निर्मला एक छोटे से गाँव की सीधी सादी लड़की थी। वह पढ़ने में बहुत ही तेज थी और आगे पढ़कर जीवन में तरक्क़ी करना चाहती थी। लेकिन गाँव में आठवीं के आगे स्कूल न होने के कारण उसे पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी। इस बात का दुख निर्मला के मन में एक कसक बनकर हरदम चुभता ही रहता था।
उसने अपने बाबूजी धीरज से कहा, "बाबूजी मुझे शहर भेज दो ना, मैं आगे और पढ़ाई करना चाहती हूँ।"
उन्होंने इनकार करते हुए कहा, "नहीं बेटा, शहर की लड़कियों जैसा नहीं बनाना है तुझे। आठवीं तक पढ़ ली ना, अनपढ़ तो नहीं रखा तुझे। बस अब तेरा ब्याह हो जाए तो हमारी चिंता और जवाबदारी दोनों ख़त्म।"
उसके पिता का यह वाक्य निर्मला के मन में अग्नि की एक ऐसी ज्वाला भड़का गया जो बुझ ही नहीं पाई। इसी आग की ज्वाला में वह हमेशा जलती रही। उसने कई बार कोशिश करी लेकिन अपने बाबूजी को नहीं मना पाई।
वह जब भी शहर जाकर पढ़ाई करने की ज़िद करती उनका एक ही जवाब होता, "निर्मला तुझे कितनी बार समझाया है, माँ-बाप से दूर रहकर लड़कियाँ धीरे-धीरे मनमानी करने लगती हैं। हमने कितनी ही बार समाचार पत्रों में और टी वी पर उन लड़कियों के बारे में कैसी-कैसी ख़बरें सुन रखी हैं। अरे सिगरेट शराब तक पीने लगती हैं। मैं अपनी लड़की को ऐसे दलदल में फँसने नहीं भेज सकता।"
अपने पिता की इस तरह की दलीलों को सुनकर अब निर्मला समझ गई थी कि अब उसके बाबूजी को मनाना नामुमकिन है।
वह धीरे-धीरे बड़ी भी हो रही थी। गाँव खेड़ों में तो लड़की जैसे ही जवानी की दहलीज़ पर क़दम रखती है, माँ-बाप को उसके विवाह की फ़िक्र होने लगती है।
निर्मला की माँ आरती उसे हमेशा कहती, "अरी निर्मला काहे को दुखी रहती है। देख मैं भी ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हूँ, चौथी तक ही तो पढ़ी हूँ लेकिन ख़ुश हूँ। तेरे बाबूजी कितने अच्छे हैं, अच्छा कमाते हैं, हमें और क्या चाहिए?"
"नहीं माँ यह सोच तो एकदम ग़लत है। पढ़ाई लिखाई के बाद तो इंसान का व्यक्तित्व ही बदल जाता है। बहुत समझदारी आ जाती है। पढ़ाई तो बहुत ज़रूरी है।"
"अरी निर्मला अभी तेरा ब्याह हो जाएगा तब देखना तू यह सब भूल जाएगी।"
"नहीं माँ यह दुख तो मेरी अंतिम सांस तक मेरे साथ ही रहेगा कि मैं पढ़ना चाहती थी पर पढ़ ना पाई। खैर छोड़ो माँ इस बात पर बहस करने से क्या होगा।"
निर्मला ने मन ही मन यह निश्चय कर लिया कि विवाह तो वह किसी शहर के लड़के से ही करेगी ताकि उसके बच्चों को पढ़ाई के लिए उसकी तरह तरसना ना पड़े।
शहर में एक परिवार था गोपी और कमला का, वे लोग कई वर्ष पहले गाँव छोड़कर शहर में आकर बस गए थे। उनका बेटा प्रतीक बड़ा ही होनहार और होशियार था। उसकी उम्र भी अब शादी योग्य हो रही थी।
गोपी ने एक दिन कमला से कहा, "कमला अब हमें प्रतीक का विवाह कर देना चाहिए, क्या बोलती हो?"
"हाँ विवाह तो करना ही है लेकिन मुझे तो बड़ा डर लगता है।"
अचरज भरी नज़रों से कमला की तरफ़ देखते हुए गोपी ने पूछा, "ये क्या कह रही हो कमला? किस बात का डर लगता है?"
"अरे गोपी आजकल की लड़कियाँ ससुराल आने से पहले ही अलग घर बसाने के ख़्वाब अपने साथ ही दहेज में लेकर आ जाती है।"
"अरे तो भाग्यवान तुम प्रतीक को आजीवन कुंवारा ही रखोगी क्या?"
"मैंने ऐसा कब कहा?"
"अरे तो फिर ढूँढने दो ना रिश्ता उसके लिए?"
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः