Prem Gali ati Sankari - 108 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 108

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प्रेम गली अति साँकरी - 108

पूरे रास्ते हम तीनों में से कोई कुछ नहीं बोला | सबके मुँह में जैसे ताले पड़ गए थे | अजीब सी मानसिक स्थिति में चक्कर खाते हम तीनों ही मानो किसी विचित्र सी दुनिया में से लौटकर आए थे | मैं कहाँ थी? पहले भी तो मैं शून्य ही थी अब तो जैसे गहरे गड्ढे में जा गिरी थी | क्या उसमें से ऊपर आने के लिए कोई सीढ़ियाँ थीं अथवा कोई ऐसा रस्सी पकड़ने वाला जो मुझे ऊपर खींच लेता और अपनी बाहों में भरकर मुझे लोरी सुनाकर चैन की नींद सुला देता | 

नींद तो पहले से ही मेरी दुश्मन थी, उस पर सपने---?? जिनका सब मज़ाक भी बनाते थे, इतने ऊबड़-खाबड़ होते थे, वैसे पहले स्वप्न भी मुझे कहाँ बहुत आते थे? जब से मेरा झुकाव उत्पल की ओर हुआ था, मजे की बात यह थी कि तब से स्वप्नों ने मेरे द्वार पर दस्तक देनी शुरू कर दी थी लेकिन मुझे अधिकतर वे ही स्वप्न आते जिनमें उत्पल मेरे साथ होता | कोई न कोई शरारत करता उत्पल! मुझे हँसाने की चेष्टा करता उत्पल ! हर समय मेरे साथ ही रहने की चेष्टा करने वाला, मेरे चारों ओर चक्कर लगाता रहने वाला उत्पल !

घर पहुँचकर अम्मा-पापा की इच्छा हुई कि मैं उनके साथ थोड़ी देर बैठूँ लेकिन मेरा मन नहीं था | उत्पल के चैंबर की लाइट जल रही थी, हमें देखते ही हर बार की तरह वह बाहर निकल आया जहाँ मैं अम्मा-पापा के कमरे के बाहर खड़ी होकर प्रमेश की दीदी के द्वारा पहनाए गए रत्नजड़ित कड़े निकालकर अम्मा को दे रही थी | मेरा चेहरा सपाट था और अम्मा-पापा को अब जैसे कुछ होश सा आने लगा था | कैसे हो गई उनसे इतनी बड़ी गलती----नहीं, गलती नहीं बलन्डर !लेकिन अभी भी उन दोनों के मस्तिष्क में बातें कुछ गोल-गोल सी घूम रही थीं | 

“थोड़ी देर बैठें अमी बेटा?एक कप कॉफ़ी ले लें---”शायद अम्मा सहज होने की व मुझे भी सहज करने का प्रयास कर रही थीं | 

“नहीं अम्मा, अभी नहीं, अभी मैं ठीक नहीं हूँ, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है | ”मैंने जल्दी से कहा और वहाँ से अपने कमरे की ओर बढ़ने के लिए कदम बढ़ाए | 

“हैलो !”कहते हुए उत्पल हमारे पास आकर खड़ा हो गया | मैंने उसकी तरफ़ नजरें उठाकर देखा भी नहीं और अम्मा–पापा से कहा कि मैं बहुत थक गई हूँ और अपने कमरे की ओर बढ़ आई | 

“चलो, कल बात करते हैं---”कहकर अम्मा ने अपने कमरे की ओर कदम बढ़ाए, पीछे–पीछे पापा ने भी | मैंने कमरे में जाते हुए कई बार पीछे घूमकर देखा था और यह भी देखा था कि उत्पल की दृष्टि अम्मा के हाथ में रखे हुए उन खूबसूरत कड़ों की ओर जम गई थी और उसके चेहरे पर न जाने कितना गहरा प्रश्नचिन्ह छप गया था | 

“उत्पल ! तुम अभी भी काम कर रहे हो ?” अम्मा ने शायद कुछ कहने के लिए उससे पूछ लिया होगा | 

“जी, यूँ ही, थोड़ा सा---”उसके चेहरे पर अम्मा के हाथ में पकड़े हुए कड़ों को देखकर प्रश्न सा पसर आया था | 

