Prem Gali ati Sankari - 109 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 109

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प्रेम गली अति साँकरी - 109

109---

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संस्थान में रोज़ाना की तरह कक्षाएं शुरू हो चुकी थीं और सभी कलाओं के गुरुओं ने अपनी-अपनी कक्षाओं में पहुँचकर अपने छात्रों के साथ अपना काम शुरू कर दिया था | संस्थान में कई सैशन्स होते थे जो बँटे हुए थे | नृत्य के बच्चे अधिकतर शाम को आते थे लेकिन कार्यक्रम की तैयारी करने के लिए कलाकारों की अलग-अलग कक्षाएँ चलती ही रहती थीं | अब अम्मा आवश्यकतानुसार चैंबर मैं बैठतीं अथवा कभी भी किसी क्लास में चक्कर मारतीं, ज़रूरत पड़ने पर मीटिंग्स में रहतीं | 

आज तो माहौल कुछ अजीब सा ही था | सभी मेरे लिए चिंतित थे | किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था | कोई मेरे लिए निर्णय तो ले नहीं सकता था, वह तो मुझे ही लेना था | कुहासे में लिपटे हुए निर्णय लेना कितना कठिन होता है, मैं किसी को समझा भी नहीं सकती थी | क्या समझाती किसी को?पहले खुद तो समझती | जो इंसान खुद कुहासे में, गफलत में हो, वह क्या किसी को कुछ समझाएगा?

“प्रमेश जी कक्षा में हैं----”शीला दीदी ने आते हुए उन्हें देखा था | 

संस्थान इतना बड़ा था कि किसी की दृष्टि पड़ गई तो ठीक वरना सब एक बार ऑफ़िस में आकर अपने-अपने काम में लग जाते | एक बड़ा सा कमरा और था जिसमें समय या इच्छा होने पर फ़ैकल्टी आकर बैठती और चाय, कॉफ़ी, स्नैक्स या जो जिसका मन होता इन्जॉय करते, चुटकुले चलते, हँसी के फुव्वारे फूटते | कभी-कभी हममें से भी कोई वहाँ पहुँच जाते थे | प्रमेश बर्मन बहुत कम वहाँ दिखाई देते | न जाने उनके कोई मित्र भी थे या नहीं ? अम्मा तो उनके पैशन पर फ़िदा थीं | खैर, यह अलग बात थी, अब तो जो महत्वपूर्ण था, वह यह था कि अब आगे क्या ?

कल जो कुछ भी हुआ था, उसमें शर्बत का कोई हाथ हो सकता था क्या?उत्पल अम्मा को न जाने क्या कुछ गोल-गोल समझा गया था जिससे अम्मा और घबरा गईं थीं | मुझे यह बात बड़ी बचकानी लग रही थी लेकिन हुई तो थी ही, हम सब भुक्तभोगी थे और अब सही स्थिति समझ पाने में असमर्थ भी !

“अम्मा ! कल न जाने क्यों श्रेष्ठ का फ़ोन आया था?”मुझे अम्मा को बताना तो था ही लेकिन कल से समय ही कहाँ मिल पाया था! अपनी गर्म हवाओं में तैर रही थी मैं जैसे कोई स्पेस में गोल-गोल घूम रहा हो | वह समझता ही न हो कि आखिर कहाँ जाकर उसके लटके हुए पैरों को ठिकाना मिलेगा?

“दो/तीन दिन पहले डॉ.पाठक का फ़ोन मेरे पास भी आया था | ”अम्मा धीरे से बोलीं थीं | 

“अरे ! कोई खास बात थी क्या? आपसे बात भी नहीं हुई मेरी ---“मैंने आश्चर्य करते हुए अम्मा से पूछा | 

“नहीं, कोई खास बात नहीं, वही कह रही थीं कि श्रेष्ठ बाहर चला गया था, अब वापिस आ गया है | संस्थान में आने के लिए कह रहा था | ”

“हम्म, आपने क्या कहा ?”

“मेरे कहने का क्या था इसमें ---संस्थान में कितने लोग आते हैं---”अम्मा ने जैसे लापरवाही दिखाई | 

“तुमसे क्या कहा उसने ? तुम्हें किसलिए फ़ोन किया था?”अम्मा ने पूछा | 

“पता नहीं अम्मा, जाने क्या बात करना चाहता था | मैंने उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया था | तब तक मैं प्रमेश की दीदी से भी नहीं मिली थी इसलिए मैंने कहा कि अभी तो बिज़ी हूँ और संस्थान में भी नहीं हूँ | ”

“उसे पता चल गया होगा कि तुम प्रमेश के घर पर हो ?”अम्मा ने पूछा | 

“जी, अम्मा, यह तो मैंने पहले ही बता दिया था | मुझे किसी से भी क्या छिपाने की ज़रूरत है?मैंने कुछ उपद्रवी लहज़े में कहा | मैं सच में बुरी तरह थक चुकी थी और चाहती थी कुछ भी हो जाए, आर या पार | जीवन की दिशा ही धुंध भरे रास्तों में मटमैली हो गई थी | 

हाँ, यह सब तो ठीक था, किसी से कुछ छिपाने का आखिर क्या अर्थ था लेकिन यह भी तो था कि इतना सब कुछ गुज़र जाने के बाद भी बार-बार आकर मैं उसी दोराहे-तिराहे पर खड़ी हो जाती थी | अगर यहाँ से कहानी खत्म करके गया हुआ श्रेष्ठ फिर से कहानी शुरू करने आ गया था तब आचार्य जी की क्या स्थिति थी और मेरी?मैं न तो कोई कागज़ की पुड़िया में रखा हुआ चूरन थी, न ही खिलौनों की दुकान पर रखी हुई गुड़िया जिसको कहीं भी तोड़-मरोड़ दो लेकिन हो कुछ ऐसे ही रहा था और हम सब ही किंकर्तव्यविमूढ़ थे | 

