शिष्यलक्षण और गुरुलक्षण सार
गुरु चाहे कितने भी ज्ञानी हों लेकिन शिष्य की अगर ज्ञान ग्रहण करने की, ज्ञान को सँभालने की पात्रता नहीं है तो उस शिष्य को ज्ञान का कोई लाभ नहीं होगा। गुरु का ज्ञान बीज होता है, जिसे शिष्य अपनी साधना से सींचता है और उसके जीवन में आत्मबोध का वृक्ष फलता है। लेकिन जिस भूमि (शिष्य) में यह बीज बोया जा रहा है, वह भूमि किस गुणवत्ता की होनी चाहिए, इस पर समर्थ रामदास ने ‘शिष्यलक्षण’ समास में मार्गदर्शन दिया है। बेहतरीन गुणवत्ता का बीज बोया गया लेकिन उस बीज की सिंचाई ही नहीं हुई तो वह बीज कभी अंकुरित नहीं होगा। इसलिए समर्थ रामदास ने उत्तम शिष्य के लक्षण बताए हैं।
इसके विपरीत ज़मीन कितनी भी उपजाऊ हो लेकिन उसमें बोया गया बीज अगर निम्न गुणवत्ता का हो तो भी उसकी फसल अच्छी नहीं आएगी। इसके लिए गुरु भी उच्च योग्यता के होने आवश्यक हैं। समर्थ रामदास गुरुलक्षण बताते हुए कहते हैं, ‘सम्मोहन विद्या, टोना-टोटका, मंत्र बतानेवाले कई करामती होते हैं लेकिन उन्हें सद्गुरु नहीं माना जा सकता क्योंकि वे मोक्षदाता नहीं हैं। गीत-संगीत, नृत्य सिखानेवाले भी कई हैं। अपनी आजीविका चलाने के लिए लोग कई प्रकार की विद्याएँ-कलाएँ सिखाते हैं लेकिन वे मात्र गुरु हैं, सद्गुरु नहीं। जो मोक्ष के मार्ग पर ले जाता है, वही सद्गुरु है।’
लोग कहते हैं, ‘हमारे माता-पिता हमारे प्रथम गुरु हैं लेकिन भवसागर पार कराने की क्षमता सिर्फ सद्गुरु में ही होती है। इसलिए सद्गुरु किसे कहा जाना चाहिए, इस पर दासबोध के 'गुरुलक्षण' इस अध्याय में मार्गदर्शन दिया गया है। इस भाग में हम शिष्य और गुरु लक्षण दोनों समझेंगे।
शिष्यलक्षणः
* जो निरंतर सत्संग करता है, थोड़े से ज्ञान से जो अहंकारी नहीं बनता, वह उत्तम शिष्य है।
* जिसे गुरु वचनों पर पूर्ण विश्वास है, जो गुरु के प्रति पूर्णतया समर्पित है, वह उत्तम शिष्य है।
* जिसका मन निर्मल है, जो आचरणशील है, जिसमें वैराग्य वृत्ति है, वह उत्तम शिष्य है।
* जो निष्ठावान है, जो विश्वासपात्र है, जो नियमों का पालन करनेवाला है, वह उत्तम शिष्य है।
* जो सदैव दक्ष (सतर्क) है, जिसके पास लक्ष्य है, जो धीरजवान और स्वार्थहीन है, वह उत्तम शिष्य है।
* जो परमार्थ के लिए तत्पर है, जो मत्सर से रहित है, वह उत्तम शिष्य है।
* जो शुद्ध है, (मन से निर्मल, निष्कपट), वह उत्तम शिष्य है।
* जो प्रज्ञावान है लेकिन जिसके मन में प्रेम भरा है, जो नीतिवान है और सदा मर्यादा का पालन करता है, वह उत्तम शिष्य है।
* जो बुद्धिवान है, जिसके पास युक्तियाँ हैं, जो हित के परामर्श देता है, वह उत्तम शिष्य है।
* जो साहसी और दृढ़निश्चयी है, जो पुण्यकर्म करता है, वह उत्तम शिष्य है
* जो सत्वगुणी और भक्तिभाव से युक्त है, जो साधक है, वह उत्तम शिष्य है।
* जो परमार्थ करता है और परमार्थ को बढ़ावा देता है, वह उत्तम शिष्य है।
* जो स्वतंत्र है, जो जगत का मित्र है, जिसकी पात्रता उच्च है, जो सर्व गुणों से युक्त है, वह उत्तम शिष्य है।
* जो सद्भावना से युक्त है, जो विद्या का योग्य उपयोग करता है, वह उत्तम शिष्य है।
* जो विवेकशील है, संसार के दुःखों को जो समझता है, जो मोक्ष के लिए आग्रही है, वह उत्तम शिष्य है।
गुरुलक्षण:
* जो आत्मज्ञान का उपदेश देता है, अंधेरे से रोशनी की ओर ले जाता है, जो जीव को परमात्मा (ईश्वर चैतन्य) से मिलवाता है, वह सद्गुरु है।
* जीव को शिव से जो मिलाता है, जिसके ज्ञान से अद्वैतभाव (भक्त और ईश्वर दो अलग हैं यह विश्वास) समाप्त होता है, वह सद्गुरु है।
* जो संकट समय में तारक बनता है, वह सद्गुरु है।
* जो मायाजाल से मुक्त करता है, संसार के दुःखों से मुक्ति दिलाता है, वह सद्गुरु है।
* विषय-वासना में डूबे हुए को जो बाहर निकालता है, उसका उद्धार करता है, वह सद्गुरु है।
* जो ज्ञान देकर इच्छाओं से मुक्त करता है, जन्म-मृत्यु के फेर से जो छुड़ाता है, वह सद्गुरु है।
* जो शब्दों के छल से बाहर निकालकर सच्चाई का दर्शन करवाता है, वह सद्गुरु है।
* जैसे माँ बच्चे को छोटा निवाला खिलाती है उस प्रकार जो वेद-वेदांत का ज्ञान शिष्यों को आसान करके देता है, वह सद्गुरु है।
* जो सारे संदेह मिटाता है, स्वधर्म का आदर करना सिखाता है, वह सद्गुरु है।
* जो शिष्य को इंद्रिय लालसा से मुक्त कराता है, वह सद्गुरु है।
* जो ज्ञान देकर समस्त अविद्या (अज्ञान) का नाश करता है, वह सद्गुरु है।
* जिसमें द्रव्य लालसा नहीं है, मन कामना रहित है, ऐसा अद्भुत सद्गुरु है।
* जो शुद्ध आत्मज्ञानी है, स्थूल-सूक्ष्म का जिसे ज्ञान है, वह सद्गुरु है।
* जिसकी वाणी सुनकर निराशा और दुराशा (हीन कामनाएँ) का नाश होता है, वह सद्गुरु है।
* जो गुरु की मर्यादा का सम्मान करता है, वह सद्गुरु है।