Kya Tumne - Part -11 in Hindi Women Focused by Ratna Pandey books and stories PDF | क्या तुमने - भाग ११

Featured Books
Categories
Share

क्या तुमने - भाग ११

सबने मिलकर मोहन का अंतिम संस्कार पूरे विधि विधान के साथ कर दिया। अंतिम संस्कार के बाद जब वे वापस आये तो घर पर मोहन की माँ फूट-फूट कर रो रही थीं।

गोविंद ने उन्हें समझाते हुए कहा, “मत रो माँ, हमारे भाग्य में यही लिखा था और लिखे को भला कौन टाल सकता है।”

जयंती ने कहा, “अम्मा मोहन भैया इतनी ही उम्र लेकर आए थे बाकी तो कोई ना कोई बहाना मिल ही जाता है।”

थक हार कर सभी अपने-अपने बिस्तर पर जाकर सो गए।

मोहन का दसवां तेरहवां सब हो गया और उसकी अस्थियाँ भी विसर्जित कर दी गईं।

अस्थि विसर्जन के बाद मोहन की माँ माया गहरे सदमे में थी, वह इधर से उधर बार-बार करवटें बदल रही थीं। उन्हें नींद नहीं आ रही थी।

इस तरह माया को बेचैन देखकर सखाराम से रहा नहीं गया। तब उन्होंने माया को अपनी बाँहों में भरते हुए कहा, “सो जाओ माया, भगवान की मर्जी के आगे भला किसकी चलती है। भगवान जो भी करता है अच्छे के लिए ही करता है या हमसे यदि कुछ करवाता है तो वह भी सोच समझ कर ही करवाता है। शायद इसी में सबकी खासतौर से बसंती की भलाई थी।”

‘या फिर हमसे जो भी करवाता है’, यह शब्द सुनकर माया चौंक गई और कहा, “करवाता है? क्या कहना चाहते हो तुम? मतलब क्या है तुम्हारा? तुम ऐसा क्यों कह रहे हो?”

“क्योंकि माया मैं जानता हूँ कि हमारे घर के एक आतंकवादी को हमारे ही घर की एक सेनानी ने मार डाला है। जब सेना का कोई सिपाही किसी आतंकवादी को मारता है तब वह, उसे मारने के बाद पछताता नहीं है। क्योंकि वह तो दूसरों की रक्षा के लिए एक खतरनाक इंसान को मारता है। तुम भी सुकून से रहो माया, तुम्हें पछताने की कोई ज़रूरत नहीं है।”

“तो क्या तुम जानते हो …?”

“हाँ माया तुमने तो एक पराई बेटी को बचाने के लिए अपने खून को … ऐसा कोई नहीं कर सकता माया कोई नहीं।”

“सखा मैंने सही किया या ग़लत, मैं नहीं जानती लेकिन बसंती को रोज़ मरते हुए मैं नहीं देख पा रही थी। वैसे मोहन भी कहाँ ज़िंदा था। वह भी तो रोज़ मर ही रहा था। उसने तो अपने होने वाले बच्चे की हत्या तक कर दी। जाने अनजाने ही सही लेकिन यदि वह बसंती को जल्लादों की तरह नहीं पीटता तो हमारा बच्चा ज़िंदा होता। उसे तो दुनिया में आने से पहले ही उसने मार दिया। मोहन ने जो भी किया उसमें गलती भी उसकी अकेले की ही तो थी। ना गोविंद की, ना बसंती की और ना ही उस नन्हीं जान की। कितना समय हो गया था बेचारी बसंती को मार खाते-खाते। यदि मैं मोहन को नहीं मारती तो वह बसंती को वैसे ही मार डालता जैसे मेरे पिता…,” इतना कहकर माया चुप हो गई ।

“माया क्या कह रही थीं? तुम अपनी बात पूरी करो?”

माया रो रही थी बिल्कुल उस शांत नदी की तरह जो कभी-कभी बिना आवाज़ के, बिना ख़ुशी के केवल बहती ही जाती है।

तब एक बार फिर सखाराम ने उससे पूछा, “माया आधे में बात को नहीं रोकना चाहिए या तो बोलो ही मत, बताओ ही मत और यदि शुरु कर ही दिया है तो फिर पूरी बात ख़त्म करो।”

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः