Prem Gali ati Sankari - 117 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 117

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प्रेम गली अति साँकरी - 117

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यह गुलाबी रंग का एक बड़ा सुंदर सा लिफ़ाफ़ा था जो मैंने चुपचाप उत्पल के कमरे की ड्राअर से उठा लिया था जैसे ही मैंने उस ड्राअर को खोला, उसमें से मीठी सी सुगंध का झौंका आकर मुझे छू गया| मेरी आँखें बंद हो गईं जैसे उत्पल की सुगंध उस ड्राअर से आ रही थी| यह सुगंध बहुत परिचित थी, जब कभी मैं उत्पल के करीब हुई थी इस सुगंध ने हमेशा मुझे नहला दिया था जैसे! मैं उसमें डूब जाती थी| हर देह की एक खास गंध होती है, यदि उसका अहसास हो तो वह एक-दूसरे के शरीर का भाग बन जाती है| मैं इतनी उम्र होने तक भी कभी किसी सुगंध से ऐसी नहीं भीगी थी जो मेरे अंतर में बैठ जाती| इस गंध को मैं कहीं से भी पहचान लेती थी और मुझे लगता, यह मेरी अपनी ही गंध थी| कैसी गडमड हो गई थी यह मुझमें !

पलंग पर अस्त-व्यस्त सी पड़ी मैं सोच रही थी कि जैसे मैं उत्पल के चैंबर से छिपकर भागती हुई आई थी, कोई देखता तो समझता कि कोई चोर ही है| हाँ, वैसे चोरी ही तो की थी मैंने! वह चीज़ चाहे छोटी हो या बड़ी, बिना किसी को बताए चोरी ही तो कही जाएगी| वैसे मेरा अपना तो था नहीं वह लिफ़ाफ़ा तब चोरी ही हुई न!न जाने क्यों लग रहा था कि उसमें ज़रूर कुछ मुझसे संबंधित होना ही चाहिए | 

उत्पल की कुर्सी पर बैठकर जैसे ही उसकी वह ड्राअर खोली जिसे मैने कभी नहीं खोला था उस गुलाबी लिफ़ाफ़े की सुगंध ने मुझे मज़बूर कर दिया था कि मैं उसे उठा लूँ, मैंने वही तो किया था| लिफ़ाफ़ा काफ़ी बड़ा था और उसे छिपाकर लाना मुमकिन नहीं था| मैं चुपके से लिफ़ाफ़ा लेकर उत्पल की कुर्सी से उठी और चैंबर का दरवाज़ा धीरे से खोलकर बाहर इधर-उधर झाँका, दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं दे रहा था| मैं चुपचाप चैंबर का दरवाज़ा बंद करके लड़के को बिना बताए चली आई थी जिसे मैंने काम करने के लिए अंदर भेज दिया था| लिफ़ाफ़े में से खुश्बू बिखर रही थी जो छूते ही मेरे जिस्म में तैरने लगी | मैं जल्दी से अपने कमरे की ओर लगभग भागते हुए आई थी | फूली हुई साँसों से मैंने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद किया था और सीधी आकर अपने पलंग पर ऐसे आ पड़ी मानो किसी पेड़ से टपकी कोई फूलों भरी सुगंधित फूलों की नाज़ुक सी डाली! जबकि न तो मैं हल्की-फुल्की थी और न ही स्वयं को नाज़ुक किशोरी कली कह सकती थी लेकिन मन में जो आ रहा था, उसका क्या करती?हम न तो किसी पर अपना अधिकार थोप सकते हैं और न ही अपने ही मन को वक्ष में रख सकते हैं!

