Sathiya - 32 in Hindi Fiction Stories by डॉ. शैलजा श्रीवास्तव books and stories PDF | साथिया - 32

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साथिया - 32




















उधर सौरभ दिल्ली से बस में बैठ गया गांव आने के लिए। उसका दिल बैठा जा रहा था किसी अनहोनी की आशंका से।

"हे भगवान मेरे वहां पहुंचने से पहले कुछ भी गलत ना हो..!! मैं वहां पहुंच जाऊंगा तो कुछ भी नहीं होने दूंगा। कैसे भी करके नियति को बचा लूंगा। मैं अपनी बहन के साथ कुछ भी गलत नहीं होने दे सकता । कब तक गांव वाले अपने बिना मतलब के नियम कायदों में बांधकर लोगों की जान लेते रहेगें। लोगों को सजा देते रहेंगे।" सौरभ सोच रहा था और उसका बस चलता तो वह उड़कर गांव पहुंच जाता पर बस तो अपनी रफ्तार से ही चलेगी। और हर पल के साथ सौरभ की बेचैनी बढ़ती जा रही थी।

*******

गांव की चौपाल पर भीड़ लगी हुई थी।

सभी पंचों के साथ साथ पूरे गांव के लगभग हर घर के मर्द मौजूद थे, तो वही घर की औरतें अपने घर की छतों पर खड़े हो कर देख रही थी कि आखिर क्या होने वाला है? लड़कियां सहमी हुई खड़ी थी। उन्हें नियति में अपना भविष्य दिख रहा था।

आव्या की रो-रोकर हालत खराब थी वह बार-बार निशांत तो कभी अपने पापा से नियति के लिए भीख मांग रही थी पर उसकी कोई नहीं सुन रहा था..! तो वहीं बड़ी ठकुराइन और छोटी ठकुराइन की भी आंखों में आंसू बह रहे थे पर वह जानती थी कि ठाकुरों के आगे उनकी बिल्कुल भी नहीं चलेगी।

बड़ी ठाकुराइन को याद आ रहा था वो दिन जब उन्होंने नियति को रोका था और वो नही मानी थी।

सार्थक के पापा सार्थक को ढूंढते हुए गांव तक आ पहुंचे थे पर गांव के लड़कों ने उन्हें गांव के बाहर ही रोक दिया था और उन्हें अंदर आने की इजाजत नहीं थी।

कुछ ही देर में सार्थक के पापा ने देखा कि एक जीप अंदर गई और उसमें घायल अवस्था में बैठा सार्थक भी दिखाई दिया।

वह जीप के पीछे दौड़े तो उन लड़कों ने वापस से उन्हें वहीं रोक दिया


" तुमको गांव में कदम रखने की इजाजत नहीं है और अगर अपनी जिंदगी चाहते हो तो यही खड़े रहो वरना अभी के अभी ठोक देंगे।" एक लड़के ने कहा तो सार्थक के पापा मजबूर होकर वहीं गांव के बाहर जमीन पर बैठ गए।

आंखों से आंसू बहने लगे पर मजबूरी थी और वह कुछ भी नहीं कर सकते थे। इसलिए खामोश हो गए क्योंकि आगे क्या होगा यह बात वो बहुत अच्छे से जानते थे।
यहाँ पुलिस और कानून भी फैल है सार्थक के पापा को पता था।

जीप जाकर गांव की चौपाल पर रुकी और उसमें से लड़के बाहर निकले और उन्होंने खींचकर नियति और सार्थक को भी लाकर सबके सामने पटक दिया।

सार्थक तो कुछ नहीं बोला पर नियति ने भरी आंखों से अपने अपने बाबूजी और चाचा को देखा।

दोनों ने नजरें फेर ली तो नियति को समझ में आ गया कि अब कुछ भी नहीं हो सकता। फिर भी उसने एक आखिरी कोशिश की।

