वाजिद हुसैन की कहानी
बसन्त के महीने में मेरी नियुक्ति ऋषिकेश के सरकारी अस्पताल में हुई थी। एक छुट्टी के दिन सवेरे न गर्मी ज़्यादा थी और न सर्दी।... मैदान के खेतों और गांवों में लोग बसंत ऋतु की ख़शियां मना रहे थे। वृक्षो की हरियाली व कोपलों से ढकी पहाड़ी ढलाने, हरी मखमली सीढ़ियां जैसी प्रतीत होती , मानो ऋतु के स्वागत के लिए स्वर्ग से भूतल तक प्रशस्त मार्ग बना हो। ... हिंसक जंतुओं ने अपनी मांदो को छोड़ा, पक्षियों ने बसेरा लेना शुरू किया था।
मैं मंत्रमुग्ध होकर ढलान पर चढ़ने लगा। किसी लड़की के लोकगीत की लय ने खड़ी चढ़ाई चढ़ने पर मजबूर कर दिया। हांफता हुआ पहुंचा, तो सुंदर बाला विस्मित होकर बोली, 'आप से पहले, आभा ने किसी शहरी बाबू को यहां तक आते नहीं देखा।'... मैंने उसी के अंदाज़ में जवाब दिया, 'आप की मधुर आवाज़ खींचकर लाई है। आपके चेहरे की आभा ने मेरा मन मोह लिया है।' यह सुनकर वह अल्हड़ हसीना लजा गई। वह मेरे लिए अपने खेत से भुंटा तोड़कर लाई, और भूनने लगी।
इस बीच नदी के कल- कल करते मधुर संगीत ने मुझे आनंदित कर दिया। सामने हिमालय पर्वत स्वाभिमान से जीने का संदेश दे रहा था। वृक्षों लताओं के नवीन कोमल-कोमल पल्लव धरा पर पतझर से छाई नीरवता को दूर कर रहे थे। प्रकृति सुंदरी के रूप का बखान धरा के पेड़ पौधे जल, नदियां झरने पर्वत मालाएं कर रही थी। पक्षियों की चहचहाहट पर कान लगाए, तोतो के झुंड को टकटकी बांधकर देखता रहा।
धूप में लेटी उसकी मां को खांसता देख मैंने कहा, 'मैं सरकारी अस्पताल में डॉक्टर हूं। मां जी को पुरानी खांसी है, छुट्टी के दिन दवा पहुुंचा दुंगा।' बहुत मेहरबानी कहते समय उसका चेहरा खिल उठा।
एक सवेरे धूप आसमान के इस किनारे से उस किनारे तक फैलती गई । मैं आभा की मां की दवाई लिए मखमली सीढ़ियों पर चढ़ता गया। ढलान एकदम रौंंदी हुई थी। जगह जगह पर बोतलें और प्लास्टिक के डिब्बे बिखरे पड़े हुए थे। कुछ टूटी-फूटी डमी बंदूकें और युद्ध का सामान जला पड़ा था। ऐसा लग रहा था मानो अभी कुछ समय पहले ही यहां कोई युद्ध हुआ हो।
अचानक मुझे एक फाॅरेस्ट गार्ड दिखाई दिया। मैंने अचरज से पूछा, 'यह सब कैसे हुआ?' उसने बताया, 'विदेश से एक फिल्म कंपनी आई थी और उन्होंने लड़ाई पर आधारित एक फिल्म बनाई थी। इस लड़ाई में बंदूक और बम चले थे और जंगल के बीच से वर्दी पहने फौजियों ने कूच किया था।'
'पर यह तो रिज़र्व फारेस्ट है!' दुखी हृदय से मैंने कहा।
फाॅरेस्ट गार्ड ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा 'फिल्म कंपनी के लिए शहर से इतने नज़दीक जंगल कहां मिलता, होटल वग़ैरह भी सब इतने आस-पास ही हैं।' एक के बाद एक सुंदर गाड़ियों का जंगल के अंदर आना सुबह से चालू हो गया था ...इन गाड़ियों से इतना शोर हो रहा था, जैसे हम जंगल में नहीं बीच सड़क पर खड़े हैं।'
मैं जंगल की ओर दौड़ पड़ा। परंतु अंदर जाने पर मुझे न तो कोई आदमी दिखा और न ही कोई गाड़ी। उस दिन शूटिंग पूरी करके फिल्म कंपनी जा चुकी थी। जंगल में एक अजीब और असहज खामोशी पसरी थी। मैंने आस- पास दूर तक नज़र दौड़ाई, यहां तक कि पेड़ों पर सारे घोसले खाली मिले। उसमें रहने वाले परिंदे घोंसलों को छोड़ कर जा चुके थे। पास की घाटी तो अक्सर तोतों की आवाज़ से गुलज़ार रहती थी, वहां कोई भी तोता न तो नज़र आया न उसकी आवाज़ सुनाई दी। हमेशा उधम मचाने वाले बंदर कहीं भी नज़र नहीं आ रहे थे। पूरे जंगल में एक अजीब क़िस्म की गंध बेहद-अप्रिय गंध भर गई थी। मैं जंगल में अंदर तक चला गया। आगे जाकर मुझे ज़मीन का एक ऐसा टुकड़ा दिखाई दिया, जिसमें कटे हुए पेड़ झाड़ियां और पत्तियां बेतरतीब ढंग से बिछे हुए थे...। छोटी झाड़ियां और घांस जलाकर राख कर दी गई गई थी। तभी मुझे एक और फाॅरेस्ट गार्ड आता हुआ दिखाई दिया। उसने मुझसे कहा, 'यह रिज़र्व फाॅरेस्टहै। इसमें प्रवेश वर्जित है।'
मैंने कहा, 'आपने यह बात फिल्म कंपनी को नहीं बताई।' उसने कहा, 'वे मंत्री जी के परिचित थे। मेरी क्या हैसियत जो उन्हें रोकता। मैं इतना जानता हूं, हम प्रकृति को रौंद रहे हैं। उसने रुद्र रूप दिखाया, तो मंत्री जी भी झेल न पाएंगे।
ग़मगीन खड़ी आभा मुझे दूर से आता देख रही थी। उसके चेहरे की आभा सर्द पड़ चुकी थी। उसने न गीत गाया न मेरे लिए खेत से भुंटा तोड़कर लाई।मैंने उसे बहादुर शाह ज़फर की ग़ज़ल की वह पंक्ति सुनाई, 'लगता नहीं है, दिल मेरा, उजड़े दयार में।'
मां को खांसी की दवा देते समय वह चांदी के बुत की तरह मेरे पास खड़ी थी। इतने पास कि उसकी सांसे मुझे महसूस हो रही थी। वह मुझे इस तरह अपलक देख रही थी, जैसे मेरी तस्वीर उतार रही हो। फिर उसने अपनी आंखें इस तरह बंद कर ली, जैसे मुझे आंखों में कैद कर लिया। शायद वह समझ चुकी थी, 'शहरी बाबू के आने के लिए यहां कुछ नहीं बचा था।'
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