अम्मा ने उत्पल से अपने दिल के सारे छाले उत्पल के सामने खोल दिए थे, सारी बात उगल दी थी और बेशक वे घबराई हुई थीं, उन्हें व पापा को मेरा डर सबसे अधिक था कि मैं आखिर क्या सोचूँगी अपने माता-पिता के बारे में?उन्होंने उसी घबराहट को कम करने या बाँटने के लिहाज़ से उत्पल से सब कुछ शेयर कर दिया | 

“शर्बत काम कर गया, बंगाल में कही-कहीं ऐसे टोटके किए जाते हैं कि इंसान को कुछ समझ में ही नहीं आता और सामने वाला वह सब करवा ले जाता है जो वह करवाना चाहता है--- | ”उत्पल ने अम्मा के कान में यह बात डालकर उन्हें और भी असहज कर दिया था | 

“क्या सच में ही? अब ?”अम्मा के मुँह से निकलने पर उत्पल ने कहा था;

“यह तो अमी जी के या आप लोगों पर डिपेंड करता है कि आप लोग क्या डिसीज़न लेना चाहते हैं | ”जब अम्मा ने उसे बताया था तब उसने कहा था | 

सब कुछ इत्तेफ़ाक था या यह सब सोची-समझी साजिश रही होगी?दिमाग था कि उलझनों का जखीरा? लेकिन इस सबमें से निकलने की राह कोई भी नज़र नहीं आ रही थी या फिर सबकी दृष्टि ही धुंधला गई थी!!

उस मीटिंग में से कुछ खास ‘खुल जा सिम-सिम’ का जिन्न कोई चिराग लेकर नहीं निकला था लेकिन ठीक उसी समय गेट पर से गार्ड का फ़ोन आया था कि मैं थी या नहीं? कोई श्रेष्ठ साहब मुझसे मिलना चाहते थे | यह गार्ड अभी कुछ दिन पहले ही पुराने गार्ड की सहायता करने रखा गया था | अभी तक अच्छी तरह से जानता भी नहीं था कि कौन-कौन संस्थान के अपने हिस्से हैं और कौन किससे मिलने आते हैँ?

फ़ोन उसी समय आया था जब हम सब सोच-विचार में बैठे थे | मैंने अम्मा को इशारे से मना कर दिया कि अभी मैं श्रेष्ठ से मिलना नहीं चाहती थी | अम्मा ने शीला दीदी से कहा कि वे कह दें कि जो साहब आए हैं फ़ोन करके आएं, अभी उन्हें कोई नहीं मिल पाएगा | 

अम्मा को यह डर भी तो था कि श्रेष्ठ यदि अमी से नहीं तो उनसे भी मिलने आ सकता था जबकि उनका भी मन इस समय किसी से भी मिलने का नहीं था | इस समय इस उलझन में से निकलना बहुत ज़रूरी था, कैसे भी, कुछ भी करके | श्रेष्ठ वापिस ही लौट गया होगा क्योंकि अम्मा के मना करवा देने पर गेट पर से दुबारा फ़ोन नहीं आया था | 

श्रेष्ठ का फ़ोन नहीं आया तो क्या प्रमेश की दीदी का फ़ोन आ गया | अम्मा ने फ़ोन को स्पीकर पर डाल दिया जिससे वहाँ बैठे हुए सब लोग उस फ़ोन से अंदाज़ा लगा सकें | समझ सकें कि संस्थान की लाड़ली किस भवर में फँसी थी?

“अबी जल्दी से डेट फ़िक्स करनी होगी न ! आप अपने पंडित जी से बात करेंगे कि हम करें?”उधर से आवाज़ आई | 

“प्रोमेश संस्थान में गया है, आप चाहें तो उसको बुलाकर बात कर लीजिए | अमी को भी पूछना जरूरी हाय—”

“जी, मैं देखती हूँ | नमस्ते---”अम्मा ने घबराकर उन्हें नमस्ते करके फ़ोन कट दिया | 

बहुत हो गया !मेरे मन की बात होनी लगभग असंभव सी ही थी | किसी और के लिए तो बाद में, मेरे लिए सबसे पहले | उस छोटे से लड़के के प्रेम में पड़ने का अपराध-बोध मुझे भीतर से पहले ही हिला रहा था | यदि मेरे भाग्य में उत्पल के मिलने की खुशी होती तो मेरा और उसका कुछ जोड़ तो होता | अगर मेरा और उसका कोई संबंध हो भी जाता तो मैं उसे कितना साथ दे पाती?यह भी बहुत बड़ा प्रश्न था जो मेरे मन में उथल-पुथल मचाता रहता था | यदि किसी तरह हम दोनों मिल भी गए तो वह अपने आपको मेरे साथ ही ‘ब्लॉक’करके बैठ जाएगा | ऐसे में वह किसी और की ओर झुकने की कोशिश भी नहीं करेगा ? यह उसके जीवन के लिए आघात ही सिद्ध होगा | मैं शनै:शनै:अशक्त तो हो ही जाऊँगी और वह एक खुली मस्त पवन का झौंका सा भीतर से बुझ जाएगा | नहीं, मैं स्वार्थी नहीं हो सकती | सामाजिक परिवेश की मान्यताओं की बात छोड़ भी दें तो मेरा अपना जमीर ?? इतनी गुलझनों में से निकलने के लिए मैंने मन ही मन निर्णय ले ही लिया !!