"मुझे माफ कर दीजिए बाबूजी...!! आप जो कहोगे मैं वह करूंगी। बस एक विनती है सार्थक को छोड़ दीजिए। उसे यहां से चले जाने दीजिए इसकी कोई गलती नहीं है। सारी गलती मेरी है। मैंने ही इसे बहकाया था।" नियति बोली तो सार्थक ने नियति की तरफ देखा।

"नहीं बड़े ठाकुर साहब...!! जितनी गलती नियति के है उतनी मेरी भी है और मैं इसे गलती नही मानता क्योंकि प्यार करना कोई गलती नहीं होती। इसलिए मैं उसको गलती नहीं मानता, हम दोनों ने एक दूसरे से प्यार किया है। एक दूसरे से शादी करना चाहते हैं। हम वालिग है और आपसे विनती है कि खुशी खुशी रिश्ते को स्वीकार कीजिए और हमें आशीर्वाद दीजिए।" सार्थक ने हिम्मत करके कहा तो दो गजेंद्र सिंह अवतार सिंह और बाकी पंचों ने उन दोनों को घूर कर देखा।


" इस गाँव में प्यार करना गुनाह होता है, फिर चाहे वह ठाकुर की औलाद करें सरपंच की औलाद करें या गांव की कोई भी लड़की और सबके लिए सजा एक ही है।" अवतार बोले।

" चाचा नही..!" निशांत ने अवतार के आगे हाथ जोड़ दिये।
" नियम किसी का लिए नही बदलते।" अवतार बोले और गजेंद्र की तरफ देखा तो उन्होंने सहमति मे गर्दन हिला दी।



"आप लोग इन लोगों को सजा देने के लिए स्वतंत्र है। इन्हें इनकी सजा दे दी जाए।" गजेंद्र ठाकुर बोले और उसी के साथ सभी पंच उठ खड़े हुए।

उन लड़कों ने नियति और सार्थक को देखा।

नियति ने भरी आंखों से सार्थक को देखा और फिर उसका हाथ पकड़ लिया।

"मुझे माफ कर देना सार्थक इसी वजह से मैं तुम्हारा प्यार स्वीकार नहीं कर रही थी...!! आज मेरे कारण तुम्हारे साथ भी..!" नियति ने कहा तो सार्थक में आगे बढ़ कर उसे अपने सीने से लगा लिया।

तुम्हारी गलती नहीं है तुमसे प्यार करने निर्णय मेरा था तो अब जो भी होगा वह मुझे मंजूर है।" सार्थक बोला।

अगले ही पल वो लोग नियति और सार्थक की तरफ आये और दोनों को खींच कर एक दूसरे से अलग कर दिया।
******

सार्थक के पापा गाँव के बाहर सिर पकड़ के रो रहे थे। रात निकल चुकी थी पर न उनके बार बार बुलाने पर पुलिस ही आई थी और न ही उन्हें गांव में जाने दिया गया था

सुबह के समय सौरभ की बस गाँव के बाहर रुकी तो सौरभ जल्दी से उतरा और दौड़ते हुए अंदर जाने लगा।

नजर सार्थक के पापा पर गई और उनकी हालत देखा वो समझ गया कि यह जरूर उसी लड़के के कोई रिश्तेदार है।

सार्थक ने सार्थक के पापा के कंधे पर हाथ रखा तो उन्होंने भरी आंखों से देखा

" बेटा मेरा इकलौता बेटा है सार्थक...उसे छोड़ दो आप लोग.. !! मैं उसे लेकर चला जाऊंगा कहीं वह दोबारा नहीं आएगा वो इस गांव में न ही गांव की लड़की की तरफ आंख उठाकर भी देखेगा इस बार माफ कर दो मेरे बेटे को छोड़ दो हाथ जोड़ता हूं आपके!" सार्थक के पापा ने दुखी होकर कहा

"आप चलिए मेरे साथ कुछ नहीं होने दूंगा मैं उन दोनों को आइये आप!" सौरभ बोला और सार्थक के पापा को लेकर अंदर जाने लगा