“आओ, उत्पल----लैट अस हैव कॉफ़ी टूगेदर----”अम्मा ने उसे अपने कमरे में बुला लिया था | पापा चेंज करने गए लेकिन अम्मा वहीं बैठ गईं | कड़े उन्होंने सामने की मेज़ पर रख दिए थे | 

मुझे यह सब कैसे पता चलता?अम्मा ने ही अगले दिन सारी बातें बताईं थीं | 

पापा आकर चुपचाप बैठे रहे, वे इतने परेशान थे कि स्थिति को समझ पाने में उनका मस्तिष्क काम ही नहीं कर रहा था | अम्मा ने उत्पल से सारी बातें शेयर कर डालीं | स्वाभाविक था उत्पल का दिल डूबने लगा होगा | चाहे हम दोनों के बीच ऐसा कुछ भी न था जो किसी को दिखाई दे सकता लेकिन हमारे भीतर ये संवेदनाएं हमसे कैसे ही छिप सकती थीं?

“उसका मुँह पीला पड़ गया था | ”अम्मा ने अगले दिन मुझे बताया | 

“आपने उनके यहाँ कोई खास शर्बत पीया था?सबने?” उत्पल के मुँह से निकल था | अम्मा ने बताया था | 

“हाँ, हम सबने, अमी पहले से पहुँची हुईं थी, उसने तो पहले से ही पी रखा था | ”

“ओह!” उत्पल चिंता में डूब गया था, अम्मा ने बताया | 

“अम्मा ! आपको उत्पल से शेयर करने की क्या ज़रूरत थी?”मैंने अगले दिन जब हम सबकी मीटिंग बैठी, तब मैंने उनसे पूछा था | 

“पता तो लगना ही था उसे। इतनी बड़ी बात छिपने वाली तो थी नहीं | मैंने सोचा कि शायद वह कुछ समझ पाए कि यह कैसे हुआ होगा?वह भी तो बंगाली है | ”अम्मा खुद को अपराधिनी महसूस कर रही थीं और बेकार ही जस्टीफ़ाई करना चाहती थीं | अम्मा-पापा दोनों को लग रहा था कि मेरी इच्छा के बिना कैसे उन लोगों ने यह निर्णय ले लिया होगा?

कमाल थीं अम्मा !उत्पल जैसे लड़के से पूछ रही थीं, उनकी बहन ने बंगालियों में नहीं शादी की थी क्या? कितने साल हो गए थे और कीर्ति मौसी कितनी प्रसन्न व आनंद में थीं वहाँ जबकि उनकी ससुराल में तो पहले सब संयुक्त परिवार में ही रहते थे फिर----हाँ, शायद अम्मा नहीं चाहती होंगी ऐसी कच्ची बात को रिश्तेदारों के सामने अभी खोलना | 

रात भर मेरे मन में भयंकर उपद्रव, मंथन चलता रहा और मुझे लगा कि यह जो कुछ भी मेरे साथ हुआ था यह अवश्य ही कोई ऐसी प्रेरणा के वशीभूत हुआ था जो मेरे लिए भगवान की सोची-समझी साजिश थी | मुझे भगवान पर गुस्सा भी आ रहा था, मैं इतना उनमें विश्वास करती हूँ, प्रारब्ध में विश्वास करती हूँ इसीलिए यह प्रारब्ध समझकर मुझे स्वीकार करना होगा----? अम्मा-पापा को भी? तो ! फिर----?? बहुत सारे प्रश्नों का जखीरा था जिसको आसानी से समझा जाना बड़ा मुश्किल था | एक बात की न जाने क्यों मुझे बड़ी स्ट्रॉंग फीलिंग थी कि अम्मा इस बात से अधिक खुश नहीं तो अधिक दुखी भी नहीं होंगी क्योंकि मैंने उन्हें शीला दीदी, रतनी और पूरे स्टाफ़ के बावज़ूद भी अपने संस्थान की चिंता करते देखा था | फिर भी उन्हें कोई ऐसा नज़र नहीं आ रहा था जो उनके संस्थान का संपूर्ण भार अपने कंधों पर उठाकर चल सके | मुझे कई बार यह भी याद आ रहा था कि एक/दो बार उन्होंने कुछ ऐसा ज़िक्र भी तो किया था कि संस्थान को कभी ज़रूरत पड़ने पर अगर कोई है तो वह या तो मैं हूँ या ‘फैकल्टी’में आचार्य प्रमेश बर्मन हैं या फिर उन्हें उत्पल में सभी क्वालिटीज़ दिखाई देती थीं | 

