Andhayug aur Naari - 48 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | अन्धायुग और नारी - भाग(४८)

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अन्धायुग और नारी - भाग(४८)

उन्होंने हमारा इलाज किया और हम बिलकुल ठीक हो गए वे लगातार दो चार दिन हमें देखने हवेली आएँ और आखिरी दिन उन्होंने हमसे कहा....
"ख़ालाजान! अब आप बिलकुल ठीक हैं,अब आपको मेरे इलाज की जरूरत नहीं"
"डाक्टर साहब! ये सब आपकी मेहरबानी है,जो हम ठीक हो गए,अब आपकी फीस बता दीजिए", हमने डाक्टर साहब से कहा....
"आप फीस की चिन्ता ना करें ख़ालाजान! आप अच्छी हो गईं,यही मेरे लिए बहुत है"डाक्टर साहब बोले....
"फीस तो आपको लेनी ही पड़ेगी,नहीं तो हम बुरा मान जाऐगें"हमने उनसे कहा....
"जी! वो भी ले लूँगा,लेकिन एक फरमाइश थी मेरी",डाक्टर साहब बोले....
"जी! बताएं! क्या फरमाइश है आपकी?",हमने उनसे पूछा...
तब वे बोले....
"हमें आपके यहाँ की की सेवाइयाँ खानी है,बहुत पहले खाई थी एक दोस्त के घर में ईद के वक्त और उन सेवाइयों का स्वाद अब भी मेरी जुबान से गया नहीं",डाक्टर साहब बोले....
"जी! जरूर! आप कहें तो अभी पका कर ले आते हैं हम आपके लिए सेवाइयाँ" हमने उनसे कहा....
"जी! अभी तो मेरे पास वक्त नहीं है,डिसपेन्सरी में और भी मरीज मेरी राह देख रहे होगें,सेवाइयाँ मैं फिर कभी आकर खा लूँगा",डाक्टर साहब बोले...
"जी! तो फिर आप अगले हफ्ते ईद पर आ जाइए,सेवाइयों के साथ साथ आपको और भी बहुत कुछ खाने को मिलेगा",हमने उनसे कहा....
"जी! मैं शुद्ध शाकाहारी हूँ,मैं सेवाइयों के सिवा और कुछ नहीं खा सकता",डाक्टर साहब बोले...
"तो कोई बात नहीं,हम आपके लिए खासतौर पर अलग से शाकाहारी खाना पका देगें,लेकिन आपको ईद में जरूर आना पड़ेगा",हमने उनसे कहा....
"जी! जरूर आऊँगा",
और ऐसा कहकर डाक्टर सूर्यप्रताप सिंह चले गए,फिर वे हमारे घर ईद पर आए और हमने उनके लिए खासतौर पर खाना बनाया और उन्होंने खुशी खुशी वो खाना खाया,हमे समझ नहीं आ रहा था कि वो इतनी जल्दी हमारे दिल के इतने करीब कैसें हो गए,दिन यूँ ही गुजरते जा रहे थे और जब भी हमारी उनसे मिलने की ख्वाहिश होती तो हम उन्हें अपनी तबियत खराब का बहाना बनाकर उन्हें बुला लेते और इस दौरान हमने उनसे उनके वालिदैन के बारें में कुछ नहीं पूछा,फिर एक रोज वो हमारे पास आकर बोले....
"ख़ालाजान! दो रोज़ के बाद आपको हमारे घर आना होगा"
"लेकिन क्यों?", हमने पूछा...
तो वे बोले....
"हमारी सगाई है उस दिन,सारा परिवार इकट्ठा होगा उस दिन,हमारे माँ बापू जी भी आ रहे हैं काशी से,लड़की यहीं की है इसलिए सगाई भी यहीं होगी,दिक्कत वाली कोई बात नहीं है,खुद का घर यहाँ पर बड़ा सा,सो कितने भी मेहमान आ जाएं कोई फर्क ही नहीं पड़ेगा" डाक्टर सूर्यप्रताप सिंह बोले....
"लेकिन डाक्टर साहब! आपको पता है ना कि हम कौन हैं,हमें लेकर आपके घर में किसी को कोई एतराज़ हुआ तो फिर हमें अच्छा नहीं लगेगा",हमने उनसे कहा.....
"अब इस बात की चिन्ता बिल्कुल ना करें ख़ाला! मेरे माँ बाबूजी ये सब नहीं मानते,उनके कई मुस्लिम दोस्त हैं,जिनका हमारे घर में आना जाना है,माँ भी परहेज़ नहीं करती,वे तो शौक से उन्हें घर बुलाकर खाना खिलातीं हैं",डाक्टर सूर्यप्रताप सिंह बोले...
"आप कहते हैं तो फिर हम आ जाऐगें आपकी सगाई में,हमें कोई एतराज नहीं", हमने उनसे कहा....
और फिर दो रोज़ बाद हम बुरका पहनकर डाक्टर सूर्यप्रताप सिंह की सगाई में पहुँचे,हम अपनी बग्घी से वहाँ पहुँचे थे और कोचवान से कहा था कि कि वो बग्घी एकतरफ लगा ले,हम बस डाक्टर साहब से मिलकर फौरन ही आ रहे हैं और कोचवान ने ऐसा ही किया,हम बुरके में भीतर पहुँचे तो हमें सब अचरज भरी निगाहों से देखने लगे तभी डाक्टर सूर्यप्रताप सिंह की नजर हम पर पड़ी तो तो वे सबसे बोले....
"ये मेरी मौसी हैं,मैंने इन्हें यहाँ बुलाया है,माँ! आप इन्हें जनानखाने में ले जाइए"
और डाक्टर सूर्यप्रताप की माँ हमें जनानखाने में ले गईं और वहाँ हमें सभी औरतों के बीच बिठाकर बोलीं.....
"अब आप अपना पर्दा हटा सकतीं हैं,यहाँ कोई भी मर्द नहीं है"
उनकी बात सुनकर जैसे ही हमने अपने चेहरे से पर्दा हटाया तो वे हमें देखतीं रह गईं और हम उन्हें देखते रह गए क्योंकि वे कोई और नहीं डाक्टर धीरज की पत्नी चित्रा थीं,इसका मतलब सूर्यप्रताप हमारा बेटा है और उस भीड़ में हम चित्रा से कुछ भी ना पूछ पाएंँ,हमारे सवालों का जवाब ना देना पड़े इसलिए चित्रा भी हमें दरकिनार करके उस कमरे से चली गई,चित्रा के चेहरे का रंग उड़ चुका था और हमने कमरें की खिड़की से देखा तो वो डाक्टर धीरज को अपने पास बुलाकर उनसे कुछ कह रही थी,जिसे सुनकर डाक्टर धीरज भी परेशान हो उठे थे.....
अब हमें उस कमरे में घुटन हो रही थी और हम जल्द से जल्द उस कमरे से बाहर जाना चाहते थे,इसलिए हम वहाँ से उठे और सूर्यप्रताप से नजरें बचाते हुए बाहर निकल आए,फिर हम अपनी बग्घी ढूढ़ते हुए वहाँ पहुँचे और कोचवान से हवेली चलने को,फिर हम हवेली आ गए,उस रात हम सो ना सके,क्योंकि खुशी और ग़म दोनों ही हमें सोने की इजाजत नहीं दे रहे थे,बहुत खुशी थी अपने बेटे के मिलने की और ग़म ये था कि उसे सीने से लगाकर ये नहीं कह सकते थे तुम ही हमारे बेटे हो जो इतने वक्त बाद हमें मिला है और इसी कश्मकश में सारी रात यूँ ही बिना नींद के बीत गई....
और दूसरे दिन सुबह सुबह ही डाक्टर धीरज हमारी हवेली आ पहुँचे , उन्हें हवेली में देखकर हमें भी कुछ अजीब सा लगा और वे हमसे बोले....
"बानो! मैं आपसे एक गुजारिश करना चाहता हूँ"
" हमें अच्छी तरह से पता है कि आपकी गुजारिश क्या है"? हमने कहा...
"अगर आपने मेरी गुजारिश मान ली तो मैं समझूँगा कि आपने मुझे निहाल कर दिया,एक तरह से जीवनदान दे दिया",डाक्टर धीरज बोले....
"हम भी दुनिया की ऊँच-नीच,भलाई-बुराई,नफा-नुकसान बखूबी समझते हैं,आपके बिना कहे ही हम सब समझ गए",हमने उनसे
"मुझे मालूम है कि ये आपके लिए एक सजा की तरह है लेकिन मैं भी मजबूर हूँ",डाक्टर धीरज बोले....
"हम आपकी मजबूरी बखूबी समझते हैं",हमने कहा....
"आपका ये एहसान मैं कभी नहीं भूलूँगा",डाक्टर धीरज बोले....
"शायद आपको याद नहीं कि आपने भी कभी हम पर एहसान किया था और उस एहसान का बदला चुकाने का वक्त आ चुका है",हमने उनसे कहा...
"बहुत बहुत शुक्रिया आपका",डाक्टर धीरज बोले....
"शुक्रिया किस बात का डाक्टर साहब! अल्लाह आपके बेटे को हमेशा महफूज रखे,उसे बरकत दे" हमने कहा....
"वो आपका भी तो बेटा है"डाक्टर धीरज बोले....
"इसके अलावा हमें आपसे ना कुछ कहना है और ना ही सुनना है,अब आप यहाँ से जा सकते हैं",हमने कहा....
और हमारी बात सुनकर डाक्टर साहब का मन भर आया....

क्रमशः....
सरोज वर्मा...