जब रामसिंह का लिखा पत्र पेलान फूकन को मिला तो उसी समय उसने वह पत्र लाकर राजा को दिया । पत्र पढ़कर राजा आगबबूला हो गया। उसने तुरंत लचित को वापस बुलाकर इस बात की पूरी जाँच करनी चाही। राजा को कुछ समय से लचित की विश्वसनीयता पर संदेह तो था ही, परन्तु प्रधानमंत्री अतन बड़गोहाँई ने इस बात का खंडन करते हुए कहा कि - “यह बिल्कुल गलत है। लचित की ईमानदारी व देशभक्ति पर संदेह करना सरासर गलत है। यह अवश्य कोई षड्यंत्र है।”
तब राजा ने लचित को एक चेतावनीभरा पत्र भेजा जिसमें लिखा था, “बड़फुकन! मैंने तुम्हें गुवाहाटी से शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए भेजा था। यह काम अभी तक पूरा क्यों नहीं हुआ ? मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि तुम मुगलों का अतिशीघ्र विनाश करो, अन्यथा महिलाओं की मेखला पहनकर आत्महत्या कर लो।”
लचित को यह पत्र पढ़कर बहुत दुःख हुआ । परन्तु वह जानता था कि यह राजा का विशेष आदेश है जिसका कोई कारण जानने की आवश्यकता नहीं और उसे केवल तुरंत क्रियान्वित करना है। उसने बीस हजार श्रेष्ठ वीर योद्धाओं का चुनाव किया और उन्हें दो भागों में बाँट दिया। पाँच हजार सैनिकों की एक टुकड़ी उसने सामने से लड़ने के लिए रखी। मुगलों ने जब इतनी कम सेना देखी तो उन्होंने सोचा कि वे कुछ ही समय में इनका सफाया कर देंगे। परंतु युद्ध के मध्य जब उन्होंने अपने चारों ओर बड़ी संख्या में सैन्य दल देखे तो उनके होश उड़ गये। लचित ने बड़ी कुशलता से चारों ओर से शत्रु पर धावा बोल दिया।
राजपूत घुड़सवार और पैदल असमी सेना शत्रु पर भूखे बाज़ की तरह टूट पड़ी। परन्तु रामसिंह भी अपनी विशाल सेना के साथ तैयार था। गुवाहाटी के पास अलाबोई में यह लड़ाई लड़ी गई। लचित की सेना को भारी चुनौती का सामना करना पड़ा। उसकी सेना के दस हजार योद्धा युद्ध में मारे गये और हजारों घायल हो गये ।
भारी संख्या में वीर सैनिकों के हताहत होने से लचित के सैन्य दल में शोक का वातावरण छाया हुआ था । वह अपने बहादुर सैनिकों के खोने पर बहुत दुःखी था। उसने चीख कर कहा - “यह क्या हो रहा है। राजा की आज्ञा का पालन करते हुये मैंने दस हजार ऐसे वीरों को मौत के मुँह में पहुँचा दिया जो मेरे देश के आधारस्तंभ थे।” घायल सिंह की तरह बह उठा और अपने सेनापतियों को बुलाकर कहा - 'आओ हम सब मिलकर प्रतिज्ञा करें कि गुवाहाटी की सुरक्षा के लिए अपने रक्त की अन्तिम बूंद तक लड़ेंगे।'
दोनों सेनाओं के मध्य भीषण संघर्ष हुआ। रामसिंह के लिये गुवाहाटी अभी भी दिल्ली के समान दूर थी। असंख्य सैनिकों व अपार शस्त्र भण्डार के बावजूद वह लचित की रक्षा पंक्ति को भेद नहीं सका। गुवाहाटी हमेशा की तरह अजेय बना रहा।
युद्ध को चार वर्ष बीत चुके थे। इस बीच राजा चक्रध्वज सिंह बीमार पड़ गये और उनकी मृत्यु हो गई । उदयादित्य गद्दी पर आसीन हुए। जब लचित को यह खबर मिली तब उसे बहुत निराशा हुई कि वह अपना वचन राजा के जीते जी पूरा नहीं कर सका ।
नये राजा पर डेबरा बरबोरा नाम के व्यक्ति का बहुत प्रभाव था । उसने साधारण जनता व कुलीन घरों के सदस्यों एवं उनके परिवारों को कष्ट पहुँचाना शुरू कर दिया। लोगों ने गुवाहाटी में लचित को बहुत संदेश भेजे जिसमें प्रार्थना की गई कि वह स्वयं वहाँ आकर उन्हें इस कष्ट से मुक्ति दिलाये । परन्तु लचित ने विवशतापूर्वक जवाब दिया- “मैं गुवाहाटी किसी भी स्थिति में नहीं छोड़ सकता।” हालाँकि उसके अपने परिवार के लोगों को भी डेबरा के हाथों अपमानित होना पड़ रहा था। परन्तु लचित के लिए राज्य के प्रति उसका कर्तव्य सर्वोच्च था ।
बहुत अधिक शारीरिक परिश्रम और मानसिक तनाव के कारण लचित बीमार पड़ गया। जब यह खबर राम सिंह को मिली तो उसने सोचा कि यह बहुत ही सुनहरा मौका है। उसने अन्तिम प्रयास करके गुवाहाटी को जीतने का निश्चय किया। उसने अपनी विशाल सेना को युद्धनौकाओं में नदी के रास्ते गुवाहाटी रवाना कर दिया।