दद्दा का सामान वापस आ गया।सामान यानि एक सूटकेस, वी आय पी का सबसे पुराना मॉडल,कत्थई रंग का और बहुत बार घसीटे जाने के कारण जगह-जगह सफ़ेद खरोंचों से भरा हुआ।अंदर का सामान भी गिनाचुना, तीन पैंट कमीज़ें,तीन कुर्ते पायजामे, तीन जोड़ी अंतर्वस्त्र, एक तौलिया और कुछ किताबें।इसके अलावा भी बहुत कुछ था दद्दा के पास जो उनके साथ चला गया या पीछे छूट गया।
दद्दा यानि केशव कुमार वर्मा।अपने दोस्तों के लिए केके और परिवार तथा आस पड़ोस में छोटे बड़े सब के दद्दा।सोलह बरस की उम्र तक वे अपने माता पिता की इकलौती सन्तान थे।फिर एक छोटा भाई हुआ जिसका नाम माधव रखा गया लेकिन उनके लिए वह मुन्नु था, जैसे उसके लिए वे दद्दा।पता नहीं कब अम्मा और बाबूजी भी केशव की जगह उन्हें दद्दा बुलाने लगे।तब से वे जगत दद्दा बन गए।दद्दा के लिए भी मुन्नु हमेशा मुन्नु ही रहा, उसकी शादी होने और दो बच्चों का बाप बन जाने के बाद भी।
दद्दा ने शादी नहीं की।बाबूजी को लकवा हो जाने से उनकी प्राइवेट नौकरी जाती रही और घर की ज़िम्मेदारी दद्दा ने सम्भाल ली।मुन्नु स्कूल के आखिरी साल में था।विज्ञान में उसकी विशेष रुचि थी,और वह वैज्ञानिक बनना चाहता था।उसकी महत्त्वाकांक्षा पूरी करना जैसे उनका ध्येय बन गया।जब तक मुन्नु पढ़ाई पूरी कर एक प्रतिष्ठित संस्थान में वैज्ञानिक बनता दद्दा पैंतालिस के हो चुके थे।चाहते तो तब भी शादी कर सकते थे लेकिन दद्दा का मन नहीं किया।दो साल बाद मुन्नु की शादी हो गई।तब दद्दा ने पड़ोस ही में दो कमरे का छोटा फ्लैट ले लिया।वो फ्लैट सिर्फ सोने के काम आता।मुन्नु के दो बच्चे हुए, पहले बेटी रंजना फिर बेटा शिवम।वे उनके भी दद्दा बन गये।इस बीच अम्मा बाबूजी गुज़र गये।सेवानिवृत्त होने के बाद तो दद्दा का सारा वक़्त बच्चों के साथ ही बीतता।मुन्नु और उसकी पत्नी बच्चों की तरफ से बिल्कुल निश्चिंत हो गये।उन्हें कहीं जाना होता तो बच्चों को संभालने की चिंता नहीं करनी पड़ती।बच्चे भी दद्दा के पीछे पड़े रहते।उनके लिए वे ताऊजी न होकर दादाजी थे।दद्दा ने मुन्नु को भी गोद खिलाया था, अब उसके बच्चों के लिए भी घोड़ा बनकर उन्हें पीठ पर बिठाये घर भर घूमते।तब न कमर का दर्द याद आता न घुटनों का। रात अपने फ्लैट पर लौटने से पहले कहानी सुनाना भी नियम था।मुन्नु को सुनाई कहानियाँ शिवु और रंजू ने भी सुनी।रात को सोने से पहले घुटनों और कमर पर स्वयं ही दर्दनिवारक तेल की मालिश करते।उन्होंने कभी किसी से इस बारे में बात नहीं की।दद्दा के लिए सबकुछ सुखद था।स्वयं विवाह न करने का उन्हें कभी अफसोस नहीं हुआ।मुन्नु का परिवार ही उनके लिए उनका संसार था।उन्होंने मुन्नु को पढ़ाया था, अब उसके बच्चों को भी वे ही पढ़ाते।
एक दिन मुन्नु और उसकी पत्नी बाहर से लौटे तो घर ख़ुशबू से सराबोर था।महक इतनी सुखद और अच्छी थी कि घर का वातावरण ही बदल गया।
"देख मुन्नु, ये मेरी रंजू और शिवु की महक है।जैसे इन्होंने हमारी ज़िंदगी महका दी,वैसे ही घर भी।" ये कहकर उन्होंने शिवरंजनी अगरबत्ती का पैकेट दिखाया।उस समय तो नामों के संयोग पर सब हँस दिये ,लेकिन दद्दा के जीवन में यह संयोग स्थायी हो गया।यहाँ और उनके अपने फ्लैट में अब केवल शिवरंजनी अगरबत्ती ही जलती।इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए जब शिवम चार साल बाहर रहा तब तो दद्दा को उसी महक का सहारा था।उनका मन तो जैसे उस संयोग को वास्तविक मान चुका था।जब तक शिवम की पढ़ाई पूरी होती, रंजना का रिश्ता तय हो गया।उसकी विदाई पर दद्दा खूब रोये।दो साल बाद शिवम भी बहू ले आया।
उम्र अब दद्दा पर हावी होने लगी थी।शिवम की नौकरी लग गयी तो उसके दफ्तर जाने के बाद वे अपने फ्लैट में ही रहते।रात को शिवम उनका खाना लेकर उनसे मिलने वहीं आता।इस दौरान शिवम का तबादला कोलकाता हो गया।फिर तो दद्दा शिवरंजनी की महक के सहारे ही रहने लगे।शिवम को छुट्टी यदाकदा ही मिल पाती तो दद्दा अगरबत्ती जला कर आँखे मूँदे अपने शिवु और रंजू के बचपन की यादों में खोये रहते।उन्हीं यादों में जाने कब मुन्नु का बचपन भी घुलमिल जाता और इसी तरह दिन बीत जाता।हर रात उन्हें शिवु के फोन का इंतज़ार रहता।किसी दिन फोन न आता तो रात मुश्किल से ही कटती और वे सुबह चिंतित होकर मुन्नु से कहते," कल शिवु की खबर नहीं मिली।"
" यहाँ फोन आया था।देर हो गयी थी इसलिए आपको नहीं किया," मुन्नु का जवाब होता तो वे नाराज़ हो जाते।
" पता है न मैं उससे बात किये बिना सोता नहीं।"
" अब रोज रोज थोड़े न फोन करता रहेगा दद्दा," मुन्नु कहता तो उन्हें और गुस्सा आता।
" क्यों, यहाँ रोज रात सोने से पहले बात नहीं करता था?पूछूँगा कल उसे।"
लेकिन शिवु का फोन आते ही वे सबकुछ भूल जाते।शिवु से बात करना उनकी जीवन रेखा थी।दवा खाने से आनाकानी करते तो मुन्नु उससे कह देता।शिवम की बात उन्होंने आज तक नहीं टाली।बचपन में भी कभी वह कोई ज़िद करता और मुन्नु मना कर देता तो दद्दा उसे पूरी कर देते।इस बात पर मुन्नु उनसे नाराज़ भी होता पर दद्दा को शिवु की खुशी के लिए सब मंज़ूर था।
दो महीने तक मकान की मरम्मत होती रही थी तब मुन्नु और उसकी पत्नी दद्दा के फ्लैट में ही रहे।दिन बीत रहे थे और दद्दा की उम्र भी।इसलिए जब मकान नये रूप में आया तो मुन्नु ने उनसे कह दिया कि वे अब अपने फ्लैट में सोने की बजाय उनके साथ ही सोया करें।दद्दा बरसों से अपने फ्लैट में ही सोने के आदी हो गये थे,इसलिए उन्होंने मना कर दिया।कई दिनों तक दोनों भाइयों में इस बात को लेकर बहस होती रही।अंततः शिवु ने उनसे कहा तो वे मान गये।
दद्दा के लिए यह बदलाव मकान बदलने जैसा ही था।अपना ही घर होने के बावजूद उन्हें वहाँ सोने की आदत डालने में समय लगा।अब भी वे दिन में कभी कभार अपने फ्लैट पर हो आते लेकिन धीरे धीरे वह भी कम हो गया।
