Mandir ke Pat - 2 in Hindi Horror Stories by Sonali Rawat books and stories PDF | मंदिर के पट - 2

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मंदिर के पट - 2


खंडहर में प्रवेश करते ही एक विचित्र सी गंध रजत के नसों में घुसी । वह कुछ ठिठक गया किंतु फिर दृढ़ता से भीतर प्रविष्ट हो गया । द्वार पार करने पर एक लंबा पतला गलियारा पार करना पड़ा । एक विशाल आँगन में जा कर यह गलियारा खत्म हो गया ।

आंगन के पूर्व में एक दालान था । शेष तीनों और कमरे बने हुए थे जो अब जर्जर अवस्था में थे ।

रजत ने आँगन की पश्चिमी दिशा में पड़ने वाले कमरे को खोला । जर्जर, उड़के हुए किवाड़ चरमरा कर खुल गए और वर्षो से बंद रहने की सीली सी बास एक भभका बन कर बाहर निकली ।

थोड़ा ठहर कर रजत ने कमरे का अंदर से निरीक्षण किया । द्वार दीवार के बीचोबीच में था और उसकी दोनों तरफ दो बड़ी खिड़कियां थीं जिनमें चीड़ की लकड़ियों के पल्ले जड़े हुए थे ।अपने गाइड से कह कर रजत ने कमरे की सफाई कराई । कमरा साफ़ करते करते ही उसने पूछा था -

"साहब ! क्या आप यही रहेंगे ?"

"हां । क्यों ?"

"साहब !..."कुछ कहते कहते गाइड हिचकिचाया ।

"क्या बात है ? निडर होकर कहो ।"

रजत ने फिर पूछा तो वह बोला -

"पचास साठ वर्षों से इन खंडहरों का रुख़ किसी ने नहीं किया है साहब ! और यहां तो सुनते हैं कि आत्माएं रहती हैं ।"

"क्या ?"

"हां साहब ! वह उधर बस्ती की ओर जो मंदिर पड़ता है दुर्गा मैया का वह भी तो अपने आप बन गया था । गांव या शहर के किसी मजदूर या राजगीर ने एक ईंट तक न उठाई और रातों-रात मंदिर तैयार हो गया । दुर्गा मैया के आदेश से ही कोई इधर नहीं आता ।"

गाइड ने बताया ।

"अच्छा । किसी ने दुर्गा मैया को देखा भी है ?"

रजत ने दिलचस्पी से पूछा ।

"साहब ! हम पापी लोगों को तो दर्शन नहीं हुए लेकिन यहां के राजा जी और उनके वंशजों ने उनके कई बार दर्शन किए हैं ।"

"खैर, जो होगा देखा जाएगा ।"

रजत ने बात टालने के ख्याल से कहा । उसे आत्माओं के अस्तित्व पर विश्वास था किंतु उनके दर्शन या रूप धारण करने की बात पर उसे रत्ती भर भी भरोसा नहीं था । भूत-प्रेतों या देवी देवताओं के आगमन की बात भला कौन पढ़ा लिखा व्यक्ति स्वीकार करता है ?

गाइड ने एक बार फिर आग्रह किया -"साहब ! यहां न ठहरें । इससे अच्छा तो आप उस टीले वाले मंदिर की यज्ञशाला में ठहर जाएँ ।"

"नहीं दोस्त ! मैं यही रहूंगा । अगर दुर्गा मैया को यह नाग़वार लगेगा तो वह स्वयं आकर मुझे मना कर देंगी । इसी बहाने उनके दर्शन मुझे भी मिल जाएंगे ।"

"लेकिन साहब !....."

"लेकिन लेकिन कुछ नहीं । मेरा सामान उधर रख दो और अब तुम जाओ । रात होने वाली है । ज्यादा समय की बीत गया तो जाने में भी मुश्किल होगी ।"

"साहब ! आप अकेले ...."

"हां भाई ! मैं अकेला ही रहूंगा । और हां, तुम कल सुबह मेरे खाने के लिए कुछ ला देना । या फिर सुबह आकर कुछ बना ही जाना ।"

"अच्छा साहब !"

वह जाने के लिए मुड़ा तो रजत ने उसके हाथ पर सौ रुपये का नोट रख दिया ।

"ये रुपए रख लो । नाम क्या है तुम्हारा ?"

"गेंदा सिंह ।"

"खूब । अच्छा, कल आना ।"