अब सभी सकुशल अपना अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे,सबसे पहले त्रिलोचना और कौत्रेय के यहाँ पुत्र का जन्म हुआ,इसी मध्य भैरवी ने भी एक पुत्री को जन्म दिया,उस बालिका के आने से समूचे राजमहल में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई,अचलराज भी अपनी पुष्प सी पुत्री को देखकर फूला ना समा रहा था ,त्रिलोचना भैरवी के पास उसकी पुत्री से भेंट करने आई तब भैरवी ने प्रसन्नतापूर्वक त्रिलोचना से कहा....
"त्रिलोचना! आज से मेरी पुत्री तुम्हारी पुत्रवधू हुई,जब दोनों बालक एवं बालिका वयस्क हो जाऐगें तो तब हम इनका विवाह कर देगें"
"हाँ! मुझे कोई आपत्ति नहीं ,किन्तु तुम पहले महाराज अचलराज से तो पूछ लो, भला वे अपनी पुत्री को मेरी पुत्रवधू बनाऐगे या नहीं"त्रिलोचना बोली....
"मुझे कोई आपत्ति नहीं है त्रिलोचना! मैं तो कब से यही विचार बना रहा था और कौत्रेय तो मेरा मित्र है,मुझे तो प्रसन्नता होगी यदि हम सम्बन्धी बन गए तो",अचलराज बोला....
"मित्र! ये तो तुम्हारी महानता है जो तुम महाराज होकर भी अपनी पुत्री को मेरी पुत्रवधू बनाकर मुझे सौंपना चाहते हो", कौत्रेय बोला...
"मित्र! मैं महाराज हूँ तो क्या हुआ? महाराज बनने से पहले मैं तुम्हारा मित्र था और ये मित्रता सदैव ऐसी ही बनी रहेगी",अचलराज बोला....
इस प्रकार अचलराज ने अपनी पुत्री को कौत्रेय की पुत्रवधू बनाना स्वीकार कर लिया और उधर वत्सला ने भी एक पुत्र को जन्म दिया,यूँ ही दिवस बीत रहे थे कि महाराज कुशाग्रसेन के पिताश्री प्रकाशसेन का स्वर्गवास हो गया,वे अत्यधिक अस्वस्थ हो चुके थे,उनका अत्यधिक उपचार भी कराया गया किन्तु उनकी मृत्यु टल ना सकी और नियति ने उन्हें सबसे दूर कर दिया,स्वामी के स्वर्गवास के पश्चात महाराज कुशाग्रसेन की माता मृगमालती भी शोक में डूब चुकीं थीं और वें भी इस दुख को अत्यधिक दिनों तक अपने हृदय में ना रख सकीं और वें भी कुछ समय पश्चात अपने स्वामी के पास चलीं गईं....
समय बीता एवं कालवाची जो कि अपने पति भूतेश्वर के संग उसी के पुराने घर में रह रही थी उसने भी एक पुत्री को जन्म दिया,भूतेश्वर एवं कालवाची को भैरवी एवं अचलराज ने अत्यधिक समझाया था कि वो उनके संग वैतालिक राज्य के राजमहल में ही रहे किन्तु कालवाची और भूतेश्वर नहीं माने,उन दोनों ने अचलराज और भैरवी से कहा कि वे साधारण जीवन जीना चाहते हैं,भूतेश्वर अचलराज से बोला कि ....
"उसने देखा है राजाओं को अपना जीवन जीने हेतु एवं प्रजा की रक्षा हेतु कितना संघर्ष करना पड़ता है किन्तु उसे तो सदैव से साधारण जीवनयापन करने की आदत है इसलिए वो अपनी इस आदत को नहीं त्याग सकता, कालवाची भी अपने पहले के जीवन से अत्यधिक उकता चुकी है,इसलिए आप सभी हम दोनों पर राजमहल में रहने हेतु दबाव ना डाले ,कृपया करके हमें जाने दें,हमारा जब भी मन करेगा तो हम आपसे मिलने आ जाया करेगें और आप भी हमसे मिलने आ सकते हैं..."
कालवाची और भूतेश्वर की बात सुनकर महाराज कुशाग्रसेन और रानी कुमुदिनी ने भी अचलराज और भैरवी से कहा कि दोनों को उनके अनुसार जीवन जीने का अधिकार है इसलिए वे दोनों जहाँ रहना चाहते हैं रह सकते हैं,इस प्रकार कालवाची और भूतेश्वर अपने पुराने घर लौट आएं और जब कालवाची ने पुत्री को जन्म दिया तो पुत्री के जन्म लेते ही भूतेश्वर भयभीत हो उठा और दाईमाँ के जाते ही पुत्री को अपनी गोद में उठाकर बोला....
"कालवाची! हमारी पुत्री ने नहीं एक प्रेतनी ने जन्म लिया है",
"किन्तु! ये कैसें सम्भव है भूतेश्वर! अब तो मैं प्रेतनी नहीं हूँ मैं तो पूर्णतः मानव रुप धारण कर चुकी हूँ,साधारण मानवों की भाँति भोजन ग्रहण करती हूँ किसी के हृदय को अपना भोजन नहीं बनाती"
ये कहते कहते कालवाची रो पड़ी....
"किन्तु! तुम पहले तो प्रेतनी थी और तुम्हारे भीतर जो प्रेतनी का अंश रह गया होगा तो उसी अंश ने हमारी पुत्री के रुप में जन्म ले लिया है,तुम प्राकृतिक रुप से मानव नहीं थी,तुमने कृत्रिम रुप से मानव रुप लिया है, इसलिए हमारी पुत्री भी प्रेतनी रुप में इस संसार में आई है,ये मैंने अपनी शक्तियों द्वारा ज्ञात कर लिया है कि ये प्रेतनी ही है" भूतेश्वर बोला...
"अब क्या होगा भूतेश्वर? ये भी मानवों का हृदय भक्षण करके जीवित रहा करेगी,पुनः वही विकृति,वही आमानुषता,वही हत्याएंँ....हे! ईश्वर! ये क्या अनर्थ हो गया,मैं प्रसन्न थी कि अब मैं शान्तिपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करूँगीं किन्तु अब ये नई बाँधा खड़ी हो गई,मैं इन सभी के लिए कदापि तत्पर नहीं हूँ",कालवाची बोली....
"तुम इतनी विचलित ना हो कालवाची! तनिक मुझे सोचने का समय दो कि अब इस समस्या का समाधान किस प्रकार हो",भूतेश्वर बोला....
"किन्तु! इसका कोई समाधान नहीं है,ये भी मानवभक्षी बन जाऐगी,इसके पश्चात मेरी भाँति ही जीवन व्यतीत करेगी.....कितना हृदयविदारक था मेरा पहले का जीवन,क्षण भर को शान्ति नहीं थी,पुनः वही पुनरावृत्ति,पुनः वही शोक,पुनः वही संकट का भय,पुनः वही भयानक जीवन....नहीं! भूतेश्वर! अब मैं ऐसा कुछ भी नहीं होने दूँगी,कृपया करके मुझे इस संकट से उबार लो,मेरी पुत्री मेरे लिए प्रसन्नता के स्थान पर शोक का कारण बन गई,मेरा प्रेतनी रुप तो व्यर्थ था ही किन्तु अब मेरा मानव रुप भी व्यर्थ हो गया...हाय! मेरा दुर्भाग्य मेरा पीछा ही नहीं छोड़ता"
और ऐसा कहकर कालवाची फूट फूटकर रो पड़ी तब भूतेश्वर ने उसे ढ़ाढ़स बँधाते हुए कहा....
"तुम चिन्ता ना करो कालवाची! कुछ तो हल निकल ही आएगा"
"कैसें चिन्ता ना करूँ भूतेश्वर! मेरी पुत्री साधारण शिशु बालिका नहीं ,एक प्रेतनी है और यही सबसे बड़ा चिन्ता का विषय है,मैं इसकी हत्या भी नहीं कर सकती और इसे जीवित भी नहीं देखना चाहती,ये कैसी दुविधा है,ये कैसा धर्मसंकट आन पड़ा है मुझ पर,मेरे सारे स्वप्न धूल में मिल गए,ना जाने कौन सा प्रलय आने वाला है मुझ पर और सम्पूर्ण मानव जाति पर भी पुनः संकट आन पड़ा है ",कालवाची बोली...
तब भूतेश्वर बोला.....
"कालवाची! क्यों ना हम चामुण्डा पर्वत चले,कदाचित महातंत्रेश्वर हमारी कोई सहायता कर पाएँ"
"हाँ! यही उचित रहेगा,जब महातंत्रेश्वर ने मुझे मानव रूप देकर मेरा जीवन सफल बना दिया है तो वे हमारी पुत्री हेतु भी कोई ना कोई समाधान खोज ही लेगें",कालवाची बोली....
"हाँ! तो तुम चामुण्डा पर्वत पर चलने की तैयारी बना लो और किसी से कुछ मत कहना कि हमारे घर पुत्री ने जन्म लिया है",
"किन्तु! वो दाई माँ! उन्हें तो सब ज्ञात है",कालवाची बोली....
"हाँ! मैं उनके घर जाकर उनसे विनती करूँगा कि वे किसी से कुछ ना कहें",भूतेश्वर बोला....
"हाँ! शीघ्रता से जाओ,और बिलम्ब करना उचित नहीं है,कहीं ऐसा ना हो कि वे किसी से कुछ बता दें" कालवाची बोली....
"हाँ! मैं शीघ्रता से जाता हूँ",
और ऐसा कहकर भूतेश्वर शीघ्रता से दाईमाँ के घर की ओर चल पड़ा और जैसे ही वो अपने घर से बाहर निकला तो उसने देखा कि दाईमाँ तो उसके घर के द्वार पर ही खड़ी हैं और उन्होंने सब सुन लिया था.....
क्रमशः....
सरोज वर्मा....