"छोटे ठाकुर उन्हें अंदर जाने की इजाजत नहीं है!" तभी एक लड़के ने कहा

"यह मेरे साथ है और इन्हे कोई नहीं रोक सकता समझे तुम!"सौरभ बोला और सार्थक के पापा के साथ गांव के अंदर पहुंचा

दोनों का दिल अनहोनी की आशंका से बैठा जा रहा था
पूरी रात निकल चुकी थी और रात भर में क्या हुआ होगा दोनों को ही इस बात का अंदाजा था पर फिर भी एक उम्मीद के साथ दोनों अंदर जा रहे थे कि तभी एक दम से सार्थक के पापा की चीख निकल गई और वह बेहोश हो गए।

सौरभ की नजर भी जल्दी ही सामने गई तो उसकी भी आंखों से आंसू निकलने लगे और शरीर सुन्न हो गया।

वह घुटनो के बल वही बैठ गया सामने का नजारा देखने की उसकी हिम्मत ही नहीं हो रही थी आंखों से आंसू निकल रहे थे

"मुझे माफ कर दे नियति आने में देर हो गई। तुमने मुझे पहले क्यों नहीं बताया यह सब? काश कि तुमने मुझे पहले बताया होता? " सौरभ ने कहा और सामने की तरफ देखा वहां चौपाल चौपाल पर लगे पेड़ पर सार्थक और नियति दोनों की मृत देह लटकी हुई थी। गले में रस्सी का फंदा बंधा हुआ था।




"सौरभ ने हिम्मत की और दौड़ कर उधर गया और जल्दी से नियति के बॉडी को नीचे उतारा पर उसकी मौत बहुत पहले हो चुकी थी। सौरभ ने नियति के मृत शरीर को सीने से लगा लिया।

" यह क्या हो गया? काश कि तूने मुझे बताया होता नियति?मुझे क्यों नहीं बताया? इतनी बड़ी बात तो अपने भाई से कैसे छुपा गई? सौरभ रोते हुए बोले जा रहा था।

गांव के बाकी लोग भी अब घरों से बाहर आ गए थे और इस वीभत्स दृश्य को देख रहे थे।

सार्थक के पापा को कुछ देर में होश आ गया था और वह भी सार्थक की के मृत शरीर से लिपटकर दहाड़े मार-मार कर रो रहे थे

गांव की हर औरत की आंख में आंसू थे तो वहीं हर लड़की डरी सहमी खड़ी हुई थी तो वहीं मर्दो के चेहरे पर शिकन नहीं थी सब उन लोगों को ऐसे देख रहे थे जैसे उन्हें इस घटना के बारे में कुछ पता ही नहीं

"सौरभ घर जा!" तभी गजेंद्र ठाकुर की आवाज गूंजी तो सौरभ ने लाल होती है आंखों से उसे देखा

"मार दिया आप लोगों ने मेरी बहिन को क्यों मार डाला? क्या बिगाड़ा था उसने आप लोगों का,? कब तक आप इस तरीके से करते रहोगे। आप लोग इंसान नहीं हो कसाई हो आप लोग बहुत बुरे हो। आप लोगों को पुलिस नहीं छोड़ेगी। मैं अभी जाकर कम्प्लेन करूंगा.!" सौरभ ने कहा तो सुरेंद्र ने उसके कंधे पर हाथ रख कर दिया।

"आपने भी कुछ नहीं कहा. आप कर सकते थे फिर क्यों नहीं बोले कुछ। कब तक आपने भाई के जुर्मो में साथ देते रहोगे आप? आप लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं। बच्ची थी आपकी नियति आपकी उंगली पकड़कर चलना सीखा था उसने आपने कैसे उसकी मौत पर मुहर लगने दी। " सौरभ अपने आपे में नहीं था वह रोते हुए चीख रहा था पर कोई जवाब नहीं दे रहा था।


"सुरेंद्र संभालो अपने बेटे को...!! आपा खो बैठा है ये। कहा था ना तुमसे कि शहर जाकर दिमाग खराब हो गया है इसका!' गजेंद्र बोले।

