उसका नया साल
साहित्य सम्मान समारोह में मेरा उससे मिलना हुआ था। वह अलग थलग सी रहने वाली बगावत के लिये तैयार अपनी नजरों से ही अपनी द्रढता का परिचय देती नजर आई थी । रात देर से मेरे कमरे में आई अपने सोने की व्यवस्था नीचे देख कर पलंग पर सो रहे लोगों के लिये हिकारत भरी नजरों से अपनी प्रतिक्रिया देते समय जरा भी नहीं हिचकाई थी। देर रात अंधेरे के मद्दिम प्रकाश में किसीने किसी का चैहरा नहीं देखा सभी देर से आने वाली साहित्यकार बहनें शालीनता से कपडे बदल कर सो गई। सिर्फ मेने उससे कहा था बेटा लाईट का स्वीच इधर है अच्छा की धीमी आवाज से समझ आया उसने बात सुन ली थी
सुबह सब अपने अपने सामान के साथ अपनी व्यवस्था करने में लगे थे। रात मैंने उसे पंखे की गति को लेकर कुछ बहस करते सुना था इसलिये स्वभाविक था वह सुबह देर तक सोने वाली थी।
सभागार में मेरे आलेख पठन के बाद वह स्वयं मेरे पास आई और अपना परिचय दिया था। रात ही हम आपके कमरे में आये थे मैं जलगांव से हुं मराठी हुं। मैने उसे तब ध्यान से देखा था। उसने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर मुझे बधाई दी ’’अच्छा बोलती हैं आप’’ । कविता पाठ के लिये मेरा नाम पुकारे जाने पर उसने कहा था कागों के बीच हंसों का क्या काम। में उसकी बात तब नहीं समझी थी । समारोह में कुछ एैसा था जो उसकी अनुभवी आँखों ने ही देखा सुना था। समारोह के समापन के दिन हम गांधी विश्राम स्थली पर गये। मैं थकान के कारण कोई शान्त कौंना ढूढ रही थी अचानक पीछे से आकर उसने कहा ’’मैं भी नहीं जाना चाहती. आगे चलिये वहाँ बैठ कर आराम करते हैं’’। मैं उसे अनेक लोगों से उलझते पिछले दो दिनों से देख रही थी। इसलिये उसके साथ और शान्ति... असंभव.. था खैर...
पानी की बाटल निकाल कर उसने पूछा ’’आप लेंगी?. मेंने कहा ’’नहीं मेरे पास है’’ मन में उलझन थी ना जाने कैसे बात करेगी। क्योंकि कुछ समय तक वह अपनी भाषा में भुनभुना रही थी जिसे मैं नहीं समझी। उसने कहा ’’मराठी नहीं आती आपको? मेने कहा ’’नहीं आती’’ मुझे अचानक याद आया इसके कविता पाठ पर लगातार तालियां बजी थीं और खडे़ होकर इसका अभिवादन भी किया गया था।
मुझे विषय मिल गया अस्मिता तुम्हारी कविता किस विषय पर थी बताओ तो. उसने मुझ से पूछा ’आपको कुछ समझ नहीं आया?’ मैने कहा ’’मुझ में एक कमी है जब मुझे लगता है यह भाषा मुझे नहीं आती तो मैं जल्दी हार मानकर उसको ध्यान से सुनती भी नही जानती हुं ये गलत है’’। उसने अपनी कविता का सार बताया जो की जीवन संर्धष से भरपूर भावपूर्ण कविता थी।
अचानक जाने मुझे क्या सूझा मैंने उससे पूछ लिया ’’कहाँ कहाँ चोट खा बैठी हो अस्मिता’’ और वह तो जैसे फूट पड़ने को तत्पर थी।
“बचपन में सगे भाई से पिता से और अब पति से..... आगे क्या पूछती उससे. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। बस उसकी पीड़ा की कल्पना मेरे दिलो दिमाग में हलचल मचा रही थी।
उसने कहना आरम्भ किया “मेरी अपनी ही माँ ने मेरी अबोध आवाज को कभी भाई के भविष्य के नाम से तो कभी परिवार की प्रतिष्ठा के नाम से दबा दिया था। दस साल पहले पहला कविता पाठ किया था तब घरवालों ने बहुत धिक्कारा था। सच जो कहा था मैने .. और तब से लिखती आ रही हुं। मैने चुटकी ली ’’मीठा भी लिखती हो या कड़वा ही..’’. उसने बिल्कुल सहजता से जवाब दिया मीठा भी लिखती हुं एक मां जो हुं। “चलो अच्छा है”! मुझे राहत हुई।
उसने कहना जारी रखा मुझे भी अहसास होने लगा था कि “पता नहीं मुझ में ऐसा क्या है कि सबको मेरे अन्दर की मां जल्दि नज़र आ जाती है। मेरी ममता का आश्रय पा स्मिता की आँखें भी छलक आई”। कुछ समय बाद उसने कहा था “वर्ष 2018 मेरा नया साल है जीवन में न जाने कितने साल बदलेंगे पर मैंने मेरा नया साल वर्ष 2018 में बदल दिया। मैं सोच रही थी। कितने रहस्य छुपे हैं इतनी सी जान के दिल में|
जो स्मिता ने अपने जीवन के विषय में बताया आपबीती थी जो उसने मुझे सुनाई| वह मुझे भी अंतरमन तक झकझोर गयी। ‘मानव स्वभाव है, कुछ जाने बिना दूसरो के लिये घारणा बना लेने की. वही गलती मैने स्मिता को लेकर कर डाली थी।
