Prem Gali ati Sankari - 110 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 110

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प्रेम गली अति साँकरी - 110

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श्रेष्ठ ने मुझसे मिलने का बहुत प्रयास किया लेकिन न जाने क्यों मैं उससे मिलने के नाम से ही बिदकने लगी थी | एक जैसी ही बात दो लोग करें, उसमें से एक आपको नॉर्मल भी क्या प्यारा लगने लगता है तो दूसरे से वितृष्णा होती है | यह गलत ही है वैसे लेकिन होती है तो होती है | इसमें सोच सारी मन की है जो इंसान को चुप तो रहने ही नहीं देता, नचाता ही तो रहता है | शायद मैं इस गोल-गोल नाच से थक चुकी थी और किसी भी स्थिति में अब किसी और सोच से भिड़ने का मेरा न तो साहस था, न कोई तैयारी थी और न ही इच्छा !

हर रोज़ सुबह-शाम प्रमेश की दीदी के फ़ोन आते लेकिन जब तक मैं कुछ स्पष्ट न कहती अम्मा भला बेचारी क्या उत्तर देतीं? मेरे कारण कब से लटक रहे थे सभी अब बेचारी अम्मा बीच में अटककर रह गईं थीं | उनके मन में मैंने ज़रूर प्रमेश के प्रति कभी एक रुझान देखा था लेकिन अब इस घटना के बाद उन्हें भी शायद महसूस हो रहा था कि वे दोनों कैसे मुझसे बिना पूछे, बिना चर्चा करे इसमें उलझ गए थे? उन्हें भीतर ही भीतर ज़रूर ही यह बात कचोटती रही होगी। मैं जानती थी लेकिन वे दोनों ही मुझसे कुछ भी नहीं कह पा रहे थे | 

“मैडम का मन बहुत बेचैन हो रहा है----”शीला दीदी आजकल कुछ ज्यादा ही मेरे पास आकर बैठने लगीं थीं | मुझे लगता है शायद अम्मा-पापा को मुरझाया हुआ देखकर वे स्वयं भी असंतुलित सी हो गई थीं | यह भी संभव था कि अम्मा ने ही उनसे कहा हो कि वह मेरा ध्यान अधिक रखें | मालूम नहीं क्यों, मुझे ऐसा महसूस हो रहा था | 

“क्या करूँ शीला दीदी? आप ही बताइए---मुझे खुद पता नहीं यह सब कैसे----? ”मैंने शिथिल स्वर में कहा | 

“अम्मा को वो कड़े अपने सिर पर बोझ लग रहे हैं, ऐसे ही वापिस भी नहीं किया जा सकता----”अधिकतर वह अम्मा को मैडम ही कहती थीं लेकिन जब कभी बहुत अपनत्व, लाड़ में आ जातीं उनके मुँह से अम्मा ही निकलता | फिर कुछ रुककर बोलीं;

“प्रमेश जी हर दिन कक्षाएं ले रहे हैं, आपके पास मिलने या कोई फ़ोन वगैरा आया क्या? ”

“नहीं, कुछ नहीं---मैं खुद इस उलझन में हूँ शीला दीदी कि ऐसे तो कैसे हैं ये लोग? एक तरफ़ इनकी दीदी अम्मा की जान खा गईं थीं कि प्रमेश और अमी को मिलना चाहिए, डेट पर जाना चाहिए और दो दिन में ही मुझे उन कड़ों के बंधन में बाँधकर अब अम्मा को दिन-रात फ़ोन कर रही हैं कि जल्दी विवाह की तारीख के बारे में सोचो---और एक ये प्रमेश हैं कि इतनी बड़ी घटना हो जाने के बाद मुझसे मिलने क्या फ़ोन तक भी नहीं कर रहे हैं! आप ही बताइए, मेरा तो कुछ मतलब है नहीं कि मैं उन्हें फ़ोन करूँ? ”

शीला दीदी ने भी मेरी हाँ में हाँ मिलाई और रतनी ने भी जो कुछ देर पहले ही मेरे कमरे में आ गई थी | वह भी मेरी बात से इत्तिफ़ाक रखती थी | भला मुझे क्यों फ़ोन करना चाहिए था | मानसिक रूप से तैयारी न होने के बावज़ूद मैं इस रिश्ते में कैसे फँसी, मुझे तो अभी तक समझ में ही नहीं आ रहा था | 