इस समय मैं अपने पलंग पर लंबी-लंबी साँसें लेते हुए अजीब सी स्थिति में लेटी थी और मेरे हाथ का बड़ा सा खुश्बू भरा लिफ़ाफ़ा काँप रहा था जिसका सामान मैं अपने पलंग पर पलट चुकी थी| इंसान का स्वभाव है, वह कितना भी न-नुकर करता रहे लेकिन जब उसके मन में कोई छिपी बात उसके सामने आ जाती है तब उसके मन के आँगन में न जाने कितने फूल खिलने लगते हैं| शायद कुछ ऐसा ही मेरे साथ हो रहा था| उस महकते लिफ़ाफ़े में न जाने मेरी कितनी तस्वीरें महक रही थीं| 

मेरे सामने पसरी तस्वीरें न जाने कहाँ और किस समय ली गई | मैं चौंककर रह गई, ये तस्वीरें कब की थीं, इनको उत्पल ने कब ले लिया था? पहले अक्सर मुझसे कहता तो रहता ही था कि मैं उसे अपनी तस्वीरें दिखाऊँ| मैं उसे टाल जाती और वह मुझे देखकर मुस्काता| मेरी समझ में उसकी मुस्कान का अर्थ कभी नहीं आया था| 

आज इस गुलाबी लिफ़ाफ़े की महक ने मुझे समझा दिया था कि वह इसलिए मुस्काता होगा क्योंकि न जाने उसने अपने आप ही कहाँ से और कितनी तस्वीरें अपने पास जमा कर रखी थीं| समझ नहीं आ रहा था कि जब मैंने उसे दी ही नहीं थीं उसे अपनी तस्वीरें, उसके पास इतनी सारी कहाँ से आईं? मैं भूल ही गई थी कि यही तो कर रहा था वह संस्थान में! यही तो उसका काम था फिर इसमें इतना आश्चर्य क्यों होना चाहिए था? विभिन्न नृत्य-भंगिमाओं व मुद्राओं में मेरी तस्वीरें पलंग पर बिखरी पड़ी थीं| 

कुछ देर बाद मेरे दिल की धड़कनें कुछ संयत हुईं और मैं एक-एक तस्वीर को उठाकर गौर से देखने लगी| मुझे याद आया, एक दिन मैं अपने चैंबर में अपनी नृत्य की तस्वीरें देख रही थी और मेरी सहायिका विनोदिनी उन्हें एक अल्बम में रखती जा रही थी| उन दिनों मैं लगातार नृत्य करती व कार्यक्रमों में भाग लेती रहती थी| काफ़ी तस्वीरें नृत्य की सुंदर पोशाकों व आभूषणों में थीं तो कुछ सादी भी थीं जो मुझे बिलकुल याद नहीं थीं कि कब और कहाँ ली गई होंगी? वैसे आजकल तकनीकी बदलाव के कारण अधिकतर लोगों ने अल्बम बनाने ही छोड़ दिए हैं| अम्मा को शौक था कि तस्वीरें पुराने तरीके से अल्बम में भी सहेजी जाएँ| अल्बम में तस्वीरें सहेजना मुश्किल होता जा रहा है, उन्हें संभालने के लिए समय, स्थान, सहायता, खर्चा ---सबकी ज़रूरत होती है| अम्मा के शौक के कारण लगभग एक पूरा कमरा अल्बमों से सजा हुआ था| उनको बड़े सलीके से कवर करके, डिब्बों पर चिटें चिपकाकर पैक करके किसी सॉल्यूशन की सहायता से रखा जाता था| अम्मा अपने बरसों के संस्थान के उत्सवों की तस्वीरों को कभी कुछ विशेष देखने या किसी और ज़रूरत के लिए निकलवा सकती थीं | जैसे उन्हें कभी भी नृत्य की पोशाकों, कलर-कॉम्बीनेशन को देखना होता तब वे उनमें से किसी भी अल्बम को निकलवा लेती थीं| 

उस दिन विनोदिनी मेरी तस्वीरों को इसी प्रकार संभाल रही थी और कुछ तस्वीरों के बारे में मुझे बिलकुल भी याद नहीं आ रहा था कि ये तस्वीरें न जाने कब उत्पल ने चुपचाप ली होंगी| उसने मुझे कभी दिखाई क्या, उनका ज़िक्र तक नहीं किया था| उन जैसी ही कुछ छिपी हुई नेचुरल पोज़ की तस्वीरें आज इस सुगंधित गुलाबी लिफ़ाफ़े में मुझे आज मिल रही थीं| वाकई, बड़ा अच्छा कलाकार था उत्पल!मेरी सादगी की तस्वीरें उसने इतनी खूबसूरती से खींचीं थीं कि मैं खुद ही उन्हें देखकर रीझ रही थी| 

