जल-थल और अग्नि आदि में सर्वत्र अपने इष्ट का ही दर्शन करूंगा — यह प्रतिज्ञा श्री नामदेव जी की उसी प्रकार निभी, जैसे कि त्रेतायुग में नरसिंह भगवान् के दास श्री प्रह्लाद जी की निभी थी। बचपन में ही उनके हाथ से विट्ठलनाथ भगवान्ने दूध पिया। एक मरी हुई गाय को आपने जीवित करके असुर यवनों को अपने भजनबल का परिचय दिया। फिर उस यवन राजा के द्वारा दी गयी शय्या को नदी के अथाह जल में डाल दिया। उसके आग्रह पर उसी तरह की अनेक शय्याएँ निकालकर दिखा दीं। पण्ढरपुर में पण्ढरीनाथ भगवान् के मन्दिर का द्वार उलटकर आपकी ओर हो गया, इस चमत्कार को देखकर मन्दिर के पुजारी सभी श्रोत्रिय ब्राह्मण लोग संकुचित और लज्जित हो गये। प्रेम के प्रभाव से पण्डरनाथ भगवान् आपके पीछे-पीछे चलने वाले सेवक की तरह कार्य करते थे। आग से जल जानेपर अपने हाथों से भगवान्ने आपका छप्पर छाया।
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श्री नामदेवजी के बचपन के भक्तिमय चरित—
श्री नामदेव जी बचपन में खिलौनों से खेलते थे, आप खेल में ही भगवान् की सेवा-पूजा करते थे, वे किसी काष्ठ या पाषाण की मूर्ति बना लेते और फिर उसे बड़े प्रेम से वस्त्र पहनाते, भोग लगाते, घण्टा बजाते तथा नेत्र बन्द करके मन में अच्छी तरह भगवान् का ध्यान करते। वे जैसे-जैसे इन कार्यो को करते थे, वैसे-वैसे वे अत्यन्त सुख पाते थे। प्रेमवश उनके नेत्रों में जल भर जाता। नामदेव जी अपने नाना वामदेव जी से बारबार कहते कि भगवान् की सेवा मुझे दे दीजिये। सेवा मुझे बहुत प्यारी लगती है। इस प्रकार नामदेव जी ने बार-बार कहा। कुछ समय बाद वामदेव जी ने नामदेव से कहा कि मैं एक गाँव को जाऊँगा और तीन दिन में लौट आऊँगा, तब तक तुम भगवान् की सेवा करना और भगवान् को दूध पिलाना, स्वयं मत पी जाना। यदि अच्छी प्रकार से तीन दिन सेवा करोगे तो तुम्हें ही सेवा सौंप दी जायगी।
श्री नामदेव जी के हृदय में सेवा प्राप्त करने की लालसा बढ़ी, वे नानाजी से बार-बार पूछते कि अभी आप गये नहीं ? एक दिन नाना जी के बाहर गाँव जाने का समय आ गया, वे चले गये। नामदेव जी ने अच्छी तरह देख भालकर कड़ाही में दो सेर दूध डाला और मन में निश्चय किया कि दूध को औटाकर अति उत्तम बनाऊँ, जिससे प्रसन्न होकर प्रभु पी लें। श्री नामदेव जी के हृदय में प्रेम की बड़ी भारी उमंग थी, उन्हें चिन्ता भी थी कि सेवा में कोई त्रुटि न हो जाय।
बालक नामदेव जी दूध औटाकर उसे एक सुन्दर कटोरे में भरकर भगवान् के समीप ले आये। दूध में इलायची और मिश्री मिलायी। दूध पिलाने की आशा से परदा कर दिया। कुछ देर प्रेम की लम्बी श्वासे भरते रहे फिर परदा हटाकर देखा तो दूध भरा कटोरा ज्यों-का-त्यों रखा था। इससे इनके मन में बड़ी निराशा हुई और भगवान् से प्रार्थना करने लगे कि प्रभो! आप दूध पीकर तृप्त हो जायँ ।
