मोहन को इस तरह शराब के नशे में धुत पड़ा देखकर पुलिस ने उसकी पीठ पर डंडा लगाते हुए कहा, “मोहन उठ।”
लेकिन मोहन हिला तक नहीं। बिस्तर नीचे से भी गीला था, शायद उसने ही गीला कर दिया था। उसके आसपास बिस्तर पर शराब गिरी हुई अभी सूखी नहीं थी। हालात गंभीर थे, मोहन की हालत देखकर पुलिस को यह समझने में देर नहीं लगी कि यह तो मर चुका है। उसे इस तरह मृत देखकर जयंती, बसंती और गोविंद के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।
गोविंद के मुँह से निकल गया, “अरे यह कैसे हो गया?”
पुलिस को देखकर मोहन और बसंती के माता-पिता के अलावा अड़ोसी पड़ोसी भी घर से निकलकर वहाँ आ गए। सब कहने लगे इस पियक्कड़ का तो यही होना था। चौबीस घंटे धुत रहता था। किसी ने कहा पी-पी कर मर गया। किसी ने कहा अच्छा ही हुआ धरती पर बोझ ही था। ऊपर से बेचारी फूल जैसी बिटिया पर कोड़े बरसाता रहता था।
लोगों के बीच इस तरह की बातें सुनकर पुलिस भी चली गई।
दोनों पुलिस वाले आपस में बात कर रहे थे, “यह तो शराब पीकर मरने का मामला है। इसमें ज़्यादा अंदर घुसने से कोई फायदा नहीं होगा।”
दूसरे ने कहा, “हाँ चलो यहाँ से। हमें दूसरे बहुत ज़्यादा ज़रूरी केस निपटाने हैं,” कहते हुए वह दोनों चले गए।
अंदर घर में गोविंद, बसंती और जयंती एक दूसरे की तरफ़ प्रश्न वाचक नजरों से देख रहे थे।
गोविंद ने बसंती से पूछा, “बसंती क्या तुमने?”
“नहीं भैया”
तब उसने जयंती की तरफ़ इशारा करते हुए पूछा, “क्या तुमने?”
“नहीं गोविंद हम दोनों तो रात में साथ-साथ ही सो रहे थे। मेरा तो मन था कि उसे मार डालूं पर मैं ऐसा कुछ भी ना कर पाई।”
गोविंद ने कहा, “हो सकता है वह पीकर ख़ुद ही मर …”
उनकी बातों से ऐसा लग रहा था, मानो मोहन के मरने का किसी को भी कोई ख़ास दुःख नहीं है। लेकिन उसकी माँ? माँ तो माँ होती है, नौ माह अपने तन के अंदर बड़ा करके पाला पोसा था। उनकी आँखों से आँसू अवश्य ही झर रहे थे। सबके मन में यही प्रश्न था कि आख़िर अचानक मोहन मर कैसे गया?
रोती हुई मोहन की माँ को समझाते हुए सखाराम ने कहा, “अरे मोहन की अम्मा शांत हो जाओ। दारु लील गई उसे। हद होती है ना किसी भी चीज की। उसने तो चौबीस घंटे के लिए दारू से ही अपना रिश्ता जोड़ दिया था। शरीर तो पहले से ही कमजोर था उसका। अब तुम हिम्मत रखो वरना तुम्हारी तबीयत बिगड़ जाएगी।”
बसंती अपने माता पिता की तरफ़ शंका भरी नजरों से देख रही थी। वह सोच रही थी कि हो सकता है अम्मा बाबूजी से उसकी तकलीफ देखी ना गई हो और उन्होंने मिलकर …!
अपनी साड़ी का पल्लू संभालती हुई वह अपने पिता के पास पहुँच गई और धीरे से उनसे पूछा, “बाबू जी क्या आपने?”
“यह क्या कह रही है बसंती बेटा? हम तो ऐसा सोच भी नहीं सकते। हम तो तलाक के विषय में सोच रहे थे। छुटकारा तो तुझे हम तलाक लेकर भी दिलवा ही सकते थे, फिर हम ऐसा क्यों करते? हम तो तभी अपने कमरे में चले गए थे। रात में रोते-रोते कब सो गए, हमें मालूम ही नहीं पड़ा। नींद में भी जो दृश्य देखा था, उसे भूल नहीं पा रहे थे। आँखों में केवल तुम ही तुम दिखाई दे रही थीं। हमने तो आज सुबह वकील के पास जाना था किंतु भगवान ने ही तुम्हें छुटकारा दिला दिया।”
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः