अहसान
कस के बांधे गये बालों का जूड़ा, क्या मजाल एक बाल भी दिन भर में इधर से उधर हो जाये। ललिता साड़़ी का पल्ला इतने सलीके से कमर पर खोसती कि कमर की लहराती रेखा और स्पष्ट उभर आती। चाल की फुर्ती और मर्दाने से बडे़-बडे़ हाथ गोदने से भरे। क्या मजाल की हाथ की एक चूड़ी भी खिसक कर खनकने की गुस्ताखी कर बैठे। गले पर कसा काले मोतियों का मंगल-सूत्र जिसके सिरे पर कौन सा ताबीज़ बंधा है यह आज तक किसी ने नहीं देखा। आज मेरा गुस्सा चरम पर था कहाँ से पकड़ लाई मैं इसे। इसके नित नये बहाने मोहल्ले में किसी की मृत्यु हो, विवाह हो, बीमार हो उसे जाने की जल्दी रहती। महीने में अनेकांे बार वह इस तरह का बहाना बनाकर चली जाती थी। ऐसा नहीं था कि वह कामचोर थी जिस दिन वह काम करने पर आती पिछली सारी शिकायतों को मिटा देती। उसको काम करते देख उसकी तन्मयता देख कर ही तो मैं उसे आज तक निकाल नहीं पाई थी। उसके बहाने सुनने और उसे छुट्टी देने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प था ही कहाँ.....। चुप रहती और उसे जाने देती। मैं उसे यह कैसे समझाती कि इस तरह का कोई भी बहाना तर्क हमारी नौकरियों में नहीं चलता।
अकसर वह खाली हाथ ही आती मेरे लाखों बार कहने के बाद भी वह अपने साथ खाने का डिब्बा लेकर नहीं आती। मुझे उसके लिये डिब्बा ढूंढने की ज़हमत उठानी पड़ती। मैं कहती ‘‘अपने साथ एक बड़ा टिफिन क्यों नहीं रखती’’ जिसे वह हँस कर टाल दिया करती.....कहती.....‘‘मैं कहाँ-कहाँ लिये फिरूँगी, उस टिफिन को सभी के पास तो होते हैं छोटे डब्बे.....’’ मैं देखती भी थी कि वह अनेकांे छोटे बड़े डिब्बे एक थैले में भर कर ले जाती। जो वह कभी भी समय पर नहीं लौटाती, बस उसके सदा के बहाने.....भूल गई बहन जी.....मैंने उसके नाम पर अनेको डिब्बे रख रखे थे। पर कभी तो अन्त आना ही था। उस दिन मैंने गुस्से में आकर निर्णय किया कि आज से उसे घर ले जाने के लिये कुछ दूंगी ही नहीं, चाहे वह फेंकना ही क्यों न पड़े? डरती भी थी उसे नये और डिब्बे देने से, राम जाने मेरे शुद्ध सात्विक डिब्बों में क्या-क्या डालकर रखती होगी। उस दिन जाने के समय मेरा कोई निर्देश न पाकर भी वह उदास नहीं थी.....। अगले दिन ललिता के हाथ में बड़ा सा थैला देखकर मुझे अचरज़ हुआ ललिता अपनी झेंप छुपाती बोली, बीबीजी सबके डब्बे इसी थैले में रखकर ले आई हूँ। मैंने भी जीत की सिर्फ हुंकार भरी। प्रश्नवाचक नज़रों से उसे देख ही रही थी कि उसने कहा आप अपने डिब्बे स्वयं ही पहचान ले। आज मुझे समझ आया कि डिब्बांे के मामले में उसका रवैया समान ही था। घिन हो आई मुझे उन धुले बे धुले डिब्बों को देख कर.....मैंने भी खींज कर कहा था, तुम्हीं देखकर रख दो। मैं नहीं पहचानती इतने डिब्बों में अपना डिब्बा। उसने आगे कुछ नहीं कहा, बस थैला खंगालती रही और जितने समझ आये उतने डिब्बों को मांजकर उसने अलमारी में लगा दिया। मैं भी मन ही मन सन्तुष्ट थी। मन ही मन बड़बड़ा रही थी। रोज ही तो डिब्बा ले जाती है फिर भी पहचानती नहीं यह बात मुझे स्वीकार नहीं हो पा रही थी।
इन सभी झंझटों से बचने के लिये मैं मन में निर्णय किये बैठी थी। जाते समय न उसने कुछ पूछा न मैंने ही कुछ कहा.....वह चली गई। इस तरह हफ्तों निकल गये, न जाने क्यों मेरे मन में अपराध भावना पनपने लगी थी। डिब्बों के मोह में किसी गरीब का परिवार भूखा रह जाये ऐसे संस्कार नहीं थे हमारे। एक दिन शाम को किसी काम के लिये उसे दुबारा बुलाया था। शाम के समय जब वह आई तो उसका मुँह उतरा हुआ था। कारण पूछा कोई जवाब नहीं दिया। काम खत्म होने पर फिर पूछा, मेरे उतकोच करने पर उसने मुझे जो बताया वह मेरी आँखें खोल देने वाला था। आज में कह सकती हूँ कि ‘‘हम बडे़ घरों में बैठ पेट भरकर भोजन करते लोग अपने अलावा किसी और के बारे में सोचते भी कहाँ हैं? हम तो आत्मकेन्द्रित से रहकर एक समय का बचा हुआ भोजन भी परिश्रम के बदले में देकर स्वयं को दानवीरों की श्रेणी में स्वयं को खड़ा देखने को आतुर रहते है। स्वयं को स्वर्ग का हकदार मानने लगते हैं।’’
उस दिन उसके उदास चेहरे ने मुझे जीवन का एक अनोखा पाठ पढ़ाया था। उस निरीह सी दिखने वाली महिला की उदासी का कारण था उसकी सहायता न कर पाने की असमर्थता। उसने दुःख व्यक्त करते हुये बताया कि दो दिनों से उसके पड़ोस का परिवार भूखा सो रहा है। आज भी उसे अपनी जेब से पैसे खर्च करके बच्चों का पेट भरना पड़ेगा। मैंने देखा कि उसकी आँखांे में आँसू थे। जिसे वह छुपाने का भरसक प्रयास कर रही थी। पर अपनी आस्था और विश्वास से सराबोर मन के आत्मविश्वास से उसने आँखें पोंछी और बताने लगी। मेरे पड़ोस के झोपड़े में रहने वाला परिवार, जिसमें एक बुजुर्ग महिला है। उसका लकवा ग्रस्त बेटा है, पत्नी गम्भीर बीमार है इसलिये काम पर नहीं जा सकती और छोटी-छोटी दो पुत्रियाँ हैं। उन पाँच जनों के परिवार को भूख से बचाने के लिये सभी घरों का भोजन एकत्रित करके उन्हें दे देती हूँ। दिन भर वह परिवार भोजन की आस में आँखें बिछाये मेरा इन्तजार करता रहता है और वह वृद्ध महिला कृतज्ञता भरे भाव ने मेरे हाथ से भोजन लेकर पहले अपने बेटे बहू की भूख शान्त करती है। फिर छोटी बच्चियों को कुछ खिलाने के बाद बचे भोजन को बांटकर, अपनी भूख सन्तुष्ट करती है। न जाने स्वयं कितना खा पाती है पर वह ही सबकी सेवा कर पा रही है। कभी-कभी पेट की भूख जोर मारती है तो पूरा परिवार एक-एक गिलास ठन्डा पानी पीकर सन्तुष्ट हो जाता है। मेरा इन्तजार करने के अलावा वह कुछ कर भी नहीं सकते। ऐसे में पिछले दो दिनों से मुझे भी कुछ नहीं मिला तो मंै बाजार से ही कुछ थोड़ा खरीद कर ले जाती हँू। कल भी में दे आई थी आज भी मुझे जेब से ही देना पड़ेगा।
मंै कुछ बोलने ही जा रही थी.....क्या तुमने ठेकेदारी ले रखी है उस परिवार की.....अपना घर सम्भालों.....मुझे बोलने से पहले विचार करना चाहिये था। उसने आगे बताया, वृद्धा का बेटा जिसे लकवा हुआ है उसके कारण ही तो मेरा यह जीवन बचा था। जब मुझे मेरा पति रोज यातना देता था। तब वही महिला मुझे इस मोहल्ले में ले आयी और एक झोपड़ा बनाने में मदद करने के बाद अनेकों काम दिलवाये। उस परिवार का अहसान मंै कैसे भूल सकती हूँ। एक दो दिन ही तो जेब से खर्चा करना है बाद में तो घरों से खाना मिलने ही लगेगा.....मैंने उसे जिस नज़रों से देखा तो उसने अपनी सफाई पेश कि ‘‘मैं कहाँ मांगती हूँ। सब ऊपरवाला स्वतः ही तो दिलवाता है उनके बच्चों के भाग्य का।’’ मैं पूछे बिना नहीं रह सकी ‘‘तुम्हारा परिवार और बच्चे.....’’उसने पूर्ण विश्वास से कहा ‘‘उनके लिये तो मैं हूँ ना’’ उसकी सब बातें सुनते हुये शर्म का अनुभव कर रही। संवेदनाओं के प्रवाह में ही समृद्ध लोग कहीं पीछे पिछड़ने लगे हैं। मैंने भी निर्णय किया कि किसी के अहसान को भूल जाने की भूल अब मैं कभी नहीं करूँगी।
जो धर्म मनुष्य को सरल बना देता है
वह सर्वोच्च धर्म है।
प्रभा पारीक