एक दिन दद्दा ने कागज़ों का एक लिफ़ाफ़ा मुन्नु को दिया और कहा," फ्लैट तेरे नाम लिख दिया है, मेरा तो अब जाना भी नहीं होता वहाँ।" दद्दा जैसे सारी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो चले थे।अब एक आस थी कि शिवु के बच्चे को गोद खिलायें।शिवु का फोन आता तब वे एक बार तो ज़रूर अपनी इच्छा व्यक्त करते," तेरा परिवार भी फलता-फूलता देख लूँ तो जाऊँ।"
जल्द ही ये खबर भी आयी कि शिवम की बहू उम्मीद से है।उस दिन मंगलवार था तो दद्दा ने मुन्नु से कहकर सवा किलो लड्डू गणेश जी को चढ़ाये।
" अभी तो उम्मीद है दद्दा, तो आपने सवा किलो लड्डू चढ़ा दिये, जब बच्चा हो जायेगा तब कितने चढ़ाओगे, सवा सौ किलो ?" शिवम ने हँसते हुए पूछा।
" मेरा शिवु बाप बनेगा तब वो भी कर दूँगा।" उस दिन से दद्दा ने तो जैसे दिन ही गिनने शुरू कर दिये।लम्बी यात्रा करना उनके लिए मुश्किल था अन्यथा उनका मन तो कोलकाता जाकर शिवु के साथ रहने का करता। मुन्नु और उसकी पत्नी का भी वही मन था, लेकिन वे भी दद्दा के कारण नहीं जा सकते थे।एक बार मुन्नु की पत्नी हफ्ते भर के लिए गयी तो पीछे मुन्नु के लिए अपने काम के साथ दद्दा का ध्यान रखना मुश्किल हो गया।दद्दा चाहते थे कि शिवु की बहू प्रसव के लिए यहीं आ जाये लेकिन उसके और शिवु की नौकरी के चलते वह भी सम्भव नहीं था।
एक रात मुन्नु और उसकी पत्नी ने देर तक इस विषय पर चर्चा की।पत्नी बेटे के पास जाने के लिए आकुल थी।बहू को नौवाँ महीना चढ़ने वाला था और अब तो उसके पास जाना उसे और भी आवश्यक लग रहा था।लेकिन दद्दा को कौन देखेगा?कोलकाता तक की हवाई यात्रा भी दद्दा झेल नहीं सकते।किसी तरह चले गये तो भी वहाँ जाकर उनका खयाल कौन रखेगा...कई प्रश्न थे।
" आजकल वृद्धाश्रम इसीलिए होते हैं ,किसी अच्छे वृद्धाश्रम का पता लगाता हूँ, " मुन्नु के ऐसा कहने पर पत्नी ने कुछ नहीं कहा।इस आकस्मिक निर्णय से अनभिज्ञ दद्दा भावी पोता या पोती की सुखद कल्पना में जी रहे थे।उन्हें लग रहा था कि वे उन चंद भाग्यशाली लोगों में से हैं जिन्हें अपनी आगामी तीन पीढ़ियों के बचपन देखना नसीब हो रहा है।मुन्नु और उनके बीच का अंतर उनके लिए एक पीढ़ी का अंतर ही था, इसलिए मुन्नु का स्थान उनके लिए पुत्रवत था।उसी कारण शिवु को पौत्र और उसकी सन्तान को प्रपौत्र समझना उनके लिए स्वाभाविक था।
उस दिन दद्दा का मनपसंद नाश्ता था, मेद्दु वड़ा और नारियल की चटनी, साथ सूजी का हलवा।
" दद्दा, अब बहू के दिन नज़दीक आ गए हैं," मुन्नु बोला।
" ह्म्म..." दद्दा का पूरा ध्यान हलवा खाने में था।
" अब हमें जाना ही होगा।"
" ठीक है मुन्नु, कब चलना है?" दद्दा अब भी हलवा खाने में तल्लीन थे।
" आप कैसे चलेंगे दद्दा ?" मुन्नु ने प्रश्न तो उनसे किया,लेकिन देख वह अपनी पत्नी को रहा था।
" जैसे तुम लोग जाओगे, इतनी तक़लीफ़ तो झेल ही लूँगा... शिवु को मत बताना...मैं सरप्राइज़ दूँगा उसे।"
" नहीं दद्दा, आपका इस उमर में इतनी दूर जाना ठीक नहीं।फिर वहाँ जच्चा-बच्चा के साथ आपका ध्यान कौन रखेगा?"
