उधर दिन- सप्ताह-महीने बीत गये परन्तु रामसिंह भरसक कोशिश के बाद भी गुवाहाटी में प्रविष्ट नहीं हो सका। उसने कूटनीति से काम लिया। उसने अपने राजदूत के द्वारा लचित को एक पत्र भिजवाया, साथ ही एक थैले में खसखस के दाने भी दिये । पत्र का सारांश था, “अरे बड़फकन, तुम अपने को वीर योद्धा समझते हो तो बाहर मैदान में आकर वीर पुरुष की तरह क्यों नहीं लड़ते ? किले में छिपकर क्यों बैठे हो ? ध्यान रहे, मेरी सेना इतनी विशाल है जितने ये खसखस के दाने । हम तुम्हें कुछ देर में ही समाप्त कर सकते हैं, इसलिए गुवाहाटी को हमारे नियंत्रण में देकर अपना एवं सैनिकों का जीवन बचाने के लिए हमारी शरण में आ जाओ ।”
लचित ने जब यह पत्र पढ़ा तब उसने खसखस के दानों को पीसकर उसकी लेई बनाकर एक बर्तन में रख दी। उसने नदी के किनारे की रेत ली। एक खोखला बाँस लिया । उसमें रेत भर दी और ऊपर से उसे बंद कर दिया। इन चीजों के साथ उसने राजदूत को पत्र देकर भेज दिया। राम सिंह ने जब पत्र खोलकर पढ़ा तो उसमें लिखा था, “ओ राजपूत सेनापति, मैं तुमसे नहीं डरता। तुमने मुझे मैदान में आकर लड़ने के लिए कहा है, क्या तुम इतनी दूर से इसलिए आये हो ? क्या यह सही नहीं है कि तुम्हें लड़ना होता तो दक्षिण में शिवाजी की सेना ही तुमसे निपट लेती। रही बात तुम्हारी सेना की, भले ही वह खसखस के दानों के समान अनगिनत हैं, परन्तु हमारी सेना उन्हें इसी तरह पीसकर रख देगी जिस तरह इस बन्द पात्र में खसखस की लेई है। मेरी सेना भी बहुत विशाल है और उन्हें आसानी से पीसा भी नहीं जा सकता।”
राम सिंह ने फिर एक चाल चली। उसने लचित को चार लाख रुपये की रिश्वत देनी चाही ताकि वह दिखावटी युद्ध कर गुवाहाटी को उसके अधीन कर दे। लचित ने उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया। तब राम सिंह ने एक बेहद कुटिल चाल चली। उसने एक व्यक्ति पेलान फूकन को खरीद लिया जो अहोम राजदरबार का सदस्य था और लचित से ईर्ष्या करता था । राम सिंह ने एक पत्र लचित के नाम लिखा और ऐसी व्यवस्था की कि वह पत्र पेलान फूकन के हाथों में पड़ जाये। पत्र में लिखा था, 'बड़फूकन, तुमने अभी तक युद्ध जारी रखा हुआ है, जबकि मैं, अपने वचन के अनुसार, तुम्हें एक लाख रुपये युद्ध बन्द करने के लिए दे चुका हूँ।”
उधर राजा भी आशंकित था कि लचित पूरी शक्ति लगा कर शत्रु को परास्त क्यों नहीं कर पा रहा है। परंतु लचित एक कुशल सेनापति था, वह अपनी सेना की क्षमता जानता था। वह यह भी जानता था कि वे गुरिल्ला युद्ध तो कर सकते हैं परन्तु खुले मैदान में आमने-सामने की झड़प में दुश्मन की सेना का सामना कठिन होगा। राज्य के प्रधानमंत्री अतन बड़गोहाँई का भी यही विचार था । इसलिए उसने राजा को इस बात के लिए समझाया कि उन्हें युद्ध में बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता है।
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