पढ़त मूर्ख लक्षण सार:अधिकतर लोग अपनी आजीविका चलाने के उद्देश्य से पढ़ाई करते हैं। उनमें से कुछ अपने स्वार्थ, लालसा और अहंकार में मूर्खताएँ करते रहते हैं। ऐसे लोगों के पास सिर्फ किताबी जानकारी होती है, जिन्हें समर्थ रामदास पढ़त मूर्ख यानी पढ़ा-लिखा मूर्ख कहते हैं। अहंकार, दुराभिमान, स्वार्थ, लालच, मत्सर ये कुछ अवगुण हैं, जो ज्ञानी को पढ़तमूर्ख बनाते हैं। उससे ज्ञान की बातों का दुरुपयोग करवाते हैं। जिस तरह गोबर भरे बरतन में अगर खीर डाली जाए तो वह खीर दुर्गंधयुक्त हो जाती है, खाने लायक नहीं रहती, उसी तरह मन में यदि विकार हैं तो वह इंसान ज्ञान पाने के लिए पात्र नहीं बनता। ऐसे इंसान को ज्ञान मिले तो उसका उपयोग वह अपने स्वार्थ के लिए ही करने की संभावना होती है।
जो अज्ञानी है, उसे समझाना आसान है लेकिन जिसके पास 'मुझे मालूम है' का अहंकार है, उसे समझाना बहुत मुश्किल काम है। क्योंकि वे लोग अपने जानकारी को संपूर्ण ज्ञान मानकर बैठते हैं। जब तक कोई समर्थ गुरु उनके जीवन में नहीं आता, उन्हें आइना नहीं दिखाता तब तक उनकी मूर्खताएँ चलती रहती हैं। आइए, ऐसे पढ़तमूर्खों के कुछ लक्षण जानते हैं
* जिसके आचार-विचार-ज्ञान-कार्य और लक्ष्य में एकरूपता नहीं है, वह पढतमूर्ख है।
* जो दूसरों को ज्ञान की बातें बताता है लेकिन खुद वासना और अभिमान से लिप्त है, वह पढ़तमूर्ख है।
* ज्ञान पाकर भी जो मनमर्जी आचरण (अच्छे-बुरे का विचार किए बिना) करता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो सगुण भक्ति को व्यर्थ मानता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो अपने शिष्य को ऐसी आज्ञा देता है, जिससे शिष्य संकट में पड़े, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो दुराशा (गलत इच्छाएँ) रखता है, अपने ज्ञान का अभिमान रखता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो अपने धर्म का अनादर करता है, उसकी निंदा करता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो सबके दोष देखता है, सबको दोष देता रहता है, लोगों में कमियाँ खोजता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो गुरु की अवज्ञा करता है (आज्ञा नहीं मानता), अपनी वाणी से दूसरों को दुखाता रहता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो मन में कपट रखता है, किसी का धन देखकर उसकी प्रशंसा करता है, उस पर मोहित हो जाता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो पूरा ग्रंथ पढ़े बिना ही उसके दोष बयान करता है, किसी के गुण पूछने पर अवगुण सुनाता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो मत्सर से भरा होता है, द्वेष की वजह से किसी का बुरा करने की कोशिश करता है, जो नीति-न्याय को नहीं मानता, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो अपने क्रोध पर काबू नहीं पा सकता, जिसकी कथनी और करनी में अंतर होता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो बिना किसी अधिकार के ज्ञान देता है, जो आवश्यकता से ज़्यादा बातें करता है, समझने में कठिन भाषा का उपयोग करता है, वह पढतमूर्ख है।
* अपनी निरंकुश वाणी से सामनेवाले को बेढंग बना देता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* दूसरों में जो दोष देखता है लेकिन वही दोष खुद उसके अंदर भी है, यह जो समझ नहीं पाता, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो अपने अभ्यास करने के गुण से बहुत कुछ जानता है लेकिन उसका उपयोग कभी दूसरों की भलाई के लिए नहीं करता, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो लोभ वश संसार में अटका रहता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो निंदनीय वस्तुएँ अपनाता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो ईश्वर को भुलाकर देहबुद्धि में (खुद को शरीर मानकर) ही सारा जीवन बिताता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो धनवान बनने पर दूसरों को तुच्छ समझता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो ज्ञान का उपयोग करके दूसरों का भविष्य बताने की कसरत करता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो बिना योग्यता के वक्ता बनता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो भक्तिहीन है, संसार के मोह से बँधा है लेकिन वाणी से ब्रम्हज्ञान (आत्मज्ञान की बातें/आध्यात्मिक ज्ञान) सुनाता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* न मन में भक्ति है, न ज्ञान, पवित्र कुल में जन्म पाकर भी जो अपवित्र कार्य करता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो कभी कुछ कहता है, कभी कुछ और कहता है और करता कुछ और ही है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो दिन-रात श्रवण करता है लेकिन अपने अवगुण नहीं त्यागता, अपना हित किसमें है, यह नहीं जानता, वह पढ़तमूर्ख है।
* सामने बैठे श्रेष्ठ को अनदेखा कर जो वहाँ उपस्थित हीन / मूर्ख से वार्तालाप करते रहता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जिससे निरादर मिला हो, ऐसे इंसान से दोबारा आदर की उम्मीद जो करता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो धन की लालसा में गुरु की उपेक्षा करता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* जो अपने स्वार्थ के लिए ज्ञान का उपयोग करता है, अर्थ के लिए (धन के लिए) परमार्थ दाँव पर लगा देता है, वह पढ़तमूर्ख है।
* संसार में लगे रहने में ही जो सुख मानता है, वह पढ़तमूर्ख है।
यदि आपमें ऐसे कोई अवगुण है तो उनका त्याग करें और अपनी आंतरिक अवस्था को निर्मल बनाकर असली ज्ञान के पात्र बनें।