‘उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे’ अर्थात् प्रजापति ब्रह्माजी की गोद से श्रीनारदजी उत्पन्न हुए। जब ब्रह्माजी ने इन्हें भी सृष्टि-विस्तार की आज्ञा दी तो श्रीनारदजी ने यह कहकर कि 'अमृत से भी अधिक प्रिय श्रीकृष्ण-सेवा छोड़कर कौन मूर्ख विषय नामक विष का भक्षण (आस्वादन) करेगा? ब्रह्माजी की आज्ञा का अनौचित्य दिखाया। श्रीनारदजी की यह बात सुनकर ब्रह्माजी रोष से आग-बबूला हो गये और नारदजी को शाप देते हुए बोले— नारद! मेरे शाप से तुम्हारे ज्ञान का लोप हो जायगा, तुम पचास कामिनियों के पति बनोगे। उस समय तुम्हारी उपबर्हण नाम से प्रसिद्धि होगी, फिर मेरे ही शाप से दासीपुत्र बनोगे, पश्चात् सन्त-भगवन्त-कृपा से मेरे पुत्ररूप में प्रतिष्ठित हो जाओगे।
ब्रह्माजी के दिये हुए उस शाप के ही कारण नारद जी आगे चलकर उपबर्हण नाम के गन्धर्व हुए और चित्ररथ गन्धर्व की पचास कन्याओं ने उन्हें पतिरूप में वरण किया। एक बार वे पुष्करक्षेत्र में श्रीब्रह्माजी के स्थान पर गये और वहाँ श्रीहरि का यशोगान करने लगे। वहीं रम्भा अप्सरा को नृत्य करते देखकर काममोहित होने से वीर्य स्खलित हो गया, जिससे कुपित होकर ब्रह्माजी ने उन्हें शाप देते हुए कहा—तुम गन्धर्व-शरीरको त्यागकर शूद्रयोनि को प्राप्त हो जाओ। शाप सुनकर उपबर्हणने तत्काल उस शरीर को योग-क्रिया के द्वारा छोड़ दिया और कालान्तरमें द्रुमिल गोप की पत्नी कलावती के गर्भ से उत्पन्न होकर दासीपुत्र कहलाये।
द्रुमिल गोप के स्वर्ग सिधार जाने पर कलावती एक सदाचारी ब्राह्मण के घर सेवा-कार्य करती हुई जीवनयापन करने लगी। उस समय का अपना चरित्र बताते हुए नारदजी ने व्यासजी से कहा कि मैंने ब्राह्मण के घर चातुर्मास्य बिताने के लिये सन्तों में निवास किया। ब्राह्मण की आज्ञा से मैं मातासमेत सन्तों की सेवा में लगा रहता था और पात्रों में लगी हुई उनकी जूठन दिन में एक बार खा लिया करता था, जिससे मेरे सब पाप दूर हो गये, हृदय शुद्ध हो गया, जैसा भजन-पूजन वे लोग करते थे, उसमें मेरी भी रुचि हो गयी।
चातुर्मास्य करके जाते हुए साधुओं ने मुझ शान्त, विनम्र बालक को भगवान् के रूप-ध्यान और नामजप का उपदेश दिया। कुछ ही दिन बाद सायंकाल में गाय दुहाकर लौटते समय साँपके काटनेसे माता की मृत्यु हो गयी। तब मैं भगवान् की कृपा का सहारा लेकर उत्तर दिशा की ओर वनमें चला गया। थककर पीपल के नीचे बैठकर ध्यान करते हुए मेरे हृदय में प्रभु प्रकट हो गये, मैं आनन्दमग्न हो गया। परंतु वह झाँकी तो विद्युत्की भाँति आयी और चली गयी। मैं पुनः दर्शन पाने के लिये व्याकुल हो गया। उस समय आकाशवाणी ने आश्वासन देते हुए बतलाया—‘अब इस जन्म में तुम मुझे नहीं देख सकते। यह एक झाँकी तो मैंने तुम्हें कृपा करके इसलिये दिखलायी कि इसके दर्शन में तुम्हारा चित्त मुझमें लग जाय।’ तब मैं दयामय भगवान् को प्रणामकर उनका गुण गाते हुए पृथ्वी पर घूमने लगा। समय आनेपर मेरा वह शरीर छूट गया, तब दूसरे कल्पमें मैं ब्रह्माजी का पुत्र हुआ। व्यासजी! अब तो जब मैं वीणा बजाकर प्रभु गुण-गान करता हूँ तो बुलाये हुए की तरह भगवान् मेरे चित्त में तुरंत प्रकट हो जाते हैं।
नारदजी देवर्षि हैं तथा वेदान्त, योग, ज्योतिष, वैद्यक, संगीत तथा भक्ति के मुख्य आचार्य हैं। पृथ्वी पर भक्ति-प्रचारका श्रेय आपको ही है। भक्तिदेवी तथा ज्ञान-वैराग्यका कष्ट दूर करते हुए वृन्दावन में आपने प्रतिज्ञा की है कि—‘हे भक्तिदेवी ! कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है, अतः कलियुग में दूसरे धर्मोका तिरस्कार करके और भक्ति-विषयक महोत्सव को आगे करके जन-जन और घर-घर में तुम्हारी स्थापना न करूं तो मैं हरिदास ने कहाऊँ।।
स्वयं भक्ति ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि हे ब्रह्मपुत्र! तुम्हें नमस्कार है। तुम्हारे एक बार के उपदेश से प्रह्लाद ने माया पर विजय तथा ध्रुव ने ध्रुवपद प्राप्त कर लिया। यथा—
जयति जगति मायां यस्य कायाधवस्ते वचनरचनमेकं केवलं चाकलय्य।
ध्रुवपदमपि यातो यत्कृपातो ध्रुवोऽयं सकलकुशलपात्रं ब्रह्मपुत्रं नतास्मि॥