“इतना बड़ा घराना, इतनी पढ़ी-लिखी सुंदर लड़की, इतना सब कुछ फिर भी इतनी तकलीफ़? चलो दीदी, हम तो समझें कि हम निम्न मध्यमवर्गीय क्लास के लोग!हमारे यहाँ तो जीवन जीने में ही जाने कितनी तकलीफ़ों का सामना करना पड़ता है जिसमें शिक्षा का न होना भी लचर बना देता है लेकिन यहाँ---? ”रतनी ने अपने मुँह से निकलते हुए शब्दों को मुँह के भीतर ढकेल दिया जिससे उसके मुँह से कुछ अनर्गल न निकल जाए और वह मुझे और परेशान न कर बैठे!

कुछ देर बैठकर वे दोनों चले गए थे, आखिर कब तक बैठते मेरे पास? कुछ ही देर में फिर मेरे दरवाज़े पर नॉक हुई | नॉक करने के तरीके से मैं समझ गई थी कि उत्पल होगा | मुझे आश्चर्य था कि वह अब तक कैसे खुद को कंट्रोल कर सका था? 

“आ जाओ उत्पल, दरवाज़े पर क्यों अटक गए? ”मैंने स्वयं को नॉर्मल दिखाने की कोशिश की मगर दिखाने और वास्तविकता में तो ज़मीन आसमान का अंतर होता है न? 

“अरे!आपको पता चल गया मैं हूँ---? ”उसने अपने आपको संयत दिखाते हुए कहा | 

मैंने उसकी तरफ़ घूरकर देखा, क्या वह नहीं जानता कि मैं उसकी पदचाप तक को पहचानती हूँ? लेकिन कुछ कहने–सुनने के लिए नहीं था शायद हम दोनों के ही पास | 

“कॉफ़ी पीयेंगी न? ला रहे हैँ महाराज---”

मैंने हाँ, न कुछ नहीं की | मेरे पास कुछ था ही नहीं बताने के लिए, कहने के लिए? मन यायावर बादल के टुकड़े सा भटक रहा था और बादल का सारा पानी जैसे आँसु बनकर आँखों में समोने लगा था | यह सब उसे देखते ही क्यों हुआ था? मन खुद से ही लड़ाई करने लगा और मैं “अभी आती हूँ---”कहकर लंबे-लंबे कदमों से बाथरूम में चली गई जहाँ मेरी हिचकियों ने रुला-रुलाकर मुझे अधमरा कर दिया | 

“अरे ! ठीक तो हैं? ”जब मुझे अंदर काफ़ी देर हो गई तो उत्पल ने नॉक किया | 

अपने मुँह पर छींटे मारकर मैं बाहर निकल आई | मैंने अपना पानी से भरा हुआ चेहरा ऐसे ही भीगा छोड़ दिया था शायद मेरे आँसु छिप सकें लेकिन ऐसा होता होगा कहीं? मेरे चेहरे पर दृष्टि फिसलाते हुए उसने कहा;

“कॉफ़ी ठंडी हो रही है | ” और कॉफ़ी मग उठाकर मुझे देने के लिए आगे बढ़ा लेकिन मुझे न जाने क्या हुआ, मैं उससे जाकर चिपट गई और एक बार फिर फूट-फूटकर रो पड़ी | वह बीच में ही रुक गया और मुझे बाहों में थामे हुए ही मेरे पलंग की ओर मुझे लेजाकर वहाँ बैठा दिया | मुझे नहीं मालूम, कैसे मेरा सिर उसके कंधे पर रखा गया और मैंने उसे अपनी बाहों में लपेट लिया | उसके रुके हुए हाथों से मैंने महसूस किया वह मेरी ऐसी स्थिति देखकर कुछ झिझका लेकिन पल भर में ही उसने मुझे अपनी बाहों में कस लिया | जिस स्थिति से मैं बचने के लिए जाने कितने बहाने ढूंढती रहती थी, उसमें खुद ही जाकर समा गई थी | मेरे पास शब्द नहीं थे, केवल आँसु थे और था उसका कंधा, उसका स्पर्श, उसकी छुअन मुझे असहज कर रही थी | मैं महसूस कर रही थी कि उसके कंधे पर से कभी सिर न उठाऊँ, बस ऐसे ही वह मुझे अपने बंधन में जकड़े रहे | 

