दाईमाँ को देखते ही भूतेश्वर बोला....
"दाईमाँ! आप गईं नहीं"
"नहीं! मुझे कुछ संदेह सा हो रहा था क्योंकि तुम्हारी पुत्री के जन्म लेते ही उसके मुँख में दाँत थे,जो कि ऐसा असम्भव है किसी भी नवजात बालक या बालिका के दाँत नहीं होते,जो प्रेत योनि का होता है उसी नवजात शिशु के दाँत जन्म के समय से ही होते हैं"दाईमाँ बोली.....
"तो अब आपका क्या विचार है?",भूतेश्वर ने पूछा....
"मैंने तुम्हारे और कालवाची के मध्य हो रहे वार्तालाप को सुन लिया है,इसलिए अब मुझे सब ज्ञात हो चुका है,तुम्हारा अपनी पत्नी और पुत्री के संग चामुण्डा पर्वत जाना अति आवश्यक है,कदाचित वहाँ जाकर तुम्हारी समस्या का कोई समाधान हो सके",दाई माँ बोली...
"मैं तो अपनी पत्नी और पुत्री के संग चामुण्डा पर्वत चला जाऊँगा,किन्तु आप मुझे वचन दीजिए कि ये बात आप किसी से भी नहीं कहेगीं",भूतेश्वर बोला....
"नहीं! मैं ये बात किसी से नहीं कहूँगी,तुम अपने कुटुम्ब के संग निश्चिन्त होकर चामुण्डा पर्वत की ओर प्रस्थान करो",दाईमाँ बोली....
"आपका बहुत बहुत आभार दाईमाँ! आपका ये उपकार मैं सदैव याद रखूँगा",भूतेश्वर बोला...
"आभार प्रकट करने की कोई आवश्यकता नहीं है भूतेश्वर! तुम मेरे पुत्र समान हो और ये तो मेरा कर्तव्य है कि मैं तुम्हारे इस कार्य में बाँधा ना बनकर तुम्हारी सहायता करूँ"दाईमाँ बोलीं....
"दाईमाँ! आपने मेरी दुविधा दूर कर दी,अब मैं निश्चिन्त होकर चामुण्डा पर्वत जा सकता हूँ",भूतेश्वर बोला...
"अब मैं अपने घर जाती हूँ,तुम्हें अब और अधिक बिलम्ब नहीं करना चाहिए,तुम भी शीघ्रता से अपने कुटुम्ब के संग चामुण्डा पर्वत की ओर प्रस्थान करो",दाईमाँ बोली....
"जी! बहुत बहुत धन्यवाद"भूतेश्वर बोला....
इसके पश्चात दाईमाँ इधर अपने घर लौट गई और उधर भूतेश्वर ने कालवाची एवं अपनी पुत्री के संग चामुण्डा पर्वत की ओर प्रस्थान किया.....
दाईमाँ अपने घर पहुँची और अपने पुत्र धवलचन्द्र से बोली....
"पुत्र! उस प्रेतनी कालवाची ने एक पुत्री को जन्म दिया है"
"ये बड़ा ही अच्छा समाचार सुनाया आपने",धवलचन्द्र बोला....
"हाँ! पुत्र! मैं ना जाने कब से इसी प्रतीक्षा में थी कि कब वो प्रेतनी अपने शिशु को जन्म दे एवं भाग्यवश उसके गर्भ से शिशु कन्या ने जन्म लिया,अब हम दोनों का प्रतिशोध पूर्ण होगा" दाईमाँ बोली....
"माता! मैं भी यही चाहता हूँ कि वो प्रेतनी कालवाची ऐसे ही तड़प तड़प अपनी पुत्री के वियोग में अपने प्राण त्याग दे,जिस प्रकार मेरे पिता विपल्व चन्द्र ने अपने प्राण त्यागे होगें,उस प्रेतनी कालवाची ने मेरे पिता की हत्या की थी इसलिए मैं उससे अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध अवश्य लेकर रहूँगा",धवलचन्द्र बोला...
"हाँ! पुत्र! ये अवश्य होकर ही रहेगा",दाईमाँ बोली....
"मेरे पिता मगधीरा के महाराज विपल्व चन्द्र की हत्या करना सरल कार्य नहीं था,उस प्रेतनी कालवाची ने ऐसा दुस्साहस करके अपनी मृत्यु को आमंत्रण दिया है",धवलचन्द्र बोला....
तब दाईमाँ बोली....
"हाँ! मेरे स्वामी की हत्या करके कालवाची ने ठीक नहीं किया,उसी क्षण से मैं प्रतिशोध की ज्वाला में जल रही हूँ,इसलिए मैंने ये निश्चय किया कि मैं स्वयं कालवाची का पीछा करूँगी और जहाँ और जिस स्थान पर वो रहेगी तो उसी स्थान में रहकर मैं उस पर दृष्टि रखूँगीं और मैंने इस कार्य के लिए उस गाँव की दाईमाँ का घर चुना,मैंने उसे ढ़ेर सा धन देकर उसके घर में रहकर उसके कौशल और दक्षता को सीखा और इस प्रतीक्षा में रही कि कब कालवाची गर्भवती हो और मुझे उसके प्रसव करवाने का अवसर मिल जाएँ,मैंने गाँव की पुरानी दाईमाँ को ये कभी नहीं बताया कि मैं मगधीरा के राजा विपल्व चन्द्र की पत्नी हिरणमयी हूँ और दाईमाँ से ये भी कह दिया कि यदि कोई मेरे विषय में पूछे तो सबसे ये कह देना कि ये मेरी दूर की बहन है और मेरा कौशल सीखने यहाँ आई है,क्योंकि अब मैं वृद्ध हो चुकी हूँ इसलिए इस कार्य को करने हेतु असमर्थ हूँ और मेरे स्थान पर अब ये गाँव की गर्भवती स्त्रियों का प्रसव करवाया करेगी,तब इस प्रकार मुझे कालवाची के प्रसव करवाने का अवसर मिला",
"हाँ! यहाँ तक हमारी योजना सफल हो गई,जैसा हमने सोचा था वैसा ही हुआ,किन्तु आगें की योजना क्या होगी? " धवलचन्द्र ने कहा....