श्री नामदेव जी भगवान् को दूध-भोग लगाते और यह देखते कि भगवान्ने दूध नहीं पिया है, इस प्रकार दो दिन बीत गये। स्वयं भी उन्होंने अन्न-जल आदि कुछ भी ग्रहण नहीं किया और इस बात को अपने मन में ही छिपाकर रखा। माताजी को भी नहीं बताया और भूखे-प्यासे ही रात को सो गये, पर चिन्ता के कारण निद्रा नहीं आयी। तीसरे दिन का सबेरा हुआ, फिर उसी प्रकार सावधानी से दूध को औटाया इलायची, मिश्री मिलायी और आज प्रभु अवश्य ही दूध पी लेंगे — इस भाव से मन को मजबूत करके भगवान् के सामने दूध रखा और कहा — प्रभो! (नानाजी दूध पिलाने को कह गये थे) आप दूध को पीजिये, तभी मैं प्रसन्न होऊँगा। इतने पर भी जब भगवान्ने दूध नहीं पिया, तब श्री नामदेव जी बोले— मैं बारम्बार आपसे दूध की विनती करता हूँ, परंतु आप दूध नहीं पीते हैं। कल प्रात:काल नानाजी आ जायँगे और वे हम पर रुष्ट होंगे, फिर कभी सेवा मुझे नहीं देंगे। इसलिये ऐसे जीने से तो मरना ही अच्छा है। ऐसा कहकर छुरी निकाली और भगवान् को दिखाकर अपना गला काटने के लिये गले पर छुरी चलाना ही चाहते थे कि भगवान्ने हाथ पकड़ लिया और कहा कि अरे! ऐसा मत करो, मैं अभी दूध पीता हूँ। यह कहकर भगवान् दूध पीने लगे। श्री नामदेव जी ने देखा कि ये तो सब दूध पी जायँगे, तब बोले कि थोड़ा-सा प्रसाद मेरे लिये भी रहने दीजियेगा; क्योंकि नाना जी के भोग लगाने पर मैं सदा दूध-प्रसाद पीता था।
चौथे दिन वामदेव जी गाँव से लौटकर आये और नामदेव जी से अच्छी प्रकार सेवा की या नहीं यह पूछा तो इन्होंने अत्यन्त प्रेमरंग में भरकर दुग्धपान लीलाका सारा वर्णन किया। यह सुनकर वामदेव जी ने कहा कि मेरे सामने फिर पिलाओ, तब हम जानें। तब श्री नामदेव जी ने उसी प्रकार दूध तैयार करके भगवान् के सामने रखा, पर भगवान्ने नहीं पिया, तब अड़ गये उसी प्रकार छुरी निकालकर गला काटने को तैयार हो गये कि कल पीकर आज नाना जी के सामने मुझे झूठा बनाना चाहते हो। आपको दूध पीना ही पड़ेगा । बालक के प्रेमहठ से प्रसन्न होकर भगवान्ने वामदेव जी के देखते-देखते दूध पिया और प्रसाद नामदेव को पिलाया। वामदेव जी ने सोचा कि मैंने जीवन भर सेवा की, पर दर्शन नहीं हुए। आज बालक के प्रभाव से दर्शन हुए। इस प्रसंग के द्वारा भगवान्ने यह दिखला दिया कि मैं भक्त के वश में होकर उसके प्रेम के कारण अर्पित भोग को ग्रहण करता
हूँ।
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श्री नामदेव जी की भगवद्भक्ति और गो भक्ति—
एक बार मुसलमानों के राजा सिकन्दर लोदी ने श्री नामदेव जी को बुलवाकर कहा कि आप साहब से मिले हैं, उनका दर्शन करते रहते हैं – ऐसा मैंने सुना है तो हमें भी साहब से मिला दीजिये और कुछ विचित्र चमत्कार दिखलाइये। श्री नामदेव जी ने कहा कि यदि हममें कोई शक्ति या चमत्कार होता तो फिर खाने के लिये दिनभर धंधा ही क्यों करते? किसी प्रकार दिनभर धंधा (सिलाई छपाई) करने से जो भी कुछ मिल जाता है, उसे सन्तों के साथ बाँटकर खाता हूँ। उन्हीं संतों की सेवा के प्रताप से लोग मुझे भक्त कहते हैं और दूर-दूर तक मेरा नाम फैल गया है, तभी आपने भी हमें यहाँ अपने दरबार में बुलाया है। यह सुनकर बादशाह ने कह आप इस मरी हुई गाय को जीवित कर दीजिये और अपने घर को जाइये, नहीं तो कारागार में रहना पड़ेगा; क्योंकि तुम झूठे भगत बनकर लोगों को ठगते हो। तब आपने सहज स्वभाव से एक प्रार्थना का पद-गाकर गाय को जीवित कर दिया और प्रभुकृपा का अनुभव करके सुखी हुए। यह देखकर बादशाह अति प्रसन्न हुआ और श्री नामदेव जी के चरणों में पड़ गया।