“ऐसे रोने से क्या होगा? ” उसने मुझे थपथपाते हुए पूछा | कितना सहज था उत्पल! यह वही उत्पल था जो सपने में भी मेरे दुपट्टे को छिपाकर रखता था और सच में ही मेरा स्कार्फ़ ले जाकर अपनी ड्राअर में छिपाकर रखे हुए था? जो शरारत करने से बाज़ ही नहीं आता था? जो हर बार कार में बैठते हुए मेरे ऊपर फूलों की शाख हिलाकर मुझे फूलों से नहला देता था? जिसने मुझसे कहा था कि ज़िंदगी में पहली बार प्यार हुआ है जबकि बड़ी ईमानदारी से अपने पहले रिश्तों को भी स्वीकार लिया था | 

“हम बहुत आराम से साथ रह सकते हैं---”उसने मेरी आँखों में आँखें डालकर कहा | 

“पागल हो क्या? कैसे---? तुम सच में पागल हो !”मैंने उसे उत्तर दिया | 

“कोई बात नहीं, पागल के साथ तुम बहुत खुश रहोगी, यह मेरा वायदा है | ”उसने बड़े प्यार से मुझे देखते हुए कहा था | 

“तुम जानते हो, कितनी बड़ी हूँ मैं तुमसे? ”मैंने न जाने किन भावावेश के क्षणों में कहा था | 

“तो क्या हुआ? प्यार में कहाँ बड़ा-छोटा होता है | प्यार बस प्यार होता है---”उत्पल इतना डूबा हुआ था मेरे प्यार में कि उसे हर समय मैं ही मैं दिखाई देती और जब कोई भी मौका देखता, मुझसे अपने प्यार का इज़हार करना न भूलता और मेरे दिल की धड़कनें सप्तम पर पहुँच जातीं, शर्म से मेरा चेहरा लाल और कान गर्म होने लगते | 

“देखो, कितना छिपा लो, प्यार तो तुम मुझसे करती हो---”अपने साथ वह मुझे भी बेशर्म बनाने पर तुला रहता | 

“तुम पागल हो---मैंने कब कहा कि मैं तुम्हें प्यार करती हूँ? ” एक बार न जाने किन क्षणों में मैंने उससे कहा था | 

“कुछ कहने की ज़रूरत होती है क्या प्यार में? ”

“जब मैं पूरी तरह बुढ़ा जाऊँगी न तब अपना सिर पकड़कर बैठ जाना कि क्या मुसीबत मोल ले ली है? ”मैं उस नाज़ुक क्षण से निकलना भी चाहती थी और उसी में बँधी भी रहना चाहती थी | 

“जब प्यार होता है तब कितनी भी मुश्किलें आएं पार हो ही जाती हैं | ”उसने कितने यकीन से कहा था | 

सँकरी गली से निकलने वाला प्यार, कहीं अटक ही रहा था। दिल में, दिमाग में, परिस्थिति में? क्या हो रहा था | अक्सर दादी कहा करती थीं कि हमें नहीं मालूम भगवान कहाँ है लेकिन यह जो हमारे रिश्ते बनते हैं, जो न जाने कैसे हमारे साथ आकर जुड़ जाते हैं | उनका कोई सुराग हमें मिलता तक नहीं है और वे रिश्ते हमसे ऐसे आ जुड़ते हैं जो न जाने कहाँ से किसी डोर में बंधकर एक पंक्ति में खड़े हो जाते हैं और हमारे जीवन का भाग बन जाते हैं | 

वे अक्सर अम्मा का उदाहरण हमारे सामने ज़रूर रखा करतीं और कहतीं कि देख लो जो भगवान करता है, वह अच्छा ही करता है | मेरे लिए कितनी सुगढ़ बहू, तुम्हारे पापा के लिए कितनी अच्छी साथी और तुम्हें कैसी प्यारी माँ भगवान ने दी है | इन रिश्तों को भगवान कैसे जोड़ते हैं, यह तो वे ही जानें पर एक बात तो है न कि वे हम सबको वही देते हैं जिसकी ज़रूरत हमें होती है | 

क्या मेरे लिए प्रमेश को भगवान ने ही सोचकर रखा था? क्या इसको स्वीकार कर लेने में ही मेरी बेहतरी है? मैंने मन में सोचा और मेरा सिर उत्पल के कंधे से अपने आप ही हट गया |