"जब मुझे ये ज्ञात हुआ था कि कालवाची चामुण्डा पर्वत पर पूर्ण रुप से मानव रुप लेने जा रही है तब मैंने एक गुप्तचर द्वारा ज्ञात करवाया तो तब ज्ञात हुआ कि उसी पर्वत पर एक तान्त्रिक भी रहता था जिसका नाम घगअनन्ग था,उसके पास मैंने तुम्हें सिद्धियाँ प्राप्त करने भेज दिया और तुम वहाँ से एक तान्त्रिक बनकर लौटे अब तुम मगधीरा राज्य के राजा होने के साथ साथ तंत्र विद्या में भी सिद्धहस्त हो चुके हो और अब हम दोनों कालवाची से सरलता से प्रतिशोध ले सकते हैं और आगें की योजना भी तुम्हें ज्ञात हो जाएगी बस तुम चामुण्डा पर्वत चलने की व्यवस्था करो",दाईमाँ बनी हिरणमयी बोली.....
"जी! माता! जैसी आपकी आज्ञा",धवलचन्द्र बोला.....
और इस प्रकार धवलचन्द्र अपनी माता हिरणमयी के संग कालवाची और भूतेश्वर के पीछे पीछे चामुण्डा पर्वत पहुँच गया और उन दोनों पर दृष्टि रखने लगा,चामुण्डा पर्वत पहुँचकर कालवाची और भूतेश्वर ने महातंत्रेश्वर से अपनी समस्या कही तो महातंत्रेश्वर बोलें....
"मित्र! भूतेश्वर! अभी तुम्हारी कन्या का मानव रुप में बदलना सम्भव नहीं है,वो जब तक व्यस्क नहीं हो जाती तब तक मैं उस पर अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकता क्योंकि ये वर्जित है और यदि मैंने ऐसा कुछ किया तो मैं स्वयं भस्म हो जाऊँगा,ये मेरी विद्या के नियमों का उलंघन होगा,ये मेरे गुरुदेव ने मुझसे कहा था,इसलिए तुम्हारी पुत्री के बीस वर्ष का होने तक मैं ऐसा कुछ भी नहीं कर सकता",
"तो क्या मेरी पुत्री भी मेरी भाँति मनुष्यों के हृदयों को भोजन रुप में ग्रहण किया करेगीं",कालवाची ने पूछा....
"इसके सिवाय और कोई मार्ग नहीं है कालवाची!",महातंत्रेश्वर बोले....
"तो इसका केवल एक ही समाधान है,मैं इस पुत्री को जीवित ही नहीं रहने दूँगीं,मैं मानव जाति के लिए पुनः संकट खड़ा नहीं कर सकती",कालवाची बोली....
"ये तुम क्या कह रही हो कालवाची? मैं तुम्हें इस कन्या की हत्या नहीं करने दूँगा",भूतेश्वर बोला....
तब कालवाची बोली....
"ये कन्या नहीं प्रेतनी है भूतेश्वर! तनिक सोचकर देखो,हम कब तक इसे संसार से छुपाकर रखेगें,ये साधारण कन्या नहीं रक्त पिपासु प्रेतनी है,मैं अपनी ही आँखों के समक्ष मानव जाति को इसके हाथों मरते हुए नहीं देख सकती,बड़ा कठिन होता है ऐसा जीवन जीना,मैंने जिया है ऐसा जीवन ,मैं भली प्रकार जानती हूँ कि कितना बीभत्स होता है ऐसा जीवन ,क्षण क्षण पश्चाताप का भाव,सदैव ये शंका बनी रहती है कि कहीं कोई ऐसा करते देख ना ले....ना....ना ...भूतेश्वर! अब और ऐसा नहीं होगा,इस कन्या को किसी काली अँधेरी कन्दरा में बंद कर दो,जब कुछ रोज भोजन नहीं मिलेगा तो स्वयं ही भूख से व्याकुल होकर प्राण त्याग देगी",
"इतनी निष्ठुर,इतनी निर्दयी ना बनो कालवाची! ये तुम्हारी पुत्री है,इसे तुमने जन्म दिया है",भूतेश्वर बोला....
"मुझे ऐसा करना ही पड़ेगा भूतेश्वर! मैं विवश हूँ",कालवाची बोली...
"मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि कालवाची का कथन उचित है",महातंत्रेश्वर बोला....
अब महातंत्रेश्वर की बात सुनकर भूतेश्वर दुविधा में पड़ गया था....
क्रमशः....
सरोज वर्मा....