यह विचित्र चमत्कार देखकर बादशाह ने श्री नामदेव जी से कहा कि आप कृपा करके कोई देश या गाँव ले लीजिये, जिससे मेरा भी कुछ नाम हो जाय। आपने उत्तर दिया कि हमें कुछ भी नहीं चाहिये। फिर बादशाह ने एक मणि जटित शय्या आपको दी। श्री नामदेव जी उसे अपने सिर पर रखकर चलने लगे। तब उसने कहा कि दस बीस आदमी मैं आपके साथ भेजता हूँ, वे इस पलंग को ले जायँगे और आपके निवास स्थान तक पहुँचा देंगे। आपने बिलकुल मना कर दिया और कहा कि यह भगवान् के शयन का पलंग है, मैं उनका सेवक हूँ, अतः मुझे ही अपने सिर पर रखकर ले जाना चाहिये। फिर भी बादशाह ने कुछ रक्षक भेजे। आगे आपने विचारा कि यह मूल्यवान् वस्तु है, इससे अनेक संकट आ सकते हैं। भजन में बाधा हो सकती है। इस कारण मार्ग में श्री यमुना नदी के अथाह जल में उस पलंग को डाल दिया। राजा को इसकी सूचना मिली तो वह चौंककर आश्चर्य में पड़ गया। सिपाहियों से कहा– उन्हें शीघ्र बुलाकर लाओ। श्री नामदेव जी फिर आये और बोले कि अब क्यों बुलाया? तब बादशाह ने कहा कि जो पलंग मैंने आपको दे दिया है, जरा उसे यहाँ लाकर कारीगरों को दिखा दीजिये। उसी प्रकार का नया दूसरा बनवाना है। श्री नामदेव जी बादशाह को लेकर नदी पर आये और जल में प्रवेश करके अनेक पलंग वैसे और उससे भी मूल्यवान् निकाल निकालकर डाल दिये और बादशाह से बोले – आप अपना पलंग पहचान लो। यह देखकर उसकी सुधि-बुधि जाती रही।
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नामदेवजीकी भक्तिका माहात्म्य
—श्री नामदेव जी की करामात देखकर बादशाह भयवश उनके चरणों में आ गिरा और प्रार्थना करने लगा कि मुझे ईश्वर के दण्ड से बचा लीजिये। श्री नामदेव जी ने कहा— यदि क्षमा चाहते हो तो एक बात करो कि पुनः इस प्रकार कभी किसी साधु को दुःख मत देना। इसे बादशाह ने स्वीकार कर लिया। फिर उन्होंने कहा कि फिर अब कभी मुझे मत बुलाना। ऐसा कहकर श्री नामदेव जी वहाँ से चल दिये। उनकी इच्छा हुई कि पहले पण्ढरीनाथ जी के मन्दिर में चल प्रभु के नाम, गुण कीर्तन का नित्य-नेम पूरा कर लूं। मन्दिर पर गये तो द्वार पर बहुत भीड़-भाड़ दिखायी पड़ी। (जूतों की चोरी की शंका से शायद मन एकाग्र न हो, इसलिये कपड़े में लपेटकर) जूतों को कमर में बाँध लिया। हाथों से भीड़ को हटाकर भीतर गये। दर्शन करके पदगान आरम्भ करना ही चाहते थे कि किसी ने जूतों को देख लिया और रुष्ट होकर पाँच-सात चोटें लगायीं। फिर धक्का देकर मन्दिर से बाहर निकाल दिया। परंतु श्री नामदेव जी के मन में पण्डों के इस व्यवहार से थोड़ा भी क्रोध नहीं आया।