एक दीर्घ स्वास लेकर उसने कहना आरंभ किया था। “दीदी अब तक अफसोस करती रही भगवान् ने मुझे नारी क्युं बनाया पर जब मां बनी. प्यारे से बेटे को जन्म दिया जब इस देह का एक नया अर्थ भी समझ आया. समझ आया कि देह आर्कषण से परे यह नन्हा सा जीव मुझे चाहता है| मेरी आत्मा से जुड़ा है। माता पिता का घर छोड कर जिसके साथ आई थी उसके लिये पत्नी. स्त्री. औरत. नारी. सभी एक देह तन का नाम थे। अन्दर की आत्मा से उसको कोई सरोकार नहीं था। कुछ घंटे मिनट बस इतना ही... भूख शान्त होने तक घर परिवार यहाँ तक की घर के रसोई घर उसके खर्चो से भी उसे सरोकार नहीं था। ऐसे में मेरी भूख से उसको क्या लेना देना।
वर्षो बहुत सहन करती रही हुं मुझे भनक लग गयी थी कि वह अपने दोस्तों को 31 दिसम्बर की रात को बुलाकर कुछ उलटा सीधा करने वाला है। मेरी तीसरी इंन्द्री सक्रिय होकर मुझे चेता रही थी| अनहोनी की आशंका ने मुझे कुछ अनहोनी से बचने की हिम्मत दी। कुछ दिन पहले ही उसके बदले व्यवहार. मेरे प्रति दिखाये स्नेह, सरोकार का अर्थ समझते देर नहीं लगी। उसी रात मैं उसे नशे की हालत में कमरे में बंद कर मुक्ति पा कर चली आयी हुं।
चाहती तो कुछ और भयानक भी कर सकती थी। औरत हुं धैर्य, संयम का अर्थ समझती हुं। बस मुझे आजाद होना था| उसकी यातनाओं से, मेरे अंतर मन तक झकझाोर देन वाले निम्न स्तर के आक्षेपों से। मैंने निर्णय लिया था अब एक बार भी एैसा कुछ नहीं सहन करूंगी जिससे मेरे मातृत्व की गरिमां छिन्न-भिन्न हो जाये। अपने पुत्र को समाज में वह सम्मान दिलाना चाहती थी, जो वह अपने पिता के साथ रहकर कदापी नहीं पा सकता था।
अपनी इस आजादी के लिये अनेको दिनों से प्रयास कर रही थी। बाहर निकल जाना तो आसान था पर जाना कहाँ है यह निर्णय मैं नहीं कर पाई थी। न भाई था न माता पिता थे। मेरे सामने अन्जानी राहें थी और मेरी हिम्मत।
अब इस समाज को जिसे मैं अच्छी तरह पहचान गयी थी उसमें कहीं किसी से आसरे की आशा भी तो नहीं थी। एक इज्जतदार नौकरी तलाश कर पाई, मेरी शिक्षा मेरा सबसे बड़ा संम्बल रहा। पर उस मानसिक त्रास. समाज की उठती अन्जान प्रवंचनाओं से पीछा छुड़ाना आसान भी नहीं था। किसी तरह आसरा ढूंढ भी लिया पर वापस जाने को बाध्य करने का भय तो था ही।
आपको जान कर दुःख होगा दीदी की एक वकील की मदद से तलाक के पेपर्स बनाये ओर तलाक के प्रयास किये। फीस चुकाने के लिये काम आया मेरा मंगलसुत्र जो मेरे पास इकलोता गहना था| पर मेरे नज़र में अब बेकार था और वर्तमान समय में मेरी आजादी का साधन भी।
आपको कितना क्या क्या कहुं कितना बताऊ वकील को भी फीस के अलावा वही सब चाहिये था जिसको चुकाने के लिये मैं कदापी तैयार नहीं थी । मेरी शिक्षा आत्मबल के दम पर ही तो मैं अपना नया साल मना पाई थी।
आज एक वर्ष हो गया। में अपना नया साल मना रही हुं| अपने बच्चे की अच्छी परवरिश में व्यस्त हुं और जानती हुं कि मेरा बेटा भी एक दिन बड़ा होकर पुरूष होगा । नहीं जानती कि मुझ स्त्री की बातें वह समझ पायेगा या नहीं पर अभी में अपना नया साल बिताने में व्यस्त हुं। आज आजाद होकर यह समझ आया कि कोइ अगर आपके अच्छे काम पर संदेह करता है तो करने देना चाहिये क्यों कि शक सदा सोने की शुद्धता पर किया जाता है कोयले की कालिख पर नहीं। क्यों कि जिस व्यक्ति को लेकर मेरे पति मुझ पर शंका करते रहे थे। उसने ही अप्रत्यक्ष रूप से अपनी पत्नी की मदद से मुझे कदम कदम पर हौसला दिया| एक दिन भी मेरे सामने प्रकट नहीं हुआ। पत्नी के द्वारा मुझे यही संदेश देता था कि जीवन में आगे बढने के लिये कभी कभी कुछ कदम पीछे जाना पड़े तो अनुचित नहीं है।
किसी ने सही ही कहा है आगे बढने वाला व्यक्ति कभी किसी को बाधा नहीं पहुचाता, दूसरों को बाधा पहूँचाने वाला व्यक्ति कभी स्वयं आगे नहीं बढता। आज आजादी के इस नव वर्ष पर उसे याद करते हुये सोचती हुं कि ’’है तो वह भी एक पुरूष पर मेरे अनुभव पुरूष से भिन्न सदपुरूष’’।
उसकी बातें सुनते हुये मैं सोच रही हुं कि कोई अपने जीवन में इतना कुछ बर्दात करे और स्वभाव से अख्खड़ भी ना हो यह कठिन जरूर है पर असम्भव नहीं क्यों कि कठिनाईयां हमें विनम्रता ही तो सिखाती हैं।
प्रेषक प्रभा पारीक भरूच गुजरात