हम सभी इस बात को शिद्दत से महसूस करते थे कि अम्मा का तीसरा बच्चा है संस्थान, जितनी चिंता वे मेरी करती हैँ, उतनी ही संस्थान की भी!यदि उन्हें कोई ऐसा मिल जाए जो मेरे साथ मिलकर उनके पीछे भी उनकी इस तीसरी मुहब्बत को संभाल ले तब वे मन से निश्चिंत हो सकती थीं | 

पूरी रात मैं न जाने किस वृत्ताकार में चक्कर काटती रही थी और किस प्रकार स्वयं को संभालती रही थी, मेरा मन ही इस बात को समझ सकता था | उत्पल के नाम से दिल की धड़कनें बढ़तीं और मैं सहम जाती लेकिन वह मेरी जिंदगी का हिस्सा भला कैसे बन सकता था?हाँ, उसकी ओर से कभी ‘न’ का प्रश्न ही पैदा नहीं होता था, ये मेरे मन के भ्रामक दायरे थे, सच कहूँ तो कुछ समझ ही नहीं आता था, कभी नहीं समझ पाई थी और न ही समझने की कोई उम्मीद नज़र आती थी | कैसी कड़ियाँ, उसके मेरे बीच !

एक दिन उसने मुझसे पूछा भी था कि मैंने श्रेष्ठ से झूठ क्यों बोला था कि वह मेरे समय में मेरे कॉलेज में पढ़ा था | हाँ, सच ही तो –एक बार नहीं, मैंने तो श्रेष्ठ को टालने और उत्पल का साथ पाने के लिए जाने कितनी बार श्रेष्ठ से झूठ बोला था | यह झूठ नहीं था कि उत्पल कुछ समय मेरे ही कॉलेज में रहा था लेकिन यह भी तो सच था कि न जाने कितने लंबे वर्षों के बाद वह वहाँ थोड़े दिनों के लिए आया था और फिर चला भी गया था | मेरे, उसके बीच में कितने दशक का फ़ासला था ??तब वह मेरे साथ कैसे पढ़ सकता था? यह सब श्रेष्ठ सोचता तो होगा ही, बेशक सामने कुछ न कहे लेकिन मेरे साथ उत्पल की दोस्ती उसको पसंद तो नहीं ही थी और वह भी तब जब मैं उसे एक तरफ़ करके उत्पल के साथ घूमने या कहीं भी चल देती थी | मेरी उससे नजदीकियाँ तो उसके संस्थान में आने के बाद ही बढ़ी थीं जबकि मैं श्रेष्ठ से सरासर झूठ बोलती रही थी | 

आज प्रमेश के घर पर श्रेष्ठ का फ़ोन आना मुझे फिर से असहज कर गया | इतने स्पष्ट अलगाव के बाद फिर से वह मुझसे आखिर क्यों मिलना चाहता होगा?प्रमेश और उसकी दीदी भी श्रेष्ठ के फ़ोन को लेकर कुछ अजीब से हो आए थे, वे स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कह पा रहे थे लेकिन मैंने उनके चेहरे पर पढ़ लिया था | यह शर्बत पीने से पहले की बात थी और तब तक मैं पूरी सैन्सेज़ में थी | अब मेरे मन में कहीं उलझन भरी गांठें जमा होती जा रही थीं और रात भर का रतजगा मेरे मन और शरीर को तोड़ने के लिए काफ़ी था | 

रात करवटों के सहारे गुज़र चुकी थी और आज इस बात को दूसरा दिन था | हॉल में एक छोटी सी मीटिंग थी जिसमें सभी करीब के लोग शामिल थे, सिवाय उत्पल के!इस समय शीला दीदी और रतनी भी हमारे पास ही बैठीं थीं और अम्मा ने उन दोनों को भी सब कुछ स्पष्ट रूप से बता दिया था | असली सदस्य तो ये सब ही थे अब परिवार के, इन लोगों से कहाँ कोई बात छिपाई जा सकती थी?छिपाने का कोई अर्थ भी नहीं था | किसी को कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि ऐसा कैसे हो सकता है?लेकिन हुआ तो था ही |