" दिमाग मेरा नहीं है खराब। दिमाग खराब लोगों का खराब हो गया है.. आज के जमाने में भी आप जाने कौनसी दुनियां मे जी रहे हो? जाने कहाँ की ममान्यताये ढो रहे हो। मानो मान्यताएं जो करना है करो पर मेरी बहन के साथ क्यों?उसकी जान ले ली आप लोगों ने सिर्फ सिर्फ इसलिए की उसने प्यार किया.। आप लोग बहुत खराब होm आप लोग इंसान कहलाने के लायक नहीं हो। राक्षस और आप लोग!" सौरभ दर्द और गुस्से से बोला।



"यहां किसी ने इनके साथ कुछ नहीं किया। खुद ही शर्मिंदगी से दोनों ने आत्महत्या कर ली यह देखो!" गजेंद्र ठाकुर ने पेड़ के नीचे लिखे वाक्यों की तरफ देखने को कहा,


सौरभ ने उधर देखा जहां लिखा हुआ था।

"मैं और सार्थक एक दूसरे से प्यार करते हैं। हमने अपनी मर्यादा का उल्लंघन किया और बिना सोचे समझे एक दूसरे की तरफ कदम बढ़ाए। हमें अपनी गलती का एहसास है और साथ ही हो पछतावा भी इसलिए हम दोनों अपनी जान दे रहे हैं इसके लिए किसी को भी जिम्मेदार नहीं ठहराया जाए..!" नियति- सार्थक


" सब झूठ है। झूठ है यह।
मैं जानता नहीं हूं क्या यह सब क्या है? यह तो आप लोगों का हमेशा का है। मैं नहीं छोडूंगा आप लोगों को इस बार। आप को सजा दिलवाकर रहूंगा मैं...!" सौरभ बोला।


"ठीक है दिलवा देना सजा पर अभी जनानियों की तरह रोना बन्द करो और घर चलो बेवजह का तमाशा लगा रखा है।"गजेंद्र ठाकुर बोले तो सौरभ ने उन्हे गुस्से से देखा।

तभी पुलिस की गाड़ी आकर वहाँ रुकी।

सार्थक के पापा ने दुख गुस्से और मायूसी से पुलिस को देखा।


उनका सब कुछ मिट चुका था तब पुलिस आई थी गाँव में जबकि वो रात से लगातार कोशिश कर रहे थे।

इंस्पेक्टर ने नियति और सार्थक की लाश को देखकर गहरी
सांस ली और फिर फिर पंचों की तरफ देखा जिनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी।

'ठाकुर साहब कम से कम अपनी बेटी को तो बख्श देते।"इंस्पेक्टर बोला।

" हमे ज्ञान और कानून न सिखाओ अपना काम करो। हम लोगों और हमारे कानून के बीच में मत पड़ो। दोनों शर्मिंदा थे अपनी हरकत पर । भाग गए पर रहने खाने का इंतजाम नहीं था इसलिए आत्महत्या कर ली और इस बात का गवाह यह पूरा गांव है और साथ ही इन दोनों का लिखा हुआ यह इकरारनामा।" अवतार सिंह ने जमीन की तरफ देख के कहा।

निशांत ने अवतार को जलती आँखों से देखा।

" तुमने मेरी बहिन को बचाने मे मदद नही की अवतार सिंह जबकि तुम रोक सकते थे बाबूजी को। भगवान् न करे अगर मौका मिला तो सूद समेत लौटाऊंगा तुमको ये अपमान दर्द और जिल्लत।" निशांत अवतार को देख खुद से ही बोला।


क्रमश:

डॉ. शैलजा श्रीवास्तव

डिस्क्लेमर:

यह रचना सिर्फ मनोरंजन के लिए लिखी गई है। पूर्ण रूप से काल्पनिक है। किसी जाती धर्म या समुदाय का विरोध करना या किसी की भावना को आहत करना उद्देश्य नही। जाति प्रथा का समर्थन करना इस रचना का उद्देश्य नही।

कृपया मनोरंजन की दृष्टि से ही पढ़े। 🙏🙏🙏