दस नामापराध
हरि नाम की बहुत विलक्षण एवं अलौकिक महिमा है। स्वयं भगवान् भी अपने नाम की पूरी महिमा नहीं कह सकते, फिर ओर तो कोई कह ही कैसे सकता है। देखने में आया है कि भजन करने वाले भजन का पूरा लाभ नहीं ले पाते। कारण है नामापराध। भजन का पूरा लाभ लेने के लिए नामापराधों से बचना आवश्यक है।
1. संत निन्दा – संतों व नाम निष्ठ भक्तों की निन्दा करने व सुनने से नाम महाराज रुष्ठ हो जाते हैं। वैसे तो निन्दा किसी की भी नहीं करनी चाहिए। उनमें भी संतों की तो भूल कर भी न करें। कई बार देखने में तो संत साधारण से लगते हैं लेकिन भीतर से इतने महान भजनान्दी होते हैं कि कोई सोच भी नहीं सकता। संत अधिकतर गुदड़ी के लाल ही हुआ करते हैं।
2. भगवान् शिव और विष्णु में व इनके नामों में ऊँच नीच की कल्पना करना – भगवान् के अनन्त रूप, नाम हैं। किसी भी रूप व नाम को छोटा कहना, ये बहुत बड़ा पाप है।
3. गुरु का अपमान करना – जब हम नाम जप करते हैं तो गुरु सेवा करने की क्या आवश्यकता है? गुरु की आज्ञा पालन करने की क्या जरूरत है ? कल्याण तो नाम जप से होगा, गुरू इसमें क्या करेंगे? गुरु सेवा क्यों ? इस प्रकार सोचना भी नाम अपराध है। जिस गुरु महाराज से हमको नाम मिला है, यदि हम उनका तिरस्कार करेंगे तो नाम महाराज रूठ जाऐंगे। अगर गुरू में कोई दोष भी दिखाई दे तो भी निन्दा न करें। सर्वगुण सम्पन्न तो केवल भगवान् ही हो सकते हैं। जिससे कुछ भी पाया है, पारमार्थिक बातें सीखी हैं, भगवान् की तरफ रूचि हुई, चेत हुआ, होश हुआ है, नाम जप में लगे हैं, अगर उनकी निन्दा करेंगे तो नाम की कृपा से वञ्चित रहना पड़ेगा। जिस माता ने नौ मास गर्भ में धारण किया, जन्म दिया, पालन-पोषण किया और आज इस लायक बना दिया कि स्वयं कमा कर खा सकते हैं। अगर उस माँ में कोई दोष दिखाई दे तो क्या माँ की निन्दा करोगे या माँ को छोड़कर दूसरी माँ बनाओगे? चित्त की स्थिति जैसी इस जीव की है, अगर इसको भगवान् के साथ रहना मिल जाए तो वहाँ भी दोष दिखाई देगा। गुरू का अपमान होने से गुरु प्रदत्त नाम नाराज हो जाऐंगे।
4. वेद शास्त्रों को न मानना – जब हम नाम जप कर रहे हैं तो शास्त्रों के पठन-पाठन की क्या आवश्यकता है। वैदिक कर्मों की क्या आवश्यकता है? ऐसा मानना नामापराध है।
5. नाम महिमा को अर्थवाद मानना – भगवान् के नाम की जो इतनी महिमा कही गई है, यह केवल स्तुति मात्र है। असल में इतनी महिमा नहीं है। इस प्रकार मानना नामापराध है।
6. नाम का आश्रय लेकर पाप करना – भगवान् का नाम जप करने से पापों का नाश तो हो ही जाता है। चलो थोड़ा पाप कर लें, बाद में नाम जप कर लेंगे। ऐसा करना नामापराध है क्योंकि उसने हरि नाम को पापों की वृद्धि में हेतु बनाया है।
एक सज्जन को राजा से यह अधिकार मिल गया था कि अगर किसी को फाँसी होने वाली हो और वह वहाँ जाकर खड़ा हो जाए तो उसके सामने फाँसी नहीं दी जाएगी, अपराधी को छोड़ दिया जाएगा उस सज्जन का दामाद चोरी करता, डाका डालता और भी बहुत से अपराध करता। उसकी पत्नी ने राजदंड का भय दिखाकर मना किया तो कहता कि तेरा बाप अपनी बेटी को विधवा होने देगा क्या? मैं उसका दामाद हूँ। लड़की ने अपने पिता जी से कह दिया। ससुर ने दामाद को बुलाकर समझाया कि ऐसा मत करो तो कहने लगा कि आप के होते मुझे क्या डर। एक दिन दामाद किसी अपराध में पकड़ा गया और फाँसी की सजा हो गई। लड़की ने अपने पिता जी से कहा कि पिताजी में विधवा हो जाऊँगी, इनको फाँसी से बचा लो। पिताजी ने कहा– बेटी! आज नहीं तो कल एक दिन तो तू विधवा हो ही जाएगी। उसकी रक्षा मैं कहाँ तक करूँ। मुझे जो अधिकार मिला है वह उसका दुरूपयोग कर रहा है। अगर उसे बचाऊँ तो उसके पाप में वृद्धि होगी और वह नहीं गया। उसके दामाद को फाँसी हो गई।