दद्दा कुछ कहते-कहते ठिठक गये।उन्हें मुन्नु का स्वर अपरिचित लगा।
" आपके लिए घर जैसा इंतज़ाम कर दिया है," मुन्नु सहजता से नाश्ता करते हुए बोला लेकिन दद्दा का कटोरी से हलवा निकालता हाथ एकबारगी काँप गया।किसी अनिष्ट की आशंका के साथ प्रश्नवाचक दृष्टि से उन्होंने मुन्नु को देखा।
" मैंने 'जीवन-निलय' में आपकी बात की है," मुन्नु ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा।दद्दा इस नाम से परिचित थे।एक बार अखबार के रविवार विशेषांक में उस पर लेख छपा था जिसमें वहाँ की व्यवस्था की प्रशंसा की गई थी।उन्हें उस लेख का अंतिम वाक्य भी याद है कि "सभी सुखदायी व्यवस्थाओं के बावजूद 'जीवन निलय' जैसी संस्थायें आपके घर का पर्याय नहीं बन सकती।"
" मैं घर छोड़कर कहीं रहने नहीं जाने वाला," उन्होंने बिना मुन्नु की तरफ देखे हलवे का आखिरी निवाला मुँह में डालते हुए कहा।
" यहाँ कौन ध्यान रखेगा आपका?"
"शिवु के घर जाऊँगा..." कहकर बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किये दद्दा उठकर कमरे में आ गये।
दोपहर के खाने के समय मुन्नु घर पर नहीं था।दद्दा ने भी बिना एक शब्द बोले खाना खाया और फिर कमरे में आ गये।मुन्नु देर से लौटा।खाना खाते हुए पति-पत्नी की बातचीत के अस्पष्ट हल्के स्वर दद्दा के कानों पर पड़ते रहे।उन्होंने मन ही मन ठान लिया था कि वे या तो शिवु के घर जायेंगे नहीं तो यहीं रहेंगे।
चाय के दो प्याले लिये शाम को मुन्नु दद्दा के कमरे में आया।दद्दा ने प्याली ले ली पर बोले कुछ नहीं।
" दद्दा,आप समझते क्यों नहीं?" कुछ देर की चुप्पी को तोड़ते हुए मुन्नु बोला।
" मुन्नु, तू भी समझ कहाँ रहा है? "
" वहाँ और लोग भी तो रहते हैं!"
" रहते होंगे, जिनका कोई घरबार नहीं होगा...मेरे तो हैं ना,तू है, शिवु है, फिर मैं क्यों जाऊँ?" दद्दा बच्चे जैसे हठी स्वर में बोले।
" दद्दा, शिवु कोलकाता रहता है और आप यहाँ...न वो यहाँ आने वाला है और न आप वहाँ जा सकते हो।और तो और आपकी वजह से हम भी नहीं जा पा रहे..." मुन्नु के स्वर का तीखापन दद्दा के लिए बिलकुल नया था।
" चले जाओ तुम्हें कब रोका है?" दद्दा का स्वर ढीला पड़ गया था।लेकिन मुन्नु के स्वर की तल्ख़ी कम नहीं हुई।
" आपको यहाँ अकेले छोड़ कर?आपको पता है मैं जा नहीं सकता...ये तो वही बात है कि न जाऊँगा न जाने दूँगा।" मुन्नु नाराज़गी से उठकर जाने लगा।
" शिवु कहेगा तो चला जाऊँगा..." दद्दा ने अपना तुरुप का पत्ता फेंका।
मुन्नु बिना कुछ कहे बाहर निकल गया।
रात देर तक दद्दा करवट बदलते रहे।शाम को कमरे में सुलगायी अगरबत्ती से कमरा अभी भी महक रहा था।बरसों से वह महक घर की दीवारों में ही समा गई थी।तभी तो दद्दा शिवु और रंजू को हमेशा अपने आसपास महसूस करते थे।उन्हें पता था मुन्नु के पास अब उन्हें भेजने का कोई बहाना नहीं बचा था।मुन्नु शिवु से उन्हें चले जाने के लिए कह नहीं सकेगा और उनका शिवु तो अपने दद्दा से कभी भी ये बात नहीं कहेगा।शिवु ने दद्दा को वहीं बुला लेना है,मुन्नु को भी उसका कहना मानना ही पड़ेगा।
लेकिन आज दद्दा को शिवु की नहीं, मुन्नु के बचपन की याद आ रही थी।कितनी बार होता था कि जब सब को किसी शादी या समारोह में जाना होता तब मुन्नु न जाने की ज़िद पर अड़ जाता और दद्दा अम्मा-बाबूजी को भेज कर खुद उसके साथ घर पर रह जाते।जब तक अम्मा-बाबूजी लौटते तब तक मुन्नु खेलने से थककर भोजन करके सो चुका होता।बाद में शिवु और रंजू को भी दद्दा उसी तरह सम्भाल कर मुन्नु और उसकी पत्नी को कहीं भी जाने देते।क्या आज मुन्नु के लिए उनका साथ रहना ही समस्या बन गया है?दद्दा को जिस तेज़ी से यह विचार आया, उन्होंने उसी तेज़ी से उसे झटक दिया।वे शिवु के फोन की प्रतीक्षा में थे,पर वो नहीं आया।
" शिवु का फोन आया क्या?" अगले दिन सुबह नाश्ते के समय दद्दा ने स्वयं ही पूछ लिया।मुन्नु ने सिर हिला कर मना कर दिया।दद्दा ने नाश्ता किया और अपने कमरे में आकर शिवु का नम्बर मिलाया।घण्टी बजती रही, शिवु ने फोन नहीं उठाया।थोड़ी देर बाद उसने दद्दा को फोन किया। " सुना तूने शिवु, तेरे पापा मुझे 'जीवन निलय' भेजने की बात कर रहे हैं..."दद्दा फोन उठाते ही बोल पड़े..." मैंने मना कर दिया, मैंने कह दिया है मेरा शिवु कहेगा तो चला जाऊँगा..."
" दद्दा, वहाँ आपको कोई तकलीफ नहीं होगी...." शिवु शायद आगे भी बोल रहा था लेकिन दद्दा को इसके बाद कुछ सुनायी नहीं दिया...शिवु के शब्द कानों से टकराकर लौट रहे थे...सिर्फ यही आवाज़ गूँजती रही..."वहाँ आपको कोई तकलीफ नहीं होगी... कोई तकलीफ..."
" ठीक है बेटा..." दद्दा ने उसके बाद कुछ भी सुने बिना सिर्फ इतना कहा और फोन काट दिया। सुबह की लगायी हुई अगरबत्ती अभी तक सुलग रही थी और पहली बार दद्दा को लगा जैसे कमरा धुएँ से भर गया है।
थोड़ी देर बाद मुन्नु आकर उनके पास खड़ा हो गया।
" दद्दा..."
" कब चलना है...?"उसके बात पूरी करने से पहले ही दद्दा ने टोककर पूछा।
" दद्दा, आप शिवु की पूरी बात तो सुनते।"
" तू बता देना जब चलना होगा," दद्दा ने मुन्नु की भी बात नहीं सुनी।शिवु की बात सुनने के बाद उनके लिए सभी शब्द अपना मायना खो चुके थे।मुन्नु कुछ देर खड़ा रहा फिर चला गया।
शिवरंजनी की सुगंध से सराबोर कमरे में दद्दा अपने पलँग पर स्तब्ध लेटे थे।जाने क्यों आँखें मूँदने के बाद भी अगरबत्ती की महक से अतीत का कोई चित्र मानस में नहीं उभरा।ऐसा लगता था कि उनके मन-मस्तिष्क से सभी छवियाँ गड्डमड्ड होकर उलझ गयी हैं।मुन्नु के बचपन की कोई छवि उभरती भी तो उसपर शिवु की आवाज़ हावी हो जाती या शिवु के चेहरे पर मुन्नु की...दद्दा ने उसके बाद जैसे चुप्पी साध ली।
'जीवन निलय' के भवन को दद्दा तसवीर में देख चुके थे।ठीक पाँच दिनों बाद दद्दा स्वयं वहाँ थे।जाने से पहले मुन्नु ने ही उनका सामान तैयार किया।दद्दा ने किसी से कुछ नहीं कहा।मुन्नु की बहू ने पैर छूए तो उसके सर पर हाथ रखकर मौन आशीर्वाद दिया।घर से निकलकर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
उन्हें छोड़कर मुन्नु घर आया तो पत्नी ने उन्हें शिवरंजनी अगरबत्ती के आधा दर्जन पैकेट दिखाते हुए कहा," ये तो यहीं रह गए!"