अब श्री नामदेव जी मन्दिर के पिछवाड़े जाकर बैठ गये और भगवान् से कहने लगे कि प्रभो! आपने यह बहुत ही अच्छा किया जो मुझमें मार लगायी। मेरे अपराध का दण्ड तुरंत ही दे दिया। अब नित्य-नियम के अनुसार पद गाता हूँ, सुनो। यह कहकर नामदेव जी पद गाने लगे, जिसे सुनते ही भगवान् का हृदय करुणा से भर गया। भक्त को विरह-व्यथित एवं दीन देखकर प्रभु व्याकुल हो गये। सम्पूर्ण मन्दिर को घुमाकर श्री नामदेव की ओर द्वार कर दिया। यह देखकर जितने भी वेदपाठी पण्डा-पुजारी थे, सबके मुख की कान्ति क्षीण हो गयी, सब ऐसे फीके पड़ गये, जैसे पानी उतरने से मोती फीका हो जाता है। अब उनके हृदय में श्री नामदेव जी के प्रति बड़ी भारी श्रद्धा-भक्ति उत्पन्न हो गयी। सबने श्री नामदेव जी के सुख देने वाले चरणों में गिरकर क्षमा याचना की। उन्हें प्रसन्न देखकर सबको शान्ति प्राप्त हुई।
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सर्वत्र भगवद्दर्शन—
एक बार अकस्मात् ही सायंकाल में श्री नामदेव जीके घर में आग लग गयी। पर आप तो जल, थल और अग्नि में सर्वत्र अपने प्यारे प्रभु को ही देखते थे। अतः अपने घर में जो दूसरे सुन्दर पदार्थ घी, गुड़ आदि जलने से रह गये थे, उन्हें भी उठा उठाकर जलती हुई आगमें डालते हुए प्रार्थना करने लगे— हे नाथ! इन सब वस्तुओं को भी स्वीकार कीजिये। भक्त की ऐसी सुन्दर भावना देखकर भगवान्ने प्रकट होकर दर्शन दिया और हँसकर बोले कि अत्यन्त कोमल मुझ श्यामसुन्दर को तीक्ष्ण, असह्य अग्नि की ज्वाला में भी देखते हो। श्री नामदेव जी ने कहा— प्रभो! यह आपका भवन है, आपके अतिरिक्त दूसरा कौन यहाँ आ सकता है! यह सुनकर प्रभु प्रसन्न हो गये और अग्नि शीतल हो गयी । प्रसन्न हुए भगवान्ने अपने हाथों से नामदेव जी का सुन्दर छप्पर छा दिया। सुबह होते ही लोगों ने वैसा सुन्दर छप्पर देखा तो आश्चर्य में पड़ गये और नामदेव जी से पूछने लगे कि ''यह किसने छाया है?" जिसने यह छाया है, उसे बता दो तो हम भी छवा लें। जितनी मजदूरी वह माँगेगा, हम उतनी दे देंगे। नामदेव जी ने कहा— ऐसे छप्पर की छवाई के लिये तन, मन, प्राण. सब देने पड़ते हैं।
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श्री नामदेव जी द्वारा तुलसीदल और राम नाम की महिमा का प्राकट्य—
पण्ढरपुर में एक बहुत बड़ा धनी सेठ रहता था। उसके यहाँ तुलादान का उत्सव हुआ। उसने अपने को सोने से तौलकर नगर के सभी लोगों को सोना दिया। सेठ ने लोगों से पूछा कि कोई रह तो नहीं गया? तब लोगों ने कहा — श्री नामदेव जी भगवान् के बड़े प्रेमी सन्त हैं, वे रह गये हैं। सेठ ने कहा— उन्हें बुलाकर लाओ। सेठ के नौकर, मुनीम बुलाने गये। दान ब्राह्मणों को दो, हमें कुछ भी नहीं चाहिये, यह कहकर बड़भागी श्री नामदेव जी ने पहली और फिर दूसरी बार लोगों को वापस लौटा दिया, जाने से मना कर दिया। पर तीसरी बार अति आग्रह देखकर आप सेठ के घर पर आये और सेठ से बोले— तुम बड़े भाग्यशाली हो। कहो हमसे क्या कहते हो? सेठ जी ने कहा— आप मेरे द्वारा दिये गये कुछ धन को स्वीकार कीजिये, जिससे मेरा कल्याण हो। नामदेव जी ने कहा— तुम्हारा कल्याण तो हो गया, अब मुझे कुछ देने की आपकी प्रबल इच्छा है तो दीजिये।