इसी प्रकार नाम के भरोसे कोई पाप करेगा तो नाम महाराज वहाँ नहीं जाएँगे। उसका पाप वज्रलेप (न छूटने वाला) हो जाएगा।
7. यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्म को नाम के समान मानना भी नामापराध है क्योंकि कोई भी शुभ कर्म नाम के बराबर नहीं हो सकता।
8. बार-बार नाम की अवहेलना करने वालों को उनके न चाहने व सुनने पर भी बार बार नाम का उपदेश करना भी नामापराध है। जो सुनना नहीं चाहता, जो भगवान् व भगवन्नाम की निंदा करता है उसको भगवान् के नाम की महिमा मत सुनाओ क्योंकि वह सुनने पर बार बार नाम की निंदा करेगा। इससे अपराध हो जाएगा और नाम का अपमान हो जाएगा।
9. नाम की महिमा बार बार सुनकर भी नाम न जपना नामापराध है।
10. विहित कर्मों का त्याग – जब सबसे ऊँचा नाम है, नाम जप सब कुछ हो जाता है तो फिर अन्य शुभ कर्म जैसे पूजन, हवन, तर्पण, श्राद्ध आदि क्यों करें? ऐसे मानकर शुभ कर्मों का त्याग करने से नामापराध बनता है। कहीं-कहीं विहित कर्मों के त्याग के स्थान पर मैं, मेरे तथा भोगादि विषयों में लगे रहना भी नामापराध माना गया है।
यदि स्वभाववश इनमें से किसी प्रकार का नामापराध हो जाए तो उससे छूटने का उपाय भी नाम जप व कीर्तन ही है। भूल के लिए पश्चाताप करते हुए उच्च स्वर से नाम संकीर्तन व अतिश्य नाम जप करना चाहिए और अपराध के लिए क्षमा मांगनी चाहिए।
नामापराध युक्तानां नामान्ये व हरन्त्यधम् ।
अविश्रान्त प्रयुक्ता नि तान्येवार्थकराणि च ।।
इस प्रकार इन दस अपराधों से रहित होकर नाम लिया जाए तो वह बहुत जल्दी उन्नति कराने वाला होता है। नाम महिमा तो अनन्त है, अपार है। जो केवल नाम निष्ठ हैं, जो दिन-रात नाम जप के ही परायण हैं। जिनका सम्पूर्ण जीवन भजन में ही लगा है, नाम की कृपा से उनके लिए इन अपराधों कोई भी अपराध लागू होता। ऐसे कितनेसंत महापुरूष हो चुके हैं जो बिल्कुल अनपढ़ थे। कभी शास्त्र नहीं पड़ा पर नाम जप के प्रभाव से उन्होंने वेदों पुराणों आदि के सिद्धांत अपनी साधारण भाषा में कहे। इसलिए नाम जप में लग जाओ क्योंकि यह कलियुग का समय है। मानव जन्म मिला है। अपने उद्धार का ऐसा सुन्दर अवसर मिला है। कहीं अब की बार चूक गए तो मौत के समय सब कुछ छूट जाएगा, रह जाएगा केवल पश्चाताप । नाम के बिना अनाथ की तरह बेमौत मारे जाएँगें और हवा खानी पड़ेगी यमलोक की।
हरि भजन कर बावरे, मन माया सो रोक।
'करुणदास' हरि नाम बिन जाएगा यमलोक।।
समय बहुत कम है, जाना बहुत दूर है। सूर्य अस्त होने से पहले मंजिल पर पहुँचना है, सूर्यास्त होने के बाद चल नहीं पाओगे, अन्धेरे में भटक जाओगे। जंगली हिंसक जानवर, कंकड़, कांटे आदि आगे चलने नहीं देंगे और न ही विश्राम करने देंगे। फिर पछताओगे, दुःख भोगोगे। अभी समय है, तेज चलो। इतना विश्राम भी मत करो कि नींद ही हराम हो जाए। बात करो लेकिन तेजी से चलते हुए। मार्ग में कितना ही विश्राम करो अधूरा ही होगा, पूरा तो मंजिल के पहुँचने पर मिलेगा। अधूरे विश्राम के फेर में पड़कर कहीं पूर्ण विश्राम से वंचित ना होने पड़े। समझदारी तो इसी में है कि पूर्ण को प्राप्त करने के लिए अपूर्ण का बलिदान कर दो। विश्राम करो, लेकिन विश्राम के लिए नहीं बल्कि आगे बढ़ने के लिए। खाओ, लेकिन खाने के लिए नहीं आगे बढ़ने के लिए। छूटने वाली दुनिया को पकड़कर खड़े न रहो।
सावधान ! उठो और बढ़ चलो अपने घर की ओर। देखो! तुम्हारा अपने से भी अपना बाँहे फैलाये तुमको गले से लगाने के लिए कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा है। अपना नहीं तो कम से कम अपने प्रियतम का तो ख्याल करो। वे बड़े कोमल हैं। खड़े-खड़े थक जाएँगे। अब उनसे ओर इंतजार मत करवाओ।
[ हरे कृष्ण ] 🙏