" अरे,ये तो..." वह कहते हुए रुक गया।उसीने तो दद्दा के सामान के साथ छह पैकेट सूटकेस में रखे थे...दद्दा ने जाने से पहले कब निकालकर रख दिये, पता नहीं।
" भूल गया रखना, अगली बार जाऊँगा तब दे आऊँगा," उसने बिना उसकी ओर देखे कहा।
उसने कोलकाता के लिए चार दिन बाद की टिकट निकाल ली।इधर दद्दा 'जीवन निलय' की अचिह्नि दीवारों के सहारे मौन बैठे रहते।शिवु या मुन्नु का फोन आता तो सिर्फ हाँ-ना में उत्तर देते, पूछते कुछ भी नहीं।
" दद्दा कुछ समझे बिना रूठे बैठे हैं," मुन्नु ने पत्नी से कहा।
दद्दा को गये दो दिन हो गये।मुन्नु और उसकी पत्नी कोलकाता की तैयारी में व्यस्त हो गये।दोपहर को शिवु का फोन आ गया कि बहू को अस्पताल में दाखिल करना पड़ा है, हालाँकि चिंता की कोई बात नहीं है।
" ध्यान रखना बेटा, परसों दोपहर तक हम पहुँच रहे हैं," मुन्नु ने शिवु से कहा।मुन्नु की पत्नी बेटे के पास जाने के लिए और भी आतुर हो गयी।उसके लिए दो रातें काटना भी कठिन हो रहा था।रात को शिवु ने बताया कि डॉक्टर टेस्ट आदि कर रहे हैं, उसके बाद ही कोई फैसला लेंगे।मुन्नु और उसकी पत्नी का चिंतित होना स्वाभाविक था।एक दिन बीच में था, परसों सुबह दस बजे की फ़्लाइट की टिकटें थीं,तीन घंटे में वे शिवु के पास होंगे।दद्दा की तरफ से वे लगभग निश्चिंत हो गये।वहाँ की व्यवस्था तथा सुविधाएँ मुन्नु स्वयं देख आया था।दद्दा भी आज नहीं तो कल मान जायेंगे।मुन्नु को यक़ीन है कि शिवु का बच्चा होने की ख़बर मिलते ही दद्दा की नाराज़गी ग़ायब हो जायेगी।कोलकाता जाने से पहले कल शाम मुन्नु और उसकी पत्नी दद्दा से मिल आयेंगे।
सुबह होते ही उसने शिवु को फोन किया तो पता चला कि डॉक्टर ने सिज़ेरियन करने का फैसला ले लिया है और दोपहर तक ही शायद हो भी जाये।यानि कल कोलकाता पहुँचने तक खुशखबरी आ चुकी होगी ! मौजूदा परिस्थिति के बावजूद यह विचार उसे सुखकर लगा।
" अच्छा हुआ दद्दा का इंतजाम हो गया।इस भागदौड़ में उन्हें भी ले जाना पड़ता तो मुश्किल था..." दोपहर को खाना खाते हुए मुन्नु ने पत्नी से कहा...
" शाम को उन्हें खुशख़बरी मिल ही जायेगी।"
तभी उसके फोन की घण्टी बजी।
" लगता है ख़ुशखबरी आ ही गयी," उसने लपककर फोन उठाया।
" केशव वर्मा जी को दिल का दौरा पड़ा है, अस्पताल में दाखिल कर दिया है...आप जल्द से जल्द यहाँ आ जायें..." दूसरी तरफ 'जीवन निलय' का अधिकारी था।मुन्नु अवाक सुनता रह गया मुँह से अस्फुट शब्द ही निकले...क्या...कैसे...लेकिन अधिकारी ने वही दोहराया, "दिल का दौरा...आप तुरंत आ जाइये।"
मुन्नु ने फोन रखा ही कि शिवु का फोन आ गया," पापा, बेटा हुआ है..." उसने उत्साह से कहा।
" बहू ठीक है ना...मैं दद्दा को लाने जा रहा हूँ..."कहते कहते मुन्नु रो पड़ा।
'जीवन निलय' के अधिकारियों ने बताया कि दद्दा ने आने के बाद से किसी से बात नहीं की।उन्होंने वहाँ केवल दो रातें बितायी, वो भी खामोशी में।
दद्दा का सामान वापस घर आ गया, दद्दा नहीं...
© भारती बब्बर