मैं एक-एक तस्वीर ऐसे घूरकर देखती जैसे वह मैं नहीं, कोई और ही था और उन्हें अपने पलंग की साइड-टेबल की ड्राअर में रखती जा रही थी | मानो कोई खज़ाना था और न जाने कैसे मेरे हाथों लग गया था, क्या कोई मेरे हाथों से छीन लेगा?मन था कि तस्वीरों के पीछे उत्पल का चेहरा तलाशता रहा था| अचानक मेरे दरवाज़े पर नॉक हुई| मैं अंदर से बंद करके अकेले में उन तस्वीरों को देखकर उत्पल के साथ कुछ लम्हे बिताना चाहती थी लेकिन----

“दीदी----दीदी----”दरवाज़े पर दिव्य और डॉली की आवाज़ें थीं जो अपना यू.के मिशन पूरा करके कई दिन पहले लौट आए थे| आकर मुझसे मिल भी गए थे लेकिन अधिक समय बैठ नहीं पाए थे| मैंने उनसे कहा भी था कि वे समय लेकर मेरे पास आएं और एक-एक बात डिटेल्स में मुझे बताएं| डॉली को मेरी शादी का पता चला तब उसने कहा था कि मेरे लिए वह कुछ अपने हाथों से बनाएगी | अपनी माँ की तरह वह डिज़ाइनर थी जैसे माँ का गुण लेकर पैदा हुई थी | बड़े खुश थे दोनों, बड़ी सफलता हासिल करके लौटे थे | शायद इस समय मुझसे वे अपनी बातें साझा करने आए थे लेकिन अभी मेरा किसी से भी बातें करने का मन नहीं था| मैंने उनकी आवाज़ का कोई उत्तर नहीं दिया| एक बार फिर बाहर से धीरे से दरवाज़ा नॉक हुआ लेकिन मैंने उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया| 

मैं बिलकुल चुप्पी साधे रही, जबकि मैंने ही उन्हें मिलने के लिए कहा था| मैं उनके मुँह से उनके अनुभव सुनना चाहती थी और उनके चेहरों पर खिलती-खुलती मुस्कान देखकर आनंदित होना चाहती थी लेकिन मेरी मन:स्थिति ने मुझे रोक लिया और मैं ऐसे चुप्पी साधे पड़ी ही तो रही मानो कितनी गहरी नींद में सो रही थी| 

थोड़ी देर में बाहर से आवाज़ आनी बंद हो गई और दूर होते हुए कदमों की धीमी सी आवाज़ ने मुझे अपनी ओर खींचा| सोचा, उठकर बुला लूँ लेकिन मेरे पलंग पर बिखरी मेरी तस्वीरें मुझे ऐसा करने से रोक रही थीं| वैसे दिव्य और डॉली का यूँ लौट जाना मुझे बहुत अच्छा नहीं लगा लेकिन कुछ चीजें इंसान के बस में नहीं होतीं| मैं उस समय बिलकुल इस स्थिति में नहीं थी कि उन दोनों को आवाज़ देकर बुला सकूँ| 

ज़िंदगी का फ़लसफ़ा इंसान को चिढ़ाता रहता है, दूर से ठेंगा दिखाकर मज़ाक करता रहता है लेकिन ठोस जमीन की वास्तविकता पर चलने में पाँवों में छाले पड़ते हुए देखकर भी मुँह घुमा लेता है| मैं कर क्या रही थी?किस-किस को धोखा दे रही थी!क्यों आखिर?और किसी को क्या सबसे पहले मैं ही उस गहरे गड्डे में गिरी थी जो मुझे ऊपर उठने देने के बजाय और अंदर घसीट रहा था!

पलंग पर से एक–एक बिखरी तस्वीर समेटकर अपने पलंग की ड्राअर में बंद करते हुए मैंने सोचा, ’आखिर, क्या बदलाव आया था ?बस इतना ही कि मैं चोरी-चुपके से वे तस्वीरें उठाकर ले आई थी जो संभवत:उत्पल से बातें करती थीं लेकिन मैं जानती थी वे मुझसे बातें नहीं करेंगी| अपने जितने करीब होते है उतनी ही दूरी पर भी|