श्री नामदेव जी का एकमात्र प्रिय सर्वस्व तो श्री गोविन्द चरण प्रिय श्री तुलसी हैं, ऐसे श्री तुलसी के पत्ते में आधा राम-नाम अर्थात् केवल 'रा' लिखकर उसे दिया और कहा कि इसके बराबर तौलकर दे दीजिये। सेठ ने अभिमान पूर्वक कहा महाराज ! क्यों हँसी करते हो, इतने थोडे से सोने से क्या होगा? कृपा करके कुछ अधिक लीजिये। जिससे मुझ दाता की हँसी न हो। नामदेव जी ने कहा— इसके बराबर सोना तौलकर देखो तो सही, फिर देखो कि क्या विचित्र खेल होता है। यदि तुम इसके बराबर पूरा करके सोना दे दोगे तो मैं तुमपर प्रसन्न होऊँगा। यह सुनकर सेठ जी एक तौलने का काँटा ले आये और एक ओर तुलसी पत्र तथा दूसरी ओर सोना चढ़ाया। उस समय बड़ा विचित्र आश्चर्य हुआ, सोने का ढेला तुलसी पत्र से बराबर नहीं हुआ। सेठ जी उदास हो गये, जिससे पाँच सात मन तौला जा सके ऐसा बड़ा तराजू मँगवाया। उस पर एक ओर तुलसी पत्र दूसरी ओर घर भर का सम्पूर्ण सोना-चाँदी आदि रखा। पूरा न पड़ने पर जाति-कुटुम्ब वालों के घरोंसे ला-लाकर बहुत सा धन रखा, परंतु वह सब तुलसी पत्र के बराबर नहीं हुआ।
श्रीराम नाम लिखित तुलसी पत्र के महत्त्व को देखकर घर के सभी स्त्री पुरुषों के समेत सेठजी को बड़ा शोक तथा दुःख हुआ। श्री नामदेव जी ने विचारा कि अभी इन्हें तुलसी पत्र एवं श्रीराम नाम की महिमा का पूरा अनुभव नहीं हुआ है, इसलिये वे बोले— आप लोगों ने जितने व्रत, दान और तीर्थस्नान आदि पुण्य कर्म किये हों, उनका संकल्प करके जल डाल दीजिये। सभी लोगों ने पुण्यों का स्मरण कर करके संकल्प पढ़कर जल डाला, पर इस उपाय के करने से भी काम न चला। जिधर तुलसी पत्र रखा था, वह पलड़ा अपने पैर भूमि में गाड़ रहा था। यह देखकर सभी लोग लज्जित हो गये और प्रार्थना करने लगे कि इतना ही ले लीजिये। श्री नामदेव जी ने कहा— हम इस तुच्छ धन को लेकर क्या करें ? हमारे पास तो राम नाम-धन है, यह धन उसकी बराबरी नहीं कर सकता है। इस धन से कल्याण होना सम्भव नहीं है। नाम की और तुलसी की महिमा देखकर आज से इस धन को तुच्छ समझो और रामनाम रूपी धन से प्रेम करो, गले में तुलसी धारण करो, राम नाम जपो। यह कहकर श्री नामदेव जी ने सबके हृदय में भक्ति का भाव भर दिया। सबकी बुद्धि प्रेमरस में भीग गयी।
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श्री नामदेव जी की एकादशी व्रत के प्रति निष्ठा
—एक बार भगवान् के मन में यह उमंग उठी कि श्री नामदेव जी की एकादशीव्रत-निष्ठा का परिचय लिया जाय। यह विचारकर उन्होंने एक अत्यन्त दुर्बल ब्राह्मण का रूप धारण किया। एकादशी व्रत के दिन श्री नामदेव जी के पास पहुँचकर बड़ी दीनता करके अन्न माँगने लगे कि मैं बहुत भूखा हूँ, कई दिन से भोजन प्राप्त नहीं हुआ है, कुछ अन्न दो। श्री नामदेव जी ने कहा— आज तो एकादशी है, (दूधफलाहारादि कर लीजिये) अन्न न दूंगा। प्रात:काल जितनी इच्छा हो उतना अन्न लीजियेगा। दोनों अपनी-अपनी बात पर बड़ा भारी
