को राज्यभार सौंप स्वयं विषयों से नि:स्पृह और बन्धनमुक्त हो गये। उन्होंने महर्षि और्व के बतलाये मार्गसे परमपद की प्राप्ति की।