चिन्मय आदर्श उच्चतर माध्यमिक विद्यालय का होनहार छात्र तो था ही विद्यालय का गर्व था ।
विद्यालय के प्राचार्य चन्द्र वदन चतुर्भुज कठोर अनुशासन एव नियम के सख्त व्यक्ति थे दस बजे विद्यालय का मुख्य द्वार बंद कर दिया जाता था किसी को भी एक मिनट बिलंब से आने की अनुमति नही थी फिर चाहे वह छात्र हो या अध्यापक फिर चार बजे शाम को ही खुलता इस दौरान कोई छात्र या अध्यापक विद्यालय कि बाउंड्री पार नही कर सकता था ।
आदर्श उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में प्रवेश मिलना ही बहुत बड़ी बात थी चिन्मय को अध्ययन के लिए अच्छा वातावरण मिला वह नियमित साढ़े आठ पौने नौ बजे तक घर से निकलता और शाम छः बजे तक घर लौटता कुछ देर विद्यालय के कार्य पूरा करता फिर रात खाना खा कर सो जाता फिर सुबह चार बजे उठना पढ़ना और सुबह सात बजे से स्कूल जाने कि तैयारी करना यही इसी दिन चर्या में बंध कर रह गया था चिन्मय।
चिन्मय के समक्ष मैट्रिक परीक्षा में प्राप्त किये गए प्रथम स्थान को बचाए रखने की चुनौती थी जिसके कारण वह अध्ययन विद्यालय विद्यालय के सांस्कृतिक कार्यक्रमो एव खेल कूद के अतिरिक्त उसका ध्यान कही भी नही जाता दो वर्ष तक सौभाग्य को पढ़ाने एव सौभाग्य कि यादें उसे यदा कदा अवश्य आती
चिन्मय अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख सिर्फ अपने उद्देश्य पर आगे बढ़ता जा रहा था ।
सौभाग्य को जुझारू अपने साथ साप्ताहिक बाजारों में ले जाना बंद कर दिया सौभाग्य कि जिंदगी घर वन तक सीमित रह गयी शेरू जिसे वह मरणासन्न उठा कर ले आयी थी वह अब एक वर्ष का दहाड़ता शेर बन चुका था शेरू सौभाग्य के साथ तो ऐसे निर्द्वंद घूमता जैसे सौभाग्य के रूप में साक्षात दुर्गा हो और शेरू उसकी सवारी लेकिन गांव के अन्य बच्चे युवा बृद्ध शेरू को देख कर डरने लगे जब भी शेरू बाहर घूमता गांव वालों को पता चल जाता गांव में ऐसी बिरानी छा जाती जैसे गांव में कोई हो ही नही ।
काल अपनी गति से चलता जा रहा था सूरज ढलने को था कही बाज़ार का दिन नही था जुझारू भी घर पर ही थे सौभाग्य वन में लकड़िया बिनने गयी थी घर पर सिर्फ तीखा और जुझारू ही थे तीखा ने पति जुझारू से कहा बेटी सयानी हो गइल है वोकरे जोगे कौनो लड़िका देख जुझारू ने पत्नी तीखा से सहमत होते बोले ठीक कहत हऊ हमहू सोचत हई कि सौभाग्य के वियाह कई दिहल जाय विरादरी में कौनो ढंग के लड़िका जो सौभाग्य के जोगे होखे देखत हई ।
पति पत्नी कि वार्ता का क्रम चल ही रहा था कि सौभाग्य कावड़ पर लकड़िया लादे वन से लौट आईं बेटी को देख तीखा बोली ल नाम लिए बेटी हाजिर सौभाग्य ने माई तीखा से पूछा माई तू और बाबू हमरे बात करत रहे ना तीखा बड़े प्यार से सौभाग्य के सर पर हाथ फेरती बोली हाँ तू ही एक आंखे के पूतरी हऊ तोहरे पहिले केहू नाही तोहरे बाद केहू नाही त तोहरे अलावा केकर चर्चा होई सौभाग्य बोली का चर्चा होत रही तीखा बिना किसी लाग लपेट के बोली बेटी तोहरे बाबू से कहत रही कि बेटी जोगे कौनो अच्छा लड़िका देख बेटी हाथ पियर कई दिहल जा कुछ ऊंच नीच हो जाय या जमाना के गंदी नजर बेटी पर पड़े त हमन क जियल धिक्कार माई बाबू इज्जत भरे बजार लूट जाई ।
सौभाग्य गंभीर होते हुए बोली का माई हम तोहन पर बोझ हो गइल हई का।
माई तीखा बोली नाही बिटिया ई त दुनियां के दस्तूर ह बेटी त राजा महाराजे अपने घर जिनगी भर नाही रख पवतेन बेटी त दूसरे के अमानत बनिके जनम लेत है सारा दुःख कष्ट उठा के पाली पोषिके बेटी के दूसरे घरे सौंप दिहल जात है इहे दुनियां के रिवाज ह हम छोट लोगन के इज़्ज़त ही सब कुछ है।
सौभाग्य भावुक होते सजल नेत्रों से बोली माई हम तोहन लोगन के छोड़के कहीं ना जाब तीखा ने बेटी कि आंखों में कोमल भावो को समझा बोली बेटी अबे कहाँ जात हऊ चल वन से आइल हुऊ ओतना लकड़ी ले के थक गइल होबी कुछ खा पिय आराम कर ई सब बतकही त चलते रही ।
चिन्मय कि मेहनत देखकर पिता शोभराज तिवारी स्वाति बहुत खुश थे माँ बाप को चिन्मय को लेकर भरोसा हो चुका था कि वह बहुत विशेष सफलता हासिल कर उनके कुल खानदान को गौरवान्वित करेगा।