हठ कर बैठे। इस बात का शोर चारों ओर फैल गया। लोग इकट्टे हो गये और श्री नामदेव जी को समझाने लगे कि इस भूखे ब्राह्मण पर क्रोध क्यों करते हो, तुम्हीं मान जाओ, इसे कुछ अन्न दे दो। श्री नामदेव जी नहीं माने, दिन के चौथे पहर के बीतने पर उस भूखे ब्राह्मण देव ने इस प्रकार पैर फैला दिये कि मानो मर गये। गाँव के लोग श्री नामदेव जी के भाव को नहीं जानते थे। अतः उन लोगों ने नामदेव जी के सिर ब्राह्मण हत्या लगा दी और उनका समाज से बहिष्कार कर दिया। पर नामदेव जी बिलकुल चिन्तित नहीं हुए।
अपने नियम के अनुसार जागरण और कीर्तन करते हुए श्री नामदेव जी ने रात बितायी, प्रात:काल चिता बनाकर उस ब्राह्मण के मृतक शरीर को गोद में लेकर उस पर बैठ गये कि हत्यारे शरीर को न रखकर प्रायश्चित्त स्वरूप उसे भस्म कर देना ही उत्तम है। उसी समय भगवान् प्रकट हो गये और मुसकराकर कहने लगे कि मैंने तो तुम्हारी परीक्षा ली थी, तुम्हारी एकादशी व्रत की सच्ची निष्ठा मैंने देख ली, वह मेरे मन को बहुत ही प्यारी लगी, मुझे बड़ा सुख हुआ । इस प्रकार दर्शन देकर भगवान् अन्तर्धान हो गये। लोगों ने जब यह लीला देखी तो श्री नामदेव जी के चरणों में आकर गिरे और प्रीतिमय चरित्र देखकर सभी भक्त हो गये।
एक बार एकादशी की रात्रि को जागरण-कीर्तन हो रहा था। भगवद्भक्तों को बड़ी प्यास लगी। तब श्री नामदेव जी जल लाने के लिये नदी पर गये, प्रेत भय से दूसरों को जाने का साहस न था । श्री नामदेव जी को आया देखकर महाविकरालरूपधारी प्रेतराज अपने साथियों समेत आकर चारों ओर फेरी लगाने लगा। उसका स्वरूप एवं उसकी माया देखकर श्री नामदेव जी थोड़ा भी भयभीत न हुए, उसे अपने इष्ट का ही स्वरूप माना और उन्होंने फेंट से झाँझ निकालकर तत्काल एक पद गाया और प्रणाम किया। भगवान् तो बड़े ही दयालु हैं, प्रेतरूप न जाने कहाँ गया! शोभाधाम श्यामसुन्दर प्रकट हो गये, जिनका दर्शन करके श्री नामदेव जी परम प्रसन्न हुए और जल लाकर भक्तों को पिलाया।
एक बार नामदेव जी ने जंगल में पेड़ के नीचे रोटी बनायी, भोजन बनाकर लघुशंका करने गये। लौटकर देखते हैं तो एक कुत्ता मुख में रोटी दबाये भागा जा रहा है। आपने घी की कटोरी उठायी और दौड़े उसके पीछे यह पुकारते हुए 'प्रभो!
ये रोटियाँ रूखी हैं। आप रूखी रोटी न खायँ । मुझे घी चुपड़ लेने दें, फिर भोग लगायें। भगवान् उस कुत्ते के शरीर से ही प्रकट हुए अपने चतुर्भुजरूप में। नामदेव उनके चरणों पर गिर पड़े।
पंजाब में बारकरी पन्थ के एक प्रकार से नामदेव जी ही आदि प्रचारक हैं। अनेक लोग उनकी प्रेरणा से भक्ति के पावन - पथ में प्रवृत्त हुए । ८० वर्ष की अवस्था में संवत् १४०७ वि० में नश्वर देह त्याग कर ये परमधाम पधारे।