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लिरिक्स

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दीपाली की शादी में कोई अड़चन नहीं हो सकती थी, क्योंकि वह बहुत सुंदर थी. किंतु उस के मातापिता को न जाने क्यों कोई लड़का जाति, समाज में जंचता नहीं था. खूबसूरत दीपाली की शादी की उम्र निकलती जा रही थी. पिता कालेज में प्रिंसिपल थे. किसी भी रिश्ते को स्वीकार नहीं कर रहे थे. अंतत: हार कर दीपाली ने एक गुजराती युवक अरुण के साथ अपने प्रेम की पींगें बढ़ानी शुरू कर दीं. दीपाली और अरुण का प्रेम 3-4 साल चला. मृत्युशैया पर पड़े प्रिंसिपल साहब ने मजबूरन अपनी सुंदर बेटी को प्रेम विवाह की इजाजत दे दी. दीपाली के विवाह बाद उस के पिता की मौत हो गई. उधर अरुण एक सच्चे प्रेमी की तरह दीपाली को पत्नी का सम्मान देते हुए अपने परिवार में अपनी मां के पास ले गया. घर का व्यवसाय था. आर्थिक स्थिति मजबूत थी. अरुण दीपाली को जीजान से चाहता था. किंतु दीपाली को अरुण की मां कांतिबेन का स्वभाव नहीं सुहाता था. कांतिबेन अपनी पारिवारिक परंपराओं का पालन करती थीं जैसे सिर पर पल्लू डालना आदि. वे दीपाली को जबतब टोक देतीं कि वह हाथपांव ढक कर रखे, सिर पर आंचल डाले आदि. यह सब गुजराती परिवार में बहू का सामान्य आचरण था. किंतु दीपाली को यह कतई पसंद नहीं था. इसी वजह से इस अंतर्जातीय विवाह में दरार पड़ने लगी. शुरू में अरुण ने दीपाली को समझाबुझा कर शांत रखने की मनुहार की. किंतु अरुण की मानमनौअल तब बेकार हो गई जब दीपाली इस टोकाटाकी से बेहद चिढ़ गई और अरुण के बहुत समझाने पर भी मायके चली गई. दीपाली मायके गई तो उस की मां माया ने उसे समझाने के बदले अपनी दूसरी बेटियों संग भड़काना शुरू कर दिया. दीपाली की बहन राजश्री ने तो आग में घी डालने का काम कर दिया. वैसे भी राजश्री की आदत सब के घर मीनमेख निकाल कर कलह कराने की थी. दीपाली के विवाह को भी उस ने नहीं छोड़ा. सभी बहनों को वह सास के प्रति कठोरता बरतने की शिक्षा देने लगी. मां और बहन के बहकावे में आ कर दीपाली ने अपने पति अरुण के प्यार से मुख मोड़ लिया. बेचारा अरुण कितनी बार आता, रूठी पत्नी को मनाता पर न तो दीपाली टस से मस हुई, न उस की मां माया. मायके में भाभी सारा काम कर लेती, दीपाली मां के साथ घूमतीफिरती रहती. रात को खापी कर सो जाती. घरेलू कामकाज न होने तथा खाने और बेफिक्री से सोने से दीपाली का शरीर काफी भर गया. अब वह सुकोमल की जगह मोटी सी बन गई. हालांकि आकर्षक वह अब भी थी. पर पति के प्रेम को ठुकराने से उस के सौंदर्य में वह मासूमियत नहीं छलकती. दीपाली अपने मायके में खानेसोने में दिन गुजारने में मस्त थी तो दूसरी तरफ अरुण अपनी पत्नी के लिए हमेशा उदास रहता. कांतिबेन भी चाहती थीं कि उन की बहू घर लौट आए तो बेटे का परिवार आगे बढ़े और वे भी बच्चों को खेलाएं. मगर फिर दीपाली अपनी ससुराल नहीं गई. अरुण उस से पहले मिलने आता रहा, पर बाद में फोन तक ही शादी सिमट गई. अकेले रहते हुए भी अरुण ने न कहीं चक्कर चलाया और न ही दीपाली ने उसे तलाक दिया. वह अरुण की जिंदगी को अधर में लटकाए रही. अरुण मनातेमनाते थक गया. दिल में दीपाली के लिए सच्ची चाहत थी. जिंदगी ऐसे ही खाली व अकेले कटने लगी. वह नहीं सोच सका कि दीपाली से अलग भी दुनिया हो सकती है. पत्नी से दूर रह कर वह खोयाखोया सा रहता था. एक दिन न जाने बाइक चलाते किन खयालों में गुम था कि एक ट्रक से टकरा गया. माथे पर गहरी चोट लगी. कांतिबेन व उस के पति ने दीपाली को खबर भेजी. मगर न दीपाली ने और न ही उसकी मां ने अस्पताल जा कर अरुण को देखना उचित समझा. उलटे इस नाजुक मौके पर दीपाली की मां ने अरुण के पिता से सौदेबाजी शुरू कर दी. उधर अरुण अस्पताल में इलाज करा रहा था, इधर दीपाली की मां ने कहला भेजा कि दीपाली अब उस की सास के संग हरगिज नहीं रहेगी. उसे एक नई जगह, नए क्वार्टर में बसाया जाए. अपने घायल बेटे के सुख के लिए उस के पिता नारायण ने यह शर्त भी कबूल कर ली. किंतु जख्मी बेटे की तीमारदारी में वे ऐसे व्यस्त रहे कि अलग से घरगृहस्थी से मुक्त सजासजाया कमरा बेटे के लिए अरेंज नहीं कर सके. इसी तरह कुछ दिन और निकल गए, पर अपने कमजोर हो चुके जख्मी पति को देखने दीपाली अस्पताल नहीं आई. वह बस नए कमरे की मांग पर अड़ी रही. मानो उसे अपने पति से ज्यादा परवाह अपने लिए अलग कमरे की थी. अरुण को अस्पताल से डिस्चार्ज करा कर उस के पिता घर ले आए. फिर बेटे की नई गृहस्थी बसाने के लिए नए कमरे की व्यवस्था में जुट गए. किंतु घायल अरुण के दिल पर दीपाली की इस स्वार्थी शर्त का और बुरा प्रभाव पड़ा. वह अब और ज्यादा गुमसुम रहने लगा. पहले की भांति वह रूठी पत्नी को मनाने के लिए अब फोन भी नहीं करता. न ही दीपाली अपनी अकड़ छोड़ कर पति से बात करती. इसी निराशा ने अरुण को भीतर से तोड़ दिया. वह जैसे समझ गया कि जिसे उस ने इतना जीजान से चाहा, वह गर ब्याहता हो कर भी उसे जख्मी हालत में देखने नहीं आई, तो उस के संग आगे की जिंदगी व्यतीत करने की क्या अपेक्षा करनी. अरुण के सारे स्वप्न झुलस गए. जो प्रेम का भाव उसे जीवन जीने की ऊर्जा देता था, वह अब लुप्त हो गया था. वह खाली सा महसूस करता. इसी हालत में एक रात अरुण उठा. सिर पर अभी भी पट्टी बंधी थी. मां दूसरे कमरे में सोई थीं. पत्नी से फोन पर बात होती नहीं थी. दीपाली से अब उसे प्रेम की आशा नहीं थी. उस ने देख लिया था कि जिसे वह अभी तक चाह रहा था, वह तो पत्थर की एक मूर्त भर थी. बेखयाली में, बेचैनी में अरुण उठा और जीने की तरफ बढ़ा और फिर चंद सैकंडों में सीढि़यां लुढ़कता चला गया. सीढि़यों के नीचे पहुंचने तक उस के प्राणपखेरू उड़ चुके थे. जिस जख्मी पति को दीपाली देखने नहीं आई थी, वही पति की मौत पर उस के मांबाप से पति का हिस्सा मांगने अपनी मां, बहन, भाई व जीजा को ले कर आ गई. जिस ने भी दीपाली को देखा वह समझ गया कि इस मतलबपरस्त लड़की ने एक विजातीय लड़के को झूठे प्रेमजाल में फंसा उस का जीवन बरबाद कर उसे मरने को मजबूर कर दिया. वही अब सासससुर से अपने पति का हिस्सा मांग रही है. तो क्या यही है प्यार? क्या